गेहूँ के
साथ घुन पाया जाता है। जब गेहूँ पिसता है, तो घुन भी पिस
जाता है। एक नज़र में लगता है कि घुन ‘शोले’ का जय है
जिसने दोस्ती के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी, पर ऐसा है
नहीं। घुन गेहूँ की पीछ में छुरा भोंकता है। वह उसके दिल
में रहकर उसे खोखला करता रहता है। लेकिन मजा यह कि गेहूँ
को घुन से शिकायत तक नहीं!
घुन अकेला नहीं रह सकता। उसे गेहूँ का साथ चाहिए। घुन से
चिढ़ने वालों को यह समझना चाहिए कि अगर घुन है तो कहीं
उसके आगे-पीछे गेहूँ अवश्य होगा। गेहूँ जब तक बालियों में
बन्द रहता है, तभी तक वह घुनों से सुरक्षित है। प्राकृतिक
व्यवस्था ध्वस्त होते ही खतरा बढ़ता है।
गेहूँ जब तक नहीं पिसता, घुन सुरक्षित है। इसलिए आजकल घुन
गेहूँ के उस ढेर के साथ रहते हैं जो पीसा न जाए! जैसे- बीज
बनाने वाला गेहूँ। बफर स्टाक में रखा गेहूँ, देश के तब तक
काम नहीं आता जब तक अगली पैदावार गड़बड़ा जाए! इस प्रकार
के गेहूँ में रहने वाले घुन सपरिवार जन्म से मृत्यु तक मौज
काटते रहते हैं। उनके बच्चे भी इसी तरह मौज करते हैं-
पीढि़यों से चल रहा है सिलसिला घुन को रहने के लिए गेहूँ
मिला!..गेहूँ और घुन में वह सम्बन्ध है कि कभी तलाक नहीं
हो सकता। गेहूँ घुन को चाहे, न चाहे, लेकिन उसे अपने साथ
रखना पड़ेगा। यही व्यवस्था है। गेहूँ लोक है, तो घुन
तंत्र! दोनों में संवैधानिक गठजोड़ है। दोनों एक-दूजे के
लिए बने हैं, गेहूँ को घुन का चुनाव करना ही पड़ेगा।
चुनाव, जंग और प्यार में सब जायज है। जुमला समझाना चाहता
है कि कुर्सी से प्यार करने में यदि जंग करनी पड़े तो वह
जायज है। जंग जीतना महत्वपूर्ण होता है। इस बात में कोई दम
नहीं कि जंग कैसे लड़ी गयी? जंग हमेशा फतेह की खातिर लड़ी
जाती है। राजाओं और बादशाहों के जमाने में जंग सिंहासन या
तख्ते-ताउस के लिए लड़ी जाती थी। वर्तमान में यह कुर्सी के
लिए लड़ी जाती है। पहले यह बाहुबल, सैन्यबल, मस्तिष्क और
कूटनीति के बल से लड़ी जाती थी, पर आजकल यह केवल ‘चुनाव’
के बल पर लड़ी जाती है। सैन्यबल को छोड़ सभी तीनों बल
इसमें शामिल हैं। सैन्यबल का स्थान धनबल ने ले लिया है। यह
बल अकेले ही तीनों पर भारी है।
आज यह जान लेना जरूरी है कि अपने देश में लोकतंत्र लागू
है। यह विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के
चार खम्भों पर टिका है। हालाँकि चारों खम्भों में घुन लगे
हैं, लेकिन लोकतंत्र अभी भी अपने पैरों पर खड़ा है। चुनाव
की घोषणा होते ही श्वेत धवल सूती-रेशमी खादी का कुर्ता और
गाँधी टोपी धारे घुन स्वयं को जनसेवक कहलाना शुरू कर देते
हैं। चुनाव आयोग से अनुमोदित रंग-बिरंगे झंडे-बैनर उठाये
इन घुनों के रिश्तेदार, दोस्त, नौकर-चाकर और अस्थायी
कर्मचारी जनता के वोटों से ऐसा चिपक जाते हैं कि जैसे घुन
न होकर, खटमल हों। फिर ‘जीतेगा भइ जीतेगा, ....वाला
जीतेगा!’ के हृदयभेदी नारों से धरा हिलने और आकाश गूँजने
लगता है। लड़ने वाली के केस में ‘जीतगी भई जीतेगी!’ भले
हार हो जाए, पर आवाज तो गूँजेगी ही। कुछ समझदार किस्म के
घुन मध्यम आवाज में कहते हैं- आपका कीमती वोट बेकार न जाने
पाये! आपके कीमती वोट का हकदार है- फलाँ-फलाँ चिह्नवाला
घुन! पुराने खुर्राट या नये-नवेले घुनों में से किसी एक को
तो चुनना ही है, क्योंकि लोकतंत्र को मजबूत बनाना है। यह
कैसा लोकतंत्र है जो नये-नये घुनों से मजबूत होता है!
दसों दिशाओं से वोट डालने का आह्वान हो रहा है। पहले
पृथ्वीमार्ग से ही आह्वान होता था अब सेटेलाइट के माध्यम
से भी होता है। आपके पास एस.एम.एस. आयेगा- देश हित में वोट
अवश्य डालिए। आपका शुभचिन्तक फलाँ-फलाँ। जिलाधिकारी तक
आपसे प्रार्थना करता है। आज जिलाधिकारी से दस बार
प्रार्थना कीजिए कि वह आपका कोई काम कर दे, लेकिन उसके कान
पर जूँ न रेंगेगी। अलबत्ता आप वोट डालने दौड़ेंगे, क्योंकि
जिलाधिकारी प्रार्थना कर रहा है। कैसे मना करें? प्रार्थना
तो मुख्यमंत्री की है, भले ही जिलाधिकारी कर रहा है!
