३ दिसंबर जन्म जयंती के अवसर पर
यशपाल के उपन्यासों में सामाजिक सरोकार
- रामनिहाल गुंजन
प्रेमचंद के बाद यशपाल ही ऐसे सशक्त उपन्यासकार हैं
जिन्होंने समाज से सीधे टक्कर ली है। उन्होंने सामाजिक
विषमताओं, असंगतियों और विकृतियों का पर्दाफाश किया
है। यशपाल ने अपने उपन्यासों में जीवन के विविध पहलुओं
पर प्रकाश डाला है। कुछ समस्याओं पर उन्होंने गंभीरता
से विचार किया है तो कुछ की ओर संकेत किया है। भारतीय
समाज के उच्च, मध्य और निम्न वर्ग की समस्याओं और
विषमताओं को उन्होंने निकट से देखा और समझा है। युगीन
समाज की सभी समस्याओं- चाहे सामाजिक हों या राजनीतिक-
उनकी दृष्टि गई है।
युगीन समस्याओं के संदर्भ में उन्होंने पूँजीपतियों और
मजदूरी के संघर्ष को प्रमुख रूप से चित्रित किया है।
मार्क्य के अनुयायी होने के कारण मार्क्यवादी दर्शन की
अभिव्यक्ति उनके उपन्यासों में स्थान-स्थान पर देखी जा
सकती है। मार्क्सवादी विचारधारा का आधार मजदूर और
मिल-मालिकों का संघर्ष है। यशपाल अपने उपन्यासों में
मजदूरों और मिल मालिकों के संघर्ष को अवश्य चित्रित
करते हैं। दादा कामरेड, पार्टी कामरेड, देशद्रोही,
झूठा सच आदि ऐसे उपन्यास हैं जिनमें मिल मालिकों और
मजदूरों के संघर्ष का चित्रण प्रमुख रूप से हुआ है।
दिव्या और अमिता भले ही ऐतिहासिक उपन्यास हैं परंतु
उनके माध्यम से भी लेखक ने मानवीय मूल्यों की ही
अभिव्यक्ति की है। झूठा सच भारतीय समाज का ऐसा सार्थक
दस्तावेज है जिसमें भारतीय समाज के हर वर्ग का सुख-दुख
है, राजनीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक स्थितियों का चित्रण
है। यह उपन्यास देश के विभाजन की वीभत्स और करुण
घटनाओं का सजीव चित्रण है।
साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। जीवन
और समाज से जुड़ी हुई रचना ही कालजयी रचना होती है।
वास्तव में साहित्य की सार्थकता सामाजिक कल्याण में
है। यशपाल की दृष्टि सदैव सामाजिक कल्याण की ओर रही
है। उनकी दृष्टि में कला की उपयोगिता सामाजिक जीवन की
पूर्णता में है।
दादा कामरेड की भूमिका में उन्होंने कला के संबंध में
लिखा है- ‘कला को कला के निर्लिप्त क्षेत्र में ही
सीमित न रखकर मैं उसे भावों या विचारों का वाहक बनाने
की चेष्टा करता हूँ क्योंकि जीवन में मेरी साध केवल
व्यक्तिगत जीवनयापन ही नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन की
पूर्णता है। इसलिए कला से संबंध जोड़कर भी मैं कला को
केवल व्यक्तिगत संतोष के लिए नहीं समझ सकता। कला का
उद्देश्य है- जीवन में पूर्णता का यत्न। बजाय इसके कि
कला का यत्न बहककर हवा में पैंतरे बदलकर शांत हो जाए,
क्या यह अधिक अच्छा नहीं कि वह समाज के लिए विकास और
नवीन कला के लिए आधार प्रस्तुत करे।’ (दादा
कामरेड,पृ.४)
यशपाल का यह कथन उनके उपन्यासों में पूर्ण रूप से
दिखाई देता है। उनके उपन्यासों की नींव सामाजिक और
राजनीतिक समस्याओं पर खड़ी है। वास्तव में समाज और
साहित्य का पारस्परिक संबंध होता है। यह बात और है कि
कभी-कभी लेखक अपने साहित्य में ऐसे समाज का वर्णन करता
है जैसा वह चाहता है या फिर उस समाज के रीति-रिवाज,
मूल्य और मान्यताओं का वर्णन करता है, जिसमें वह रहता
है।
यशपाल का दर्शन भले ही मार्क्सवादी हो, उनका मुख्य
उद्देश्य भले ही मिल मालिकों और मजदूरों का संघर्ष
दिखाना रहा हो, लेकिन वह समाज के प्रति भी उतने ही
सचेत रहे हैं। सामाजिक समस्याओं को भी उन्होंने उसी
