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रंगमंच



रंगमंच पर कविता की उपस्थिति
- विनय उपाध्याय


बाजार और सूचना की पाँव पसारती दुनिया में कविता के सिकुड़ते जाने का सच भले ही कवि-समाज खुलेपन से स्वीकार न करें लेकिन दरहकीकत हिन्दी भाषी बिरादरी में तो कविता कमोबेश निष्कासित सी है। हमें बेझिझक इस निर्मम सत्य को कुबूल कर हताशा से बाहर निकलकर वे राहें तलाशनी चाहिए जो अंततः कविता की पुनर्प्रतिष्ठा की ओर जाती हों। ऐसा भी नहीं, कि कविताओं के दरिया सूख गए हों और भावों और विचारों की झीरें बहना बंद हो गयी हों। यह धारणा भी ठीक नहीं कि कविता की लहरों के संग डूबने-उतराने की गरज नवजात पीढ़ी में बाकी नहीं। हमें लगता है कि सामाजिक-यांत्रिक चुनौतियों को ठीक से पहचानने और पठन-पाठन तथा सम्प्रेषण की विधियों का ठीक से विश्लेषण करने में कोताही हुई है। इन कंजूस फिक्रों के साथ ही लेखक-कलाकारों के बीच सृजनात्मक संवाद की बीहड़ खाइयाँ और भाषण पूर्वाग्रह भी नए प्रयोगों को परवान चढ़ने से रोकते रहे हैं।

हमारे सुदूर अतीत में भी कविता और कला की अंतरंग सोहबत से पाठक-रसिकों का संकुल तैयार होेता रहा। जिसे हम मौखिक, वाचिक, श्रुति या पाठ परंपरा कहते आए हैं, कविता उसी नाव पर तैरती लोक की वैतरणी पर करती रही है। इस परंपरा ने सदा ही नए प्रभावों को आत्मसात किया और सुविचारित ढंग से समाज को संस्कारित करने तथा कविता के प्रति गहरी प्रीति जगाने में जिम्मेदार भूमिका निभाई। इधर बीच में बरसों में कविता के पाठ को लेकर, नए कलात्मक रिश्तों को लेकर, नई पीढ़ी के बदलते रुझान और आस्वाद के आग्रहों को लेकर शिक्षा और संस्कृति के रहनुमाओं ने योजनाबद्ध ढंग से कोई कारगर पहल की हो, मालूल नहीं। इस अँधेरे में टिमटिमाती उम्मीद भरी लौ शौकिया रंगमंच ने जरूर दिखाई है। सीमित संसाधनों के बावजूद उसने अपने आँचल में कविता को आश्रय दिया खासकर विषय, विचार और शिल्प के नए ताने-बाने के साथ जिस कथित छन्दविहीन नई कविता का अवतरण हुआ उसे किताबी दायरे से बाहर वाचिक-अभिनय के जरिए जनता के बीच ले जाने का उत्साह गैर पेशेवर रंगकर्मियों ने दिखाया है।

इधर कविता के पाठ-प्रयोग की प्रस्तुतियों का चलन बढ़ा है। स्वीकारने और नकारने के तर्क-वितर्कों के बीच नई बहसों ने जन्म लिया है। लेकिन लगभग निर्वासित और बेजार हो रही आधुनिक कविता की कला के परिसर में यह आमद भरोसा तो जगाती ही है। मिसाल हिन्दी के यशस्वी कवि संतोष चौबे की कविताओं की पिछले दिनों भारत भवन, भोपाल में हुई पाठ-प्रस्तुति है। निरंतर सृजन सक्रिय युवा रंगकर्मी संजय मेहता ने चौबे के नवप्रकाशित काव्य संग्रह धरती का कोना और इस अ-कवि समय में से 26 कविताएँ चुनकर छात्र वय के कलाकारों के जरिए उन्हें साभिनय प्रस्तुत किया।

