| 
                       
						जैविक घड़ी- जीवन की नियामक
 —डा.
						गुरू दयाल प्रदीप
 
 
						जेम्स व 
						डोरोथी मूर जिन्होंने जैविक घड़ी के संबंध में महत्वपूर्ण 
						प्रयोग किये। 
 
						काल यानी समय...भला 
						कोई है जो इसके चक्र से अछूता हो? सजीव–निर्जीव सभी इससे 
						बँधे हैं। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे सूक्ष्म कण से लेकर 
						ग्रह, तारे...यहाँ तक कि संपूर्ण ब्रह्मांड की गतिविधि का 
						नियामक है, यह समय। तो जनाब, हम–आप जैसे जीव–जंतु ही इसके 
						प्रभाव से दूर कैसे रह सकते हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि 
						असमय एवं अचानक होने वाली घटनाएँ भी समय के बंधन से मुक्त 
						नहीं हैं।
 
 संभवतः इसी लिए हमारे पूर्वजों ने सभ्यता के विकास के 
						प्रारंभ में ही समय के महत्व को समझ लिया था। घड़ी के 
						आविष्कार के पूर्व भी समय को भूत, भविष्य एवं वर्तमान, 
						दिन–रात, प्रातःकाल, मध्यकाल, संध्याकाल, क्षण, प्रहर आदि 
						में बाँट कर सोने–जगने, खाने–पीने, काम–आराम, मनोरंजन आदि 
						सभी क्रिया–कलापों को समय–बद्ध तरीके से करने पर बल दिया 
						गया। सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों एवं नक्षत्रों की गतिविधियों 
						द्वारा समय का हिसाब–किताब रखने का प्रयास किया गया। फिर 
						आयीं घड़ियाँ और उनके साथ आया सेकोंडों, मिनटों एवं घंटों 
						का हिसाब। शायद यह भी पर्याप्त नहीं था, तो अब आईं 
						इलेक्ट्रॉनिक क्वार्टज़ घड़ियाँ, जो हमें समय के सेकेंड से 
						भी कई गुना छोटे हिस्से का ज्ञान कराती हैं और हम अपनी 
						दिनचर्या इसके अनुरूप ढालने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज की 
						व्यस्त जीवन शैली में जिस किसी से कुछ पूछो तो बस एक ही 
						उत्तर मिलता है– ‘मेरे पास समय नहीं है’। शायद ऐसा कहना 
						आजकल फैशन और प्रतिष्ठा का पर्याय हो गया है। तभी तो एक 
						निठल्ला भी ऐसा कहने में नहीं चूकता। इस भागम–भाग में 
						लोगों की अपनी ‘जैविक घड़ी’ भी गड़बड़ाती जा 
						रही है। परिणाम–अनिद्रा, 
						उद्विग्नता, हृदय एवं तरह–तरह के मानसिक रोग!
 
 कलाई – घड़ी, दीवाल– 
						घड़ी, इलेक्ट्रॉनिक – घड़ी... और अब यह जैविक घड़ी! भई कमाल 
						है ! लेकिन नहीं, इसमें हमारा, आपका या फिर वैज्ञानिकों का 
						कोई कमाल नहीं हैं। यह घड़ी तो प्रकृति ने हर छोटे–बड़े जीव 
						को मुफ्त में दे रखी है, जो हमें दीखती तो नहीं है लेकिन 
						अपना काम सुनिश्चित रूप से निरंतर करती रहती है। प्रायः 
						सभी जीव अपने बाह्य एवं आंतरिक वातावरण में हो रहे इन 
						दैनिक, मासिक तथा वार्षिक परिवर्तनों के प्रति सचेत रहते 
						हैं। वातावरण में होने वाले इन परिवर्तनों की समय–सारणी के 
						अनुरूप ही उनकी यह आंतरिक जैविक घड़ी शरीर के विभिन्न 
						क्रिया–कलापों का नियमन 
						करती है। यह कैसे होता है इसको छोटे छोटे उदाहरणों द्वार 
						समझा जा सकता है—
 