स्तर पर चित्रित किया है, जिस स्तर पर राजनीतिक को।
अपने युग की सामाजिक समस्याओं, मूल्यों और मान्यताओं
की अभिव्यक्ति वह अपने उपन्यासों में करते रहे हैं।
देशद्रोही तथा मनुष्य के रूप उपन्यास में यशपाल ने
संयुक्त परिवार की जर्जर स्थिति का चित्रण किया है।
युग के अनुसार व्यक्ति के मूल्य बदल जाते हैं। कभी
संयुक्त परिवार के प्रति लोगों में पूर्ण आस्था थी।
संयुक्त परिवार का आधार भ्रातृ-प्रेम था। परिवार के
सभी सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुख से सुखी और दुखी होते
थे। परंतु आधुनिकीकरण ने मानवीय संवेदनाओं को बदल
दिया। आस्था, प्रेम, श्रद्धा, सहानुभूति का स्थान अर्थ
ने ले लिया और आज के युग में अर्थ ने मनुष्य को इतना
स्वार्थी बना दिया कि वह भ्रातृ-प्रेम को भूल गया।
मानवीय मूल्य उसके हाथों से रेत के कणों की तरह खिसक
गए। देशद्रोही उपन्यास का ईश्वरदास चाहता है कि उसका
भाई सुरक्षित न लौटे ताकि वह सारी संपत्ति का मालिक बन
सके।
आज के युग में संयुक्त परिवार की दीवारें कितनी खोखली
हो चुकी हैं, इसका वर्णन यशपाल ने स्थान-स्थान पर किया
है। प्रेम, सहानुभूति, समर्पण, त्याग कभी संयुक्त
परिवार के आदर्श थे। आज वे सब मूल्य लुप्त हो गए हैं।
संयुक्त परिवार की प्रेम भावना आज कितनी खोखली और
अस्थिर है इसका उदाहरण देशद्रोही उपन्यास में देखने को
मिलता है- "नए ढंग की पढ़ी-लिखी बहू के घर आने से बुआ
और जेठानी ने परेशानी अनुभव की थी, परंतु डॉक्टर की
ऊँची नौकरी पा जाने के उत्साह में वह भुला दी गई थी।
घर में बहू के आने पर लक्ष्मी के चरण पड़ने के करण वह
लाड़ली बन गई थी। सास के आसन की अधिकारी बुआ और जेठानी
उसे कुछ न कह सकती थीं, परंतु कुलक्षणा विधवा बन जाने
पर वह बहू बोझ बन गई।" (पृ. ४२)
सामाजिक रूढ़ियों और मान्यताओं के नाम पर भारतीय समाज
में नारियों का शोषण होता रहा है। यशपाल ने अपने
उपन्यास में ऐसी समस्याओं को यथार्थ रूप में प्रस्तुत
करके एक ओर जहाँ उस समस्या से परिचित कराया है वहीं
दूसरी ओर उस समस्या से पीड़ित नारी को मुक्ति दिलाने का
भी प्रयास किया है। यशपाल नारी को समानाधिकार देने के
समर्थक हैं। उनके शब्दों में- "आज हमारे समाज का आधा
भाग यानी नारी समाज की कठिनाई और संघर्ष में अपने
आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दायित्वों को समझे, वे
केवल कंधों पर बोझ न बनी रहें।" (दादा कामरेड पृ.१०१)
देशद्रोही उपन्यास की राजबीबी के माध्यम से विधवा
समस्या को नवीन दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। खन्ना
की मृत्यु की सूचना के पश्चात राजबीबी बद्री बाबू से
शादी कर लेती है। अचानक खन्ना जब लौटकर आता है तो अपनी
पत्नी का पुनर्विवाह सुनकर उसे धक्का अवश्य लगता है
परंतु वह उदात्त मानवीयता के करण राजबीबी को दोषी नहीं
मानता और न ही उसके पास जाता है। राजबीबी भी अब
बद्रीबाबू के प्रति ही निष्ठावान है इसलिए बीमारी की
स्थिति में भी खन्ना को अपने घर में एक रात के लिए भी
शरण नहीं देतीं।
खन्ना के प्रति राजबीबी का समर्पण एक दिन वास्तविक था,
लेकिन आज वही समर्पण और प्रेम बद्री बाबू के प्रति है।
राजबीबी के चरित्र के माध्यम से यशपाल ने इस सत्य की
स्थापना की है कि विधवा स्त्री को भी समाज में सम्मान
से जीवित रहने का अधिकार है। वास्तव में व्यक्ति, समाज
और परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं। सामाजिक मूल्य भी
बदलते रहते हैं। इसलिए विधवाओं के प्रति समाज का
