इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
सुरेन्द्र शर्मा,
सुरेन्द्र चतुर्वेदी, अनिल कुमार पुरोहित, पवन प्रताप सिंह पवन तथा हिना गुप्ता
की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी
रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- गर्मियों के मौसम में
फलों का ताजापन समेटे कुछ ठंडे मीठे व्यंजनों के क्रम में-
आम कस्टर्ड। |
गपशप के अंतर्गत-
मुखौटे हर संस्कृति मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते
हैं इनके विषय में विस्तार से बता रही हैं गृहलक्ष्मी-
मुखौटों का महत्व... |
जीवन शैली में-
ऊर्जा से भरपूर जीवन शैली के लिये सही सोच आवश्यक
है, इसलिये याद रखें- सात बातें जिनके लिये
झिझक नहीं होनी चाहिये
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सप्ताह का विचार में-
विज्ञान के चमत्कार हमारा जीवन सहज
बनाते हैं पर प्रकृति के चमत्कार धूप, पानी और वनस्पति के बिना
तो जीवन ही
संभव नहीं।
--मुक्ता |
- रचना व मनोरंजन में |
आज के दिन
कि
आज के दिन (२८ अप्रैल को) १९२९ में फिल्म गाँधी के लिये आस्कर
जीतने वाली कास्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया...
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हास
परिहास
के अंतर्गत- कुछ नये और
कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी
का आनंद...
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वर्ग पहेली-१८२
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष
के सहयोग से |
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में-
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साहित्य संगम में प्रस्तुत है
गुररमीत कडियावली की पंजाबी कहानी का रूपांतर-
संसारी
‘संसारी’ ज्योति ज्योत समा
गया था। दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी में सुबह लोगो ने उसके शरीर
को सडक के किनारे देखा था। पल भर में ही यह खबर जंगल की आग की
तरह कस्बे में और कस्बे से सटे हुए गावों में फैल गई थी।
अभी कल ही तो वह बड़े आराम से पेट पातशाह को रिश्वत देने के लिए
सड़क के किनारे बैठ कर माँग रहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था
कि वह पेशावर भिखारी था। पेशावर भिखारी तो आजकल सरकारी
दफ्तरों, विधानसभाओं, और संसद में विराजमान हो गये हैं। वह तो
जरुरत के अनुसार कभी कभी माँगता था। वह भी अन्य व्यापारियों,
दुकानदारों और जुआरियों की तरह शहर का एक अंग था। रात में कहाँ
चला जाता है, किसी ने ख्याल नहीं किया था। कई कई बार तो कई कई
दिन गायब रहता था। उन दिनो में सबसे ज्यादा तकलीफ सट्टे वालों
को होती थी। उनकी नजरें ‘संसारी’ को तलाशती रहती थीं, उनके
चेहरे पर परेशानी की झलक दिखाई देने लगती, क्योंकि सट्टे का
नंबर संसारी से पूछकर ही लगाते थे।...
आगे-
*
अभिरंजन कुमार का वयंग्य-
शर्म शब्द अप्रासंगिक, शर्मिंदा होना गुनाह
*
अशोक उदयवाल की कलम से-
बड़ी तरावट वाली ककड़ी
*
कीर्ति शर्मा से रंगमंच में-
रंगभूमि पर रौशनी के हस्ताक्षर
*
पुनर्पाठ में-
कलादीर्घा के अंतर्गत
चित्रकार
मनसाराम से परिचय
1 |
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पिछले
सप्ताह-
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१
अंतरा करवड़े की
लघुकथा-
वीर
*
सुरेश कुमार पण्डा का ललित निबंध
ऋतुओं का बदलता संसार
*
लीला रामचरण धाकड़ से प्रकृति
में
पक्षियों की प्रणय लीला
*
पुनर्पाठ में- गुरुदयाल
प्रदीप का आलेख-
जीवन की नियामक जैविक
घड़ी
*
समकालीन कहानियों में भारत से
रत्ना ठाकुर की कहानी-
गुड़िया का ब्याह
“तुम्हें अपनी गुड़िया का ब्याह नहीं करना क्या?” रीमा ने हमारी
गुड़िया के घर का मुआयना करते हुए पूछा। हम इतनी देर से गर्व से
उसे अपनी गुड़िया का घर दिखा रहे थे। मम्मी की नज़रों से छिपा कर
कूड़े के ढेर से उठाई गई चीज़ों से अच्छी खासी गृहस्थी बन गई थी।
जूते के डब्बे, माचिस की डिब्बियाँ, रंग बिरंगे गोटे, इन सब से
हम ने अपनी रचनात्मक शक्तियों का उपयोग करते हुए अपनी गुड़िया
की एक अच्छी खासी गृहस्थी बसा कर रखी थी, और हम तो सोच रहे थे
कि रीमा अब तारीफ का पिटारा खोलने ही वाली है। पर ये सोचना भी
तो हमारी गलती थी! आज तक रीमा ने किसी चीज़ की तारीफ की थी
क्या, जो आज करती? खैर, हम ने अपनी सोच को लगाम देते हुए कहा,
"ब्याह तो हो गया इसका! ये गुड्डा इसका पति ही तो है!” सच बात
तो ये है कि रीमा के सामने भले हम कबूल ना करें पर अपनी गुड़िया
की शादी हम कितनी बार कर चुके थे, हमें खुद भी याद नहीं था।
रीमा ने नाक सिकोड़ते हुए कहा,” ...
आगे- |
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