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साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है गुरमीत कडियावली की पंजाबी कहानी का रूपांतर- संसारी, रूपांतरकार हैं सुरजीत सिंह वरवाल


‘संसारी’ ज्योति ज्योत समा गया था। दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी में सुबह लोगो ने उसके शरीर को सड़क के किनारे देखा था। पल भर में ही यह खबर जंगल की आग की तरह कस्बे में और कस्बे से सटे हुए गावों में फैल गई थी।

अभी कल ही तो वह बड़े आराम से पेट पातशाह को रिश्वत देने के लिए सड़क के किनारे बैठ कर माँग रहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि वह पेशावर भिखारी था। पेशावर भिखारी तो आजकल सरकारी दफ्तरों, विधानसभाओं, और संसद में विराजमान हो गये हैं। वह तो जरुरत के अनुसार कभी कभी माँगता था। वह भी अन्य व्यापारियों, दुकानदारों और जुआरियों की तरह शहर का एक अंग था। रात में कहाँ चला जाता है, किसी ने ख्याल नहीं किया था। कई कई बार तो कई कई दिन गायब रहता था।

उन दिनो में सबसे ज़्यादा तकलीफ सट्टे वालों को होती थी। उनकी नजरें ‘संसारी’ को तलाशती रहती थीं, उनके चेहरे पर परेशानी की झलक दिखाई देने लगती, क्योंकि सट्टे का नंबर वे संसारी को पूछकर ही लगाते थे। जो नम्बर ‘संसारी’ कहता था वह लगा देते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि संसारी इनको नम्बर बोलकर अलाट करता था। उसको बोलते हुए आज तक शहर के किसी आदमी ने नहीं सुना। केवल ऊ...ऊ...ब...ब... करता था। जब वह बोलता नहीं था तो फिर सुनने वालों को तकलीफ होने लगती थी। सट्टे वाले संसारी को क्या कहते हैं, संसारी को भी पता नहीं चलता, वह तो केवल उनकी भावनाओं को ही समझ लेता था। जवाब में ऊ...आ... करते हुए अपनी उँगलियों को ऊपर नीचे करता। इन उँगलियों की ही करामात थी कि नंबर लगाने वाले उनकी उँगलियों के इशारे को ही समझ लेते थे कि कौन-सा नंबर बनता है। संयोग से नम्बर आ जाता तो वे खुश होकर ‘संसारी’ को भी उसका हिस्सा दे जाते। जिनका नम्बर नहीं आता वो अपनी किस्मत को कोसते और यह कहते कि उनको नम्बर समझने में गलती हो गई। वह अपनी इस गलती पर पछताते हुए सब्र करता।

‘संसारी’ से आशीर्वाद प्राप्त करने वालों में शहर और गाँव के कुछ लड़के भी शामिल थे। उनको जब भी किसी मार पर जाना होता तो वह उस दिन के बारे में संसारी से भविष्यवाणी करवाने आते। ‘संसारी’ उनसे मिली माया से कई दिन तक अपना गुजारा चला लेता, और वह कितने ही दिन सड़क की पटरी पर दिखाई नहीं देता था। भिखारियों के समान पैसा जोड़ने, या देश विदेश की बैंको में जमा करवाना उसकी आदत नहीं थी। संसारी को अगर उन लड़कों के मकसद का पता होता तो वह कभी भी हाथ के इशारों से भविष्यवाणी नहीं करता। हाथ के इशारों को वे लड़के फकीर बाबा से मिला आशीर्वाद समझते। अगर ‘संसारी’ को यह इलम होता कि जिस दिन लड़कों की टोली उसके पास आती है उस दिन अबला लड़की या नारी की किस्मत ‘सेठ गरीब दास’ के शहर के बाहर लगे शेलर में लिखी जाती है तो वह कभी भी उनके पैसे स्वीकार नहीं करता। ‘संसारी’ तो उनको अपना हमदर्द, श्रद्धालू और दानी समझता था बस।

संसारी के बारे में इन सट्टे वालों और लड़कों की बजाये एक फटीचर ढाबे वाले को ही पता था कि संसारी शाम को कहाँ जाता है, क्योंकि पेट भरने के लिए वह शाम को उसके पास खाना खाने आता था। वैसे तो ‘संसारी’ के लिए लंगर शहर के गुरूद्वारों और मन्दिरों में काफी था। किसी न किसी धर्म स्थान पर कोई न कोई समागम चलता ही रहता था, लेकिन कभी कभी ‘संसारी’ का मन ‘दसों उँगलियों की कीरत’ कमाई से मनचाही रोटी खाने को कर आता था। कभी किसी ने उसकी महता नहीं समझी। कितने स्वार्थी, बेगर्ज, बेतरस और भोले हैं ये लोग सिवाए उन ‘चंद लोगों के’ ‘संसारी’ सोचता था । ये लोग तो जैसे उसके लिए कुदरत ने फरिश्ते ही बना कर भेज दिए हैं। सभी लोग उनके जैसे ही क्यों नहीं हो जाते? धन्य है ईश्वर, जिसने ऐसे धर्मी पुरष बनाये, पता नहीं उसके जैसे गरीब आदमियों का क्या बनता।