 हमारे मस्तिष्क में निद्रा से जुड़ी कुछ लयात्मक गतिविधियों 
						का आवर्तन एक सेकेंड में लगभग सात बार तक होता है। इसी 
						प्रकार कुछ नर स्तनधारियों के मस्तिष्क में स्थित पियूषि 
						ग्रंथि के एक विशेष रसायन ‘ल्यूटिनाइज़िंग हॉरमोन’ के रिसाव 
						की आवृति घंटे–दो घंटे के अंतर पर होती रहती है। यह रसायन 
						नर स्तनधारियों के अंडकोष की प्रजनन संबंधी क्रिया–कलापों 
						के नियंत्रण में मुख्य भूमिका निभाता है। ऐसी लयात्मकता को 
						‘अल्ट्रैडियन लय’ कहते हैं। दिल की धड़कनें, साँस लेने की 
						प्रति मिनट दर आदि कुछ अन्य उदाहरण हैं।
 
 ‘एक दिवसीय 
						लयात्मकता’ उसे कहते हैं जिसकी आवृति सामान्यतः चौबीस घंटे 
						में एक बार होती है। सोने–जगने, सक्रियता–निष्क्रियता आदि 
						से ले कर विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं व्यवहारिक 
						गतिविधियों का समय निर्धारण तथा उनका दैनिक आवर्तन इसी 
						श्रेणी में आते हैं। सैद्धांतिक रूप से ऐसी लयात्मक 
						गतिविधियों का नियमन किसी भी समय सापेक्ष परिवर्तनशील 
						वाह्य उत्प्रेरकों (जैसे तापमान, दाबाव, गुरुत्व आदि) 
						द्वारा हो सकता है परंतु व्यावहारिक रूप से सूर्य के 
						प्रकाश की तीव्रता, दिन–रात की समयावधि जैसे तत्व ऐसी 
						प्रक्रियाओं के नियमन में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ऐसे 
						तत्वों का प्रभाव लगभग सभी जीवों पर व्यापक रूप से किंतु 
						अलग–अलग दृष्टिगोचर होता है। इसी कारण दिवाचारी व रात्रिचारी 
						जीव–जंतुओं के कार्यकलाप के नियम भिन्न भिन्न होते हैं।
 
 चंद्रमा के शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के साथ–साथ उसके गुरुत्व 
						का प्रभाव समुद्र में ज्वार – भाटे के रूप में दिखाई पड़ता 
						है। समुद्र–तट पर इस ज्वार–भाटे के क्षेत्र में रहने वाले 
						‘फिडलर केकड़ों’ तथा अन्य बहुत सारे रीढ–.विहीन जंतुओं के 
						क्रिया–कलाप चंद्रमा के गुरुत्व तथा ज्वार–भाटे के समय के 
						साथ लयात्मकता प्रदर्शित करते हैं।
 
 एक विशेष प्रकार की 
						गिलहरी के शरीर का भार गर्मियों में बढ़ जाता है तो 
						सर्दियों तथा प्रजनन काल में घट जाता है। इस प्रकार के 
						शारीरिक कार्यकी एवं व्यावहारिक क्रिया–कलापों में वार्षिक 
						तथा मौसमी चक्र तथा लयात्मकता भी बहुत सारे जीव–जंतुओं में 
						देखने को मिलती है। इन जीव जंतुओं के कार्य–कलापों का 
						नियमन संभवतः वातावरण में परिवर्तनों के साथ–साथ इनकी 
						आंतरिक जैव घड़ी की सहायता से होता है। कुछ कीट –पतंगों एवं 
						पक्षियों में दैनिक, मौसमी तथा वार्षिक क्रिया–कलापों का 
						समय इतना सटीक एवं सुनिश्चित होता है कि वे इलेक्ट्रॉनिक 
						घड़ियों को भी मात करते हैं।
 