दृष्टिकोण भी बदलना चाहिए। यदि कोई विधवा स्त्री
परिस्थितियों से समझौता करके नई जिंदगी की शुरूआत करती
है, तो समाज को उसका स्वागत करना चाहिए। उसके संबंध को
अनैतिक नहीं मानना चाहिए। यशपाल ने अपने उपन्यासों में
सामाजिक एवं सांस्कृतिक धरातल पर गहराई से विधवा
समस्या को प्रस्तुत करके नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया
है। सच तो यह है कि यशपाल पति-पत्नी के बीच से
शासक-शासित और मालिक-गुलाम के संबंध को मिटा देना
चाहते हैं और यह तभी संभव है जब नारियाँ भी पुरुषों की
भाँति अपने सार्वजनिक व्यक्तित्व का निर्माण करें।
यशपाल की दृष्टि में आर्थिक स्वतंत्रता ही नारी को
दासता से मुक्ति दिला सकती है। इसलिए उनके सभी नारी
पात्र सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं का विरोध करते
हैं।
यशपाल के उपन्यासों में जो भी नारी पात्र आए हैं, वे
अभिजात वर्ग और मध्यवर्ग से संबंधित हैं। ये सभी नारी
पात्र जीवन में दोहरा संघर्ष करते हैं। एक ओर सभी
नारियाँ सामाजिक परंपराओं, रूढ़ियों और मान्यताओं के
प्रति विद्रोह करती हैं तो दूसरी ओर पूँजीवादी शोषक
व्यवस्था को समाप्त करने के लिए राजनीतिक क्षेत्र में
भी अहम भूमिका निभाती हैं।
दादा कामरेड उपन्यास की नायिका शैलबाला स्वतंत्र
प्रकृति की नारी है। उसका दृष्टिकोण सामान्य नारियों
से भिन्न है। वह शादी का विरोध करती है। शैल का नारी
स्वातंत्र्य सामाजिक विचारों की अवहेलना के साथ ही
सदाचार और व्यवहार की भी उपेक्षा करता है। शैल का
व्यवहार भारतीय संस्कृति के विपरीत दिखाई देता है।
प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति और गरिमा होती है। शैल
का आचरण, व्यवहार और मानसिकता भारतीय संस्कृति और
सभ्यता से नितांत अलग है। उसका स्वच्छंद आचरण देखकर
ऐसा लगता है मानो वह पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में
जी रही हो।
यशपाल का समाज के प्रति अपना अलग दृष्टिकोण है।
उन्होंने समाज की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्व दिया
है। वह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते हैं जिसमें किसी
व्यक्ति या वर्ग का शोषण न होता हो। वह सभी सामाजिक
रूढ़ियों और सामाजिक संस्थाओं को समाप्त करना चाहते हैं
क्यों ये संस्थाएँ और रूढ़ियाँ मनुष्य को सहज रूप से
नहीं जीने देतीं। सामाजिक शोषण को समाप्त करने के लिए
यशपाल विवाह संस्था को समाप्त कर देना चाहते हैं।
यशपाल ने अपने उपन्यासों में शोषितों के प्रति मानवीय
दृष्टिकोण, सहानुभूति, व्यक्ति स्वातंत्र्य एवं उदारता
आदि मूल्यों को चित्रित किया है। ये सभी मूल्य समाज के
कल्याण और उसके विकास की भावना से संबंधित हैं।
परंपरागत रूढ़ियों एवं शोषण का विरोध करते हुए क्रांति
का आवाहन और स्वस्थ मूल्यों का विकास करना ही उनका
उद्देश्य रहा है। अमिता उपन्यास की बालिका अमिता
द्वारा ‘किसी से न छीनना, किसी को नहीं डराना एवं किसी
को नहीं मारना’ अपनाया गया मंत्र समाज सेवा एवं कल्याण
की भावना सं संबद्ध है। इस उपन्यास में यशपाल ने युद्ध
का विरोध किया है। अमिता बड़ी निर्भीकता से अहिंसा की
प्रकृति का समर्थन करती है जिसके फलस्वरूप अशोक
प्रतिज्ञा करता है- ‘वह किसी से नहीं छीनेगा, किसी को
डराएगा नहीं, किसी को मारेगा नहीं। अमिता द्वारा इस
प्रकार युद्ध का विरोध करना, अहिंसा तथा विश्व प्रेम
का संदेश देना मानवीय मूल्यों को प्रकट करता है।
१ दिसंबर २०१५ |