सचमुच ‘संसारी’ कितनी दूर की सोचता था। अगर ऐसे धर्मी पुरुष ना पैदा होते तो गरीब लड़कियों की जवानी व्यर्थ ही चली जाती। गरीब दास के शैलर में लायी गई हर नई ‘चीज़’ को ऐसे ही कहा जाता था, यह मत समझना कि हम आपके साथ जबरदस्ती करते हैं। हमें तो आपकी जवानी पर तरस आता है। इस जवानी को जवानी की जरूरत है और हमसे जवान इस शहर में कोई दिखाई नहीं देता, बहन।

कितना सच था ‘संसारी’ की सोच में। अगर अमीर लोग ना होते तो गरीबों को काम कौन देगा, अगर गरीबों को काम न मिले तो वे किधर जायें? अगर ये लोग राजकाज न चलाएँ तो फिर क्या हो? लोग तो ऐसे पागल हैं, ऐसे ही दूसरे चौथे दिन शोर मचाने लग जाते हैं, पर ये लोग करें भी तो क्या? खाली बैठे हैं, काम तो है नहीं उनके पास। अगर राज चलाना पड़े या नेतागिरी करनी पड़े या फिर लड़कों की तरह गरीब लड़कियों के विवाह करने पड़ें तो फिर पता चले। ऐसे ही टी-टी करते हैं ये लोग ‘संसारी’ हमेशा यही सोचता रहता।

संसारी इन टोली वालों को ही सबसे बड़ा धर्मी समझता था और यदि वह ऐसा समझता था तो इसमें गलत क्या था। देखो इस समय शहर में सात धार्मिक स्थान हैं, बनाए गए दो देवियों के मंदिर, जहाँ दुखी लोगो के कष्टों का निवारण किया जाता है, लोगों की प्रेत आत्माएँ भगाई जाती हैं, इनको भी शामिल कर लिया जाये तो पुरे नौ धार्मिक स्थान बन जायेगें। यह नौजवान और शहर के नीली पीली, सफेद-हरी, लाल-गुलाबी, पार्टियों के लीडर ही तो हैं जो धार्मिक स्थानों को चला रहे हैं। कोई किसी धर्म स्थान का मनेजर है तो कोई प्रधान। ऐसा कोई भी धार्मिक स्थान नहीं है जिसका प्रधान या प्रबन्धक कमेटी यूथ न हो। शहर में जो राम मन्दिर हैं, अक्सर रामलीला चलती रहती है, लंगर चलता रहता है २४ घन्टे टन-टन की आवाज आती रहती है, मंत्र तंत्र और पूजा पाठ करने वालों का तो हिसाब किताब ही नहीं। मेले या किसी विशेष त्यौहार में तो इतने श्रद्धालू आते हैं जिनका कोई हिसाब किताब ही नहीं रहता। इस मन्दिर का काम काज एक दिन भी न चले अगर सेठ मुरारी लाल न हो। कितनी भाग दौड़ करता है बेचारा मन्दिर की खातिर। संगत जो है, किसी का कर्ज नहीं रखती हर बार वोट मुरारी लाल को डाल देती है। ऐसे ही तो नहीं वह हर बार म्योशिपल कमिश्नर बन जाता। सब भगवान और संगत की सेवा का फल है। भाग्य वाला जीव है, नहीं तो इतनी भजन बन्दगी, कोई और कर लेगा। मुरारी लाल ऐसे ही ‘संसारी’ की श्रृद्धा का पात्र नहीं है। क्या बोला? लोग झूठ बोलते हैं, लोगों की तो आदत है झूठ बोलने की। हर अच्छे आदमी में कोई न कोई कमी ढूँढते रहना। लाल गिरधारी मल्ल की लड़की को मन्दिर से उठवाने में मुरारी लाल का हाथ था। यहाँ दोपहर को पूजा करने आयी थी और जबरदस्ती कार में डालकर ले जाने वालों में मुरारी भी था। लो बताओ? लोगों का क्या है, लोग तो भगवान पर भी कीचड़ फेंक देते हैं। ये तो फिर मुरारी हैं। दूसरी तरफ देखो, लोग क्या-क्या बोलते रहे मुरारी के बारे में। ये मुरारी ही था जो गिरधारी मल्ल की लड़की को पन्द्रह दिन बाद वापिस ले आया। साथ ही साथ मुरारी तो मुरारी ही है, उसका इन ऊटपटाँग बातोँ से क्या वास्ता है।