 कहाँ हैं ऐसी घड़ियाँ और कैसे काम करती है ये? जैविक 
						लयात्मकताओं तथा इनके नियंत्रण से जुड़ी इन घड़ियों की 
						कार्यप्रणाली को समझने–बूझने का प्रयास काफी दिनों से चल 
						रहा है। इस संबंध में बहुत सारे जीव–जंतुओं की जैविक 
						लयात्मकताओं एवं आवर्तनों का अध्ययन किया गया है परंतु कुछ 
						कोशीय जीव, कीट–पतंगे, पक्षी, चूहे, मनुष्य आदि को प्रमुख 
						रूप से परखा गया है। विशेषकर ‘एक दिवसीय लयात्मक 
						क्रिया–कलापों’ से जुड़ी ‘सरकेडियन जैव घड़ी’ के बारे में 
						विस्तृत अनुसंधान किया गया है। विभिन्न स्तनधारियों एवं 
						पक्षियों, जैसे चूहों, हैमस्टर, मनुष्यों तथा गौरैयों में 
						संभवतः ऐसी घड़ी मस्तिष्क के हाइपोथैलमस में कोशिकाओं के एक 
						विशिष्ट समूह ‘सुप्राचाएज़्मैटिक न्युक्लियस’ के रूप में 
						स्थित है।
 
 वास्तव में ‘सुप्राचाएज़्मैटिक न्युक्लियस’ नामक यह कोशिका 
						एक जटिल जैव घड़ी का हिस्सा मात्र है जिसके तार आँखों की 
						रेटिना में स्थित विशेष प्रकार के प्रकाश–ग्राही कोशिकाओं 
						से ‘रेटिनोहाइपोथैल्मिक’ स्नायु तंत्र द्वारा जुडे होते 
						हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्नायु तंत्र के द्वारा 
						प्रकाश की समयावधि से संबंधित सूचना रेटिना के 
						प्रकाशग्राही कोशिकाओं से ‘यहाँ’ तक पहुँचती है, जहाँ इसे 
						अच्छी तरह समझ–बूझ कर अंततः हाइपोथैलमस से ही जुड़ी एक अन्य 
						गंथि ‘पीनियल बॉडी’ तक भेजा जाता है। इस संप्रेषण के 
						प्रत्युत्तर में ‘मिलैटोनिन’ नामक हॉरमोन का स्राव करती 
						है, जिसकी मात्रा रात में बढ़ती है तो दिन में घटती है। 
						मनुष्यों में इस हॉरमोन का कार्य पूरी तरह नहीं समझा जा 
						सका है परंतु मौसम–आधारित प्रजनन प्रक्रिया वाले 
						स्तनधारियों की प्रजनन संबंधी लयात्मकाता में यह 
						महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 
 इस ‘सरकेडियन जैविक घड़ी’ की विशेषता यह है कि प्रकाश जैसे 
						बाह्य वातावरणीय कारकों के अभाव में भी बदस्तूर अपना कार्य 
						कर सकती है। इनके द्वारा विभिन्न क्रिय–कलापों के समय 
						निर्धारण की प्रक्रिया पर दिन–रात के परिवर्तनशील तापमान 
						का कोई प्रभाव नही पड़ता। परंतु यदि ‘सुप्राचाएज़्मैटिक 
						न्युक्लियस’ को नष्ट कर दिया जाए तो दैनिक लयात्मकता 
						बिल्कुल समाप्त हो सकती है।
 