निश्चय ही यह चौबे की कविताओं का पुनर्जन्म था लेकिन एक नए रागात्मक सूत्र और आनंद की अपार ऊर्जा से सभागार भरा था। यहाँ कहीं-कहीं शब्दों के अशुद्ध उच्चारण, सतही पाठ और दृश्य परिधि के ठीक से उनके न बाँध पाने की बाकी रही कसर पर प्रदर्शन के बाद कवि-आलोचकों के बीच बहसें भी हुई लेकिन रंगकर्म और कविता के बीच रचनात्मक छटपटाहट और चुनौतियों से पार जाने की जिजीविषा को तो साधुवाद ही मिला। लगभग चार सौ प्रेक्षकों से भरी अंतरंग शाला में एक चौथाई तादाद उन तरुणों की थी जिनमें से अधिकांश सूचना प्रौद्योगिकी या विज्ञान के स्नातक बनने मध्यप्रदेश या पड़ौसी प्रदेशों के नगर-कस्बों से आए हैं। खुद कवि संतोष चौबे के लिए यह विस्मय और प्रसन्नता से भरा अनुभव था कि तकनीक की तालीम ले रहे इन छात्रों ने न केवल पेश की जा रही कविताओं को धीरज और रुचि में सुना-देखा बल्कि प्रस्तुति के दौरान ठीक मुकाम पर स्वतः स्फूर्ति तालियों से कविता के प्रति अपनी समझ का साक्ष्य भी दिया। तय तो यही है कि कविता से आत्मीय परिचय की पहली सीढ़ी उसका पाठ है।

यह शुभ संकेत है कि अपनी-अपनी हदबंदियाँ तोड़कर साहित्य और कला की विधाएँ एक-दूसरे से गलबाहें कर समाज को संबोधित होना चाहती हैं। मकसद यही कि समाज से उठाया कोई विचार, घटना, स्मृति या अनुभव पूरे ताप के साथ समाज में जाए और सर्जक का निजी चिंतन समूह को भी आन्दोलित करे। बात भोपाल की, तो रंगभूमि पर हो रहे प्रयोगों ने खासा ध्यान बाँटा है। नई कविता के रंगमंच ने दिलचस्पी के आयाम रचते हुए वृहद दर्शक बिरादरी अर्जित करने में बाजी मारी है।

आधुनिक हिन्दी रंगमंच के आसपास बात करते हुए थोड़ा पीछे जाएँ तो भोपाल में कविता और मंच की नातेदारी का सिलसिला रंगमंडल भारत भवन ने शुरू किया। ज्येष्ठ रंगकर्मी अलखनंदन ने हिन्दी के सुप्रतिष्ठित कवि श्रीकांत वर्मा की रचनाओं के साथ अगुवाई की। रंगकर्मी जयंत देशमुख मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर नए नाटकीय तेवरों के साथ प्रकट हुए। उत्साह और जागृति के इस माहौल में राजीव गोहिल ने भी कविता का मंचीय प्रयोग किया। बीच के कुछ बरस खामोशी में डूबे रहे, लेकिन हिन्दी कविता का हाथ थामकर उसे पुनः रंग परिसर में लाने का साहस संजय मेहता ने किया। अपने नाट्य समूह रंगशीर्ष के लिए उन्होंने बाकायदा कविता की पाठ प्रस्तुति के शोध, अन्वेषण और मंचन का अबाध सिलसिला शुरू किया। म.प्र. की साहित्य अकादमी के आयोजनों में भी कविता के आस्वाद और सम्प्रेषण की नई जगह बनी। प्रदेश के ही जनसंपर्क संचालनालय ने कविता में मध्यप्रदेश शीर्षक धारावाहिक प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू किया। वृहद विमर्श भी पिछले दिनों संजय मेहता के संयोजन में ही भोपाल में हुआ।

एक अन्य सफल प्रयोग कविता यात्रा भी काफी चर्चित रहा। संतोष चौबे द्वारा चयनित समकालीन हिन्दी कवियों की रचनाओं को मनोज नायर ने अनूठी रंग चेतना दी। वहीं रंगकर्मी ब्रजेश अनय ने मालवा के कवि प्राण वल्लभ की कविताओं को नाटकीय सूत्रों में विन्यस्त किया। आलोक चटर्जी ने कविता और गद्य की कई विधाओं के नियमित पाठ की ओर रुख किया और बिल्कुल अभी-अभी युवतम रंगकर्मी सौरभ अनंत ने धर्मवीर भारती की बहुशंसित काव्य रचना कनुप्रिया के मंचन का साहस भारत भवन (भोपाल) में किया।... अब सवालों का उठना भी लाजिमी है। कविता के चयन और उसकी ओर उठ रही निगाह को लेकर, निर्देशक और अभिनेताओं के काव्यबोध को लेकर, मंचन की संप्रेषणीयता लेकर... कई बिन्दु हैं, जिन पर गंभीर और नियमित विमर्श की दरकार है। निश्चय ही खुली आलोचना से प्रयोगधर्मिता का परिष्कार होगा।

१ दिसंबर २०१५

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