इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-1
१५ दिसंबर २०१५ से १४ जनवरी २०१६ तक प्रतिदिन एक नयी काव्य रचना के साथ उत्सव
नये वर्ष का। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- सर्दियों के स्वास्थ्यवर्धक व्यंजनों की
शृंखला
में, हमारी रसोई-संपादक
शुचि द्वारा प्रस्तुत है-
अरबी के कवाब।
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बागबानी में-
आसान सुझाव जो बागबानी को उपयोगी और रोचक बनाने
में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं-
३६-
औजारों का बक्सा। |
कला
और कलाकार-
के अंतर्गत
भारतीय चित्रकारों से परिचय के क्रम में
मनजीत बावा
की कला और जीवन से परिचय। |
सुंदर घर-
घर को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो घर के रूप रंग को आकर्षक बनाने में काम आएँगे-
३६-
कलाप्रेमी की बैठक। |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या
आप
जानते
हैं- आज के दिन (१५ दिसंबर को) स्वामी रंगनाथनानंद,
रुस्तम कूपर, जीव मिल्खा सिंह, बाइचुंग भूटिया और अन्वेषा दत्ता ...
विस्तार से
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नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है-
संजीव वर्मा सलिल की कलम से रामकिशोर दाहिया के नवगीत
संग्रह- ''अल्पना
अंगार पर'' का परिचय। |
वर्ग पहेली- २५८
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और
रश्मि-आशीष
के सहयोग से
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हास परिहास
में पाठकों
द्वारा
भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है
भारत से
पद्मा मिश्रा की कहानी
अपना वतन
उकड़ूँ बैठे बैठे उसके घुटनों में
दर्द होने लगा था, जोरों से प्यास भी
लगी थी, कंठ सूखा जा रहा था, पानी पीने की कोशिश भी
जानलेवा साबित होती, बाहर बरसती तड़ तड़ गोलियाँ किसी भी क्षण
उसका सीना छलनी कर देतीं, उस छह फुट लम्बे गबरू जवान मंजीत की
आँखों में आँसू थे, उसने कभी भी अपने आपको इतना विवश और
निरुपाय नहीं पाया था, यही हाल उसके अन्य साथियों का भी था। कम्पनी के निचले हिस्से के गोदाम
में सिकुड़े सिमटे दस भारतीय युवकों का एक दल भयभीत, निराश,
हताशा के एक एक कठिन दौर से गुजर रहा था। मिटटी की टोंटी वाली
मटकी सामने थी, उनके और प्यास बुझाने के बीच की दुरी बहत
मामूली थी लेकिन दर्दनाक अंत या हादसे को न्योता देने वाली थी,
फतेहअली के हाथों में गोली लगी थी, उसे बुखार भी हो आया था।
बार बार पानी की रट लगाता और फिर अपनी व साथियों की बेबसी
जानकर चुप हो जाता। तभी अनीस ने चुप रहनेका इशारा किया। भारी
बूटों की आवाज पास आ रही थी, सभी दम साधे पड़े थे। ...
आगे-
*
राजेन्द्र वर्मा का व्यंग्य
गेहूँ घुन और
लोकतंत्र
*
भारतेन्दु मिश्र का आलेख
गोपाल
सिंह नेपाली की गीत साधना
*
कल्पना रामानी की कलम से
''पंख
बिखरे रेत पर''
: धूप की विभिन्न छवियाँ
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का दसवाँ भाग |
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कल्पना रामानी की
लघुकथा- रुमाल
*
विनय उपाध्याय का आलेख
रंगमंच पर
कविता की उपस्थिति
*
अमिता तिवारी की कलम से
यशपाल के उपन्यासों में सामाजिक सरोकार
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का नवाँ भाग
*
साहित्य संगम में प्रस्तुत है
श्रीवल्ली राधिका की
तेलुगू कहानी उपहार
हिंदी रूपांतरकार हैं जी परमेश्वर
उन दिनों बहुत सुंदर थी मैं।
कुमुदिनी-दलों सी आँखें और उन आँखों में सैकड़ों सपने...। पता
नहीं, कालिदास देखते तो कैसा वर्णन करते पर कॉलेज के लडके,
“बापरे, क्या फिगर है?” कहा करते थे। आँखें फाड़-फाड़ कर देखा
करते थे। उनकी बातें सुनकर प्रकट रूप से क्रोध दर्शाती पर
भीतर-ही-भीतर प्रसन्न होती थी। लोकमर्यादा का पालन करने सर तो
झुका लेती पर शरारत भरी हँसी के साथ होठों पर माणिक की लालिमा
छा जाती। हँसते खेलते मेरी पढ़ाई पूरी हो गयी। पूरी हो जाना
क्या, मैं ने ही पढ़ाई रोक दी। आगे और पढ़ने का विचार मेरे मन
में कभी आया ही नहीं। तब तो ‘विचार’शब्द का अर्थ भी नहीं जानती
थी मैं। सदा खोई-खोई सी घूमती रहती थी। कभी भूल से बैठ जाती तो
लगातार बातें करती रहती। रमणी, इंदिरा, जानकी... हम सब कॉलेज
से एक साथ लौटती थीं। आराम से बातें
करते हुए उस चार फर्लांग की दूरी को हम लोग चार घंटे में तय
करतीं थीं। सीधे घर पहुँचने की आदत हमारी थी ही नहीं। दो घंटे
जानकी के घर में फूल तोड़ने में...
आगे- |
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