 इसके अतिरिक्त, जैविक घड़ी ‘पीयूष ग्रंथि’ (पिट्यूटरी गंथि) 
						को भी प्रभावित करती है जिसके परिणामस्वरूप शरीर की 
						अंतःस्रवण ग्रंथि प्रणाली, प्रतिरोधक प्रणाली, हृदय तथा 
						रक्त संचार प्रणाली, उत्सर्जन प्रणाली आदि भी प्रभावित 
						होते हैं। शरीर के तापमान के समान ही इन प्रणालियों की 
						कार्य क्षमता प्रातःकाल सो कर उठने के ठीक पहले सबसे कम 
						होती है तो शाम के समय सबसे अधिक। पीयूष ग्रंथि से स्रवित 
						होने वाले ‘एड्रिनोकॉर्टिकोट्रॉपिक’ हॉरमोन पर ‘एससीएन’ की 
						क्रियाशीलता का प्रभाव साफ दीखता है। एसीटीएच अंततः 
						एड्रीनल ग्रंथि को ‘कॉटिसॉल एवं ‘एल्डोस्टीरॉन’ जैसे 
						हॉरमोन का स्राव करने के लिए प्रेरित करता है। इन हॉरमोनों 
						की सांद्रता दिन में कम होती है तो रात में आधिक।
 
 इन सबके अतिरिक्त, सरकेडियन जैविक घड़ी की विशेषता यह है कि 
						किसी नए स्थान पर जाने के कुछ ही दिनों बाद हमारे शरीर के 
						क्रिया–कलाप को वहाँ के स्थानीय समय तथा दिन–रात की नई 
						समयावधि के अनुरूप ढाल देती हैं। इस प्रकिया का सबसे अच्छा 
						उदाहरण ‘जेट हवाई यात्रा’ है। मान लीजिए कि किन्हीं दो 
						स्थानों के स्थानीय समय में तीन घंटे का अंतराल है एवं 
						हवाई यात्रा का कुल समय बारह घंटे हैं। अब यदि कोई अपनी 
						यात्रा रात्रि के दस बजे प्रारंभ करता है तो वह यात्रा 
						प्रारंभ करने के स्थानीय समयानुसार दूसरे दिन प्रातः दस 
						बजे गंतव्य स्थान पर पहुँच जाएगा, परंतु दोनो स्थानों में 
						तीन घंटे के समय अंतराल के कारण जब वह नए स्थान पर 
						पहुँचेगा तो वहाँ पर अभी सुबह के सात ही बजे होंगे। अब 
						चूँकि इसके शरीर की जैविक घड़ी यात्रा आरंभ करने वाले स्थान 
						के अनुरूप ढली होती है तो इस नए स्थान पर कुछ दिनों तक यह 
						पहले स्थान के स्थानीय समयानुसार ही कार्य करती रहती है 
						अर्थात यात्री के सोने–जगने, भूख लगने आदि का समय पहले 
						स्थान के अनुरूप ही रहेगा। नए स्थानीय समय के अनुरूप ढलने 
						में उसे कुछ समय लगेगा। तब तक उसे नाना प्रकार की शारीरिक 
						तथा व्यावहारिक परेशानियों का अनुभव होगा, जिसे हम 
						‘जेट–लैग’ के रूप में जानते हैं।
 
 जैविक घड़ी में गड़बड़ियों के अन्य दृष्टांत भी हमारी अपनी 
						कार्यकी एवं व्यवहार में परिलक्षित होते हैं। कुछ नवजात 
						शिशु अक्सर दिन में सोते रहते हैं तो रात में जग कर 
						माता–पिता की परेशानी बढ़ाते हैं परंतु जेट –लैग की तरह ये 
						भी स्थानीय समयानुरूप ढल जाते है और एक सामान्य व्यक्ति की 
						तरह दिन में जगने एवं रात में सोने लगते हैं, परंतु वृद्ध 
						व्यक्तियों एवं कैंसर के रोगियों की जैविक लयात्मकता स्थाई 
						रूप से गड़बड़ा सकती है जिसका परिणाम इनमें समय पर भूख न 
						लगने, अनिद्रा आदि लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है, 
						अंतरिक्ष यात्रियों के इस आंतरिक जैविक घड़ी पर भी अंतरिक्ष 
						यात्रा का प्रभाव हड्डियों के वजन में कमी तथा मांसपेशियों 
						के पतले होने के रूप में देखा गया है।
 