आपका वोट घुनों के लिए वोट-भर नहीं है, वह चुनावी ‘स्वाति’
की बूँद है। घुन रूपी सीप के मुँह में वोट की बूँद पड़ते
ही मोती बन जायेगी। मोती बनते ही बूँद का अस्तित्व समाप्त।
मोती दुबारा बूँद नहीं बन सकती। उस पर घुन का ही अधिकार
रहता है। जिसने मोती बनाया, उसका कुछ भी अधिकार नहीं? वोट
डालने के लिए मीडिया भी अभियान छेड़े हुए है- ‘वोट डालिए
और राजनीति कीजिए।’ यह कैसी राजनीति है कि वोट डालने वाला
और वोट पाने वाला- दोनों ही राजनीतिक! लोक और तंत्र के इसी
घालमेल को ‘लोकतंत्र’ कहते हैं। संविधान में भी ‘नागरिकों
के कर्तव्य’ का अनुच्छेद इसलिए ही जोड़ा गया है कि आप वोट
डालें, अधिकारों की बात मत करें। चलिए, मान लेते हैं कि
वोट डाले बिना गुजारा नहीं, लेकिन दोस्तो! दस-दस घुन मैदान
में डटे हुए हैं। वे आपके वोट के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे!
आपका वोट भी लोकतंत्र का कुछ भला न कर पायेगा! अंधों में
काना राजा ही तो आप चुन सकते हैं।
लोकतंत्र बहुमत पर टिका है, लेकिन बहुमत की भी कहाँ चलती
है? अल्पमत उसे पटखनी दे देता है। इतने प्रत्याशी मैदान
में होते है कि कोई प्रत्याशी ५१ प्रतिशत वोट पा ही नहीं
सकता। बहुत-से-बहुत २५-३० प्रतिशत पायेगा। फिर वह क्षेत्र
का प्रतिनिधि कैसे हुआ? सरकार प्रत्याशियों की संख्या नहीं
घटा सकती। बार-बार चुनाव भी नहीं करा सकती। इसलिए उसने यह
व्यवस्था दी है कि जो सबसे अधिक वोट पायेगा, वह चुना हुआ
माना जायेगा। ‘अपेक्षाकृत अधिक’ ही बहुमत हो गया! २५-३०
प्रतिशत वाला सबका नेता बन गया- उनका भी, जिन्होंने उसे
वोट नहीं दिया! उसे नापसन्द करने वाले तो ७०-७५ प्रतिशत
हैं। फिर भी वह सबका प्रतिनिधि है!
हाईस्कूल में ३३ प्रतिशत से कम अंक लाने वाला भले ही
‘फेलियर’ कहलाये, लेकिन राजनीति में वह डिस्टिंगशन लाने
वाला ही कहलायेगा! बेटा ३० प्रतिशत अंक लाने वाला फेल हो
गया और बाप इतने ही प्रतिशत से पास होकर कानून बनाने वाला
बन गया। जिसे न पढ़ना-लिखना आता हो, वह भी लोकतंत्र के घुन
की हैसियत रखता है। उसे अंग्रेजी न आती हो, कोई बात नहीं!
उसे कानून न आता हो, कोई बात नहीं! किसी बिल पर बहस न कर
सकता हो, कोई बात नहीं! उसके पास बस एक ही योग्यता हो कि
पचीस-तीस प्रतिशत मतदाताओं ने उसे वोट दिया! सपेरों के देश
में घुन भी स्वागतेय है।
लोकतंत्र के नाम पर अपने यहाँ यही परम्परा है कि जिसे
तीन-चौथाई लोग न चाहते हों, वही शासक बनता है। जब जन्म के
आधार पर शासक बना करते थे, तब तो यह प्रतिशत दस-बारह होता
था। चलो, कुछ तो अच्छा हुआ! प्रत्याशी वही जीतता है, जो
जनता को अधिक-से-अधिक बरगलाता है। विकास के सपने दिखाता
है। महँगाई कम करने और भ्रष्टाचार दूर करने का वादा करता
है। गुड गवर्नेन्स की बात करता है।...पर एक बार जीत जाने
पर वह क्षेत्र में लौट कर नहीं आता! उसका निष्कंटक राज
शुरू हो जाता है। सेवा-भावना तो दूर, क्षेत्र की समस्याओं
का भी कोई हल नहीं होता। विकास की योजनाओं के धन की
बन्दरबाँट पर कोई रोक नहीं होती। पक्ष-विपक्ष, दोनों सहोदर
की भाँति व्यवहार करने लगते हैं। इन चालाकियों से निबटने
के लिए जनता के पास आखिर कौन-सा हथियार है? एक
ग्राम-प्रधान के विरुद्ध तो ‘नो-कांफिडेंस’ मोशन आ सकता
है, पर किसी विधायक या संसद के विरुद्ध नहीं! क्या करे
मतदाता? अगले चुनाव की प्रतीक्षा! पानी मथने से मक्खन
निकला है कभी?....घुन अपनी आदत से बाज आने से रहा! गेहूँ
को ही घुन से सावधान रहना होगा। |