 कोशिका ही किसी भी जीव के क्रिया–कलापों तथा संरचना का 
						आधार है। बड़े से बड़े एवं जटिलतम जीव के क्रिया–कलापों को 
						उसकी कोशिका की कार्य—विधि के बारे में जान कर अच्छी तरह 
						समझा जा सकता है–ऐसा आज कल के वैज्ञानिकों का मानना है। 
						कोशिकीय स्तर पर भी सभी जैविक कार्य—कलाप पूर्व निर्धारित 
						समय–सारणी के अनुसार एक सुनिश्चित आवर्तीय लयात्मकता के 
						अनुरूप प्रतिपादित होते हैं जिनका नियमन कोशिका स्थित 
						विशिष्ट जैव–अणु करते हैं। ये जैव–अणु, कोशिकीय जैव घड़ी का 
						काम करते हैं। कोशिका की उत्पत्ति, वृद्धि, वृद्धावस्था की 
						ओर अग्रसर होते रहना, विभाजन संख्या का परिसीमन आदि 
						छोटे–बड़े सभी कार्य एक समय–बद्ध योजना के अनुसार चलते रहते 
						हैं और उन पर शायद इस जैविक घड़ी का नियंत्रण रहता है। यदि 
						हम कोशिकीय स्तर पर इस घड़ी की कार्य—प्रणाली को समझ लें तो 
						संभवतः पूरे शरीर पर नियंत्रण रखने वाली जैव घड़ी की 
						कार्य—पद्धति को आसानी से समझा जा सकता है एवं इसे अपनी 
						इच्छानुसार परिमार्जित भी किया जा सकता है।
 
 इस संदर्भ में पर्ड्यू विश्वविद्यालय में कार्यरत 
						पति–पत्नी की वैज्ञानिक जोड़ी डी जेम्स एवं डोरथी मूर 
						द्वारा किया गया अनुसंधान कार्य उल्लेखनीय है। एक सामान्य 
						कोशिका किसी भी जीवधारी की तरह अपने दैनिक क्रिया कलापों 
						में लगभग २४ घंटे की आवर्तीय लयात्मकता का पालन करती है। 
						१९६० के दशक में अनुसंधानकर्ताओं ने हाइड्रोजन के आइसोटोप 
						डियुटेरियम के योग से बने ‘भारी जल’ से पोषित कर इन 
						कोशिकाओं के क्रिया–कलापों के दैनिक आवर्तीय लयात्मकता की 
						अवधि को २४ घंटे से २७ घंटे तक बढ़ाने में सफलता पाई। भारी 
						जल कोशिका की जैव रसायनिक प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता 
						है अतः उपरोक्त प्रयोग जैव घड़ियों की कार्य—प्रणाली के मूल 
						में जैव रसायनिक प्रतिक्रियों का हाथ होने की तरफ इशारा कर 
						रहा था। परंतु इस संबंध में अन्य व्याख्याओं की ओर लोगों 
						का अधिक ध्यान था, फलतः इस प्रयोग को लगभग भुला दिया गया।
 
 अन्य अनुसंधान कार्यों में व्यस्तता के बावजूद भी पिछले 
						चालीस वर्षों से जैव घड़ी की गुत्थी को सलझाने की बात इनके 
						मन में सदैव बनी रही तथा इस दिशा में ये प्रयास भी करते 
						रहे। हाल ही में इन लोगों ने एक ऐसे बेलनाकार प्रोटीन–अणु 
						का पता लगाया है जो कोशिका वृद्धि की आवर्ती लयात्मकता को 
						नियंत्रित करता है। एक प्रयोग के दौरान इन लोगों ने पाया 
						कि कोशिकाओं का आकार पहले १२ मिनट तक तो बढ़ता है फिर अगले 
						१२ मिनट तक ये कोशिकाएँ आराम करती हैं। १२ मिनट के आराम के 
						बाद पुनः इनका आकार बढ़ने लगता है। इस प्रकार इनमें १२ मिनट 
						की वृद्धि फिर १२ मिनट के आराम का चक्र आवर्ती लयात्मक गति 
						से चलता रहता है। इस चक्र की लयात्मकता को बनाए रखने तथा 
						नियंत्रित करने में उपरोक्त प्रोटीन की मुख्य भूमिका होती 
						है।
 
 विभिन्न प्रयोगों द्वारा इन लोगों ने पाया कि यह प्रोटीन 
						दो–मुँहे चरित्र वाला है। एक रूप में यह वृद्धि–उत्प्रेरक 
						का कार्य करता है। फिर बारह मिनट बाद इसके रूप में थोड़ा 
						परिवर्तन होता है। इस नए रूप में यह अगले १२ मिनट तक 
						कोशिका के अन्य कार्यों में संलग्न रहता है अर्थात् वृद्धि 
						की प्रकिया रुकी रहती है। ठीक १२ मिनट बाद यह अपने पुराने 
						वाले रूप में लौटता है और वृद्धि की प्रक्रिया पुनः आरंभ 
						हो जाती है। कुछ अन्य प्रोटीन भी दो या दो से अधिक कार्यों 
						का नियंत्रण करने की क्षमता रखते हैं परंतु इस प्रोटीन की 
						विशेषता उपरोक्त गुणों के साथ–साथ सटीक समय–अंतराल पर 
						दोनों प्रक्रियाओं के प्रबंधन एवं नियंत्रण की क्षमता है।
 इस प्रोटीन के निर्माण से संबंधित जीन का भी पता लगा लिया 
						गया है जिसका उपयोग कर ‘क्लोनिंग विधि’ द्वारा इस प्रोटीन 
						के विभिन्न परिवर्तित रूपों के निर्माण में सफलता मिली। जब 
						इन परिवर्तित प्रोटीन्स के अणुओं को कोशिकाओं में मूल 
						अणुओं के के स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया तो इन 
						कोशिकाओं में २४ मिनट के बजाय २२ से ४२ मिनट का नया वृद्धि 
						आवर्तन चक्र देखने को मिला। ‘भारी जल’ से पोषित कोशिकाओं 
						के क्रिया–कालापों की आवर्तन लयात्मकता में २४ घंटे के 
						स्थान पर २७ घंटे की काल–अवधि का दीखना संभवतः इन 
						प्रोटीन्स की संरचना में भारी जल के कारण आया परिवर्तन है।
 
 इस खोज के बाद इन लोगों का मानना है कि अब न केवल दैनिक 
						जैव घड़ी की कार्य–प्रणाली को अच्छी तरह समझा जा सकता है 
						बल्कि इस प्रोटीन में परिवर्तन द्वारा जैविक घड़ी को 
						मनोवान्छित रूप से नियंत्रित कर भविष्य में अनिद्रा, समय 
						पर भूख न लगना, जेट लैग से संबंधित अनियमितताओं आदि पर भी 
						विजय पायी जा सकती है।
 
 चलते –चलाते इस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने में कोई 
						हर्ज नहीं है कि हम दृढ़ इच्छा शक्ति एवं मनोबल द्वारा अपनी 
						जैविक घड़ी ही नहीं अपितु शरीर के सारे क्रिया–कलापों पर 
						नियंत्रण कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति में तपस्या, ध्यान, 
						योग आदि द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के ढेरों उदाहरण 
						आदिकाल से ही मिलते है। कालीकट के निवासी छाछठ वर्षीय श्री 
						हीरा राम मानेक इसके ज्वलंत उदाहरण है। केवल उबला पानी पी 
						कर तथा सूर्य नमस्कार की योग प्रक्रिया द्वारा इन्होंने 
						४११ दिन पूर्ण रूप से स्वस्थ्य रह कर बिताए। ऐसी घटनाएँ 
						विस्तृत अनुसंधान का विषय हैं।
 |