जुआली वाला गुरुद्वारा, कुछ वर्ष पहले जिसके दो कमरे थे। अब देखो वहाँ पर जाकर चारों तरफ बहारें ही बहारें नजर आती हैं। जब से सिद्धू साहब कमेटी के प्रधान बने हैं, आए वर्ष कुछ न कुछ बनता रहता है। संगत के बैठने के लिए बड़ा हाल, लंगर खाने लिए बड़ा लंगर हाल, संगत के रहने के लिए सराय, फर्शो पर संगमरमर लगा हुआ, सब सिद्धू साहब की मेहरबानी है। ऊँची पहुँच वाला आदमी है। कई बार विदेश जा चुका है बड़े -बड़े मंत्रियों के साथ सीधी बात है। क्या कहना सिद्धू साहब की लाखों की कोठी? वह तो मैं पहले कह चुका हूँ, लोगों को झूठ बोलने की आदत होती है। यहाँ सिद्धू साहब की दो एकड़ में बनी लाखों रुपये की लागत से यह कोठी ‘भगवान’ की देन है। भगवान का नाम लेकर लाखों रुपये ‘चंदा इकट्ठा करके’ देश में लाया और भगवान के नाम से अपनी कोठी पर लगा दिया। लोगों की लेाग ही जानें। संसारी को इतना पता था कि सिद्धू साहब जैसा धार्मिक पुरुष शहर में हैं ही नहीं।

शहर में वाल्मीकि जी का मन्दिर भी लीडर मण्डली की मेहरबानी है। इसकी कमेटी का प्रधान नाजर भी आजकल शहर के नामी इन्सानों में गिना जाता है। नामी आदमियों में नाम क्यों न हो, पूरा मोहल्ला उसकी जेब में है। नाजर कहे तो इस मोहल्ले के लोग, सारे शहर की नाक में दम कर दें। किसी बात पर शहर के प्रबन्धकों के साथ नराजगी हुई नहीं कि शहर में नरक का नजारा पेश हो जाता है। ये नाजर ही था जो शहर में किसी भी पार्टी के लीडर द्वारा की जाने वाली रैली, जलूस, और धरने के लिए भीड़ का प्रबन्ध करता था। इसलिए नाजर को गुटवादी नीति पर चलने वाला माना जाता था। पार्टी कोई भी हो, नाजर अपने आदमी भेजकर उस पार्टी की वाह-वाही में योगदान देने का काम काफी मेहनत के साथ करता था। ‘संसारी’ की आखों देखी बात है कि कुछ वर्ष पहले यह नाजर नगरपालिका में झाड़ू निकालता था। नगरपालिका में आते जाते लीडर से इसको लीडरी का ऐसा शौक जागा कि अब तो लीडरी के मानयोग लीडरों में सम्मान होने लगा। अब तो लीडरी के क्षेत्र में नाजर महाराज की तूती बोलती थी। अच्छे-अच्छे ओफिसर और अधिकारी नाजर से डरते थे। अभी पिछले वर्ष ही नाजर के मोहल्ले में मंदिर के लिए नगरपालिका के प्रधान ने पचीस हजार ईटें, पचास थैली सीमेंट, और मोहल्ले में स्ट्रीट लाईटें नहीं लगवाईं थीं, नाली पक्की करने के काम में से नाजर का जो हिस्सा बनता था वो भी उसने उसकी जेब में नहीं डाला।

नाजर की प्रधान के साथ तू तू मैं मैं हो गयी। नाजर ने इस बहाने की आड़ में कि प्रधान ने उसे जाति सूचक शब्द कहे हैं, शहर के सभी सफाई कर्मचारियों की हड़ताल करवा दी थी। कर्मचरियों ने नालियों की सारी गन्दगी शहर के बाजारों में और प्रधान के घर के आगे ढेर कर दी। इन कर्मचारियों ने शहर में महामारी फैलाने में भरपूर योगदान दिया था। शहर की विधायक बीबी सरला कहीं बाहर गयी हुई थी। जब वह वापस आई, तब उसको हड़ताल के बारे में पता चला। उसने फोन करके तुरन्त कमेटी के प्रधान को अपने ‘गरीबखाने’ में बुला लिया था।
‘‘तुम प्रधान की कुर्सी पर बैठने के लायक नहीं हो।"
विधायक बीबी सरला के तेवर चढ़े देखकर, प्रधान ने चुप रहना ही ठीक समझा था।

“चुनाव सिर पर है, और हम इन लोगों को गुस्सा करने का खतरा मोल नहीं ले सकते। आपको पता है कि इनको पटाने के लिए ओप्जीशन पार्टी वाले इनको हाथों पर उठाये घुमते हैं”? बीबी की अवाज में धीरे-धीरे सरलता आने लगी थी।
‘‘आज रात तक यह मामला निपट जाना चाहिये।” बीबी जी का फरमान लेकर प्रधान वहाँ से चले गये थे।
उस रात पच्चीस हजार रूपये नाजर के पहुँच गए थे।
“प्रधान साहब आपकी सारी माँगें मानने के लिए तैयार हो गए हैं। जल्दी ही सारी मागें पूरी कर दी जाएँगी।” नाजर के इस हुक्म के अनुसार हड़ताल तोड़ दी गयी थी ।
मोहल्ले के अन्दर स्ट्रीट लाईटें चाहे नहीं लगीं परंतु नाजर के कमरे में संगमरमर जरूर लग गया था। अगर नाजर आगे लगकर सघर्ष न करे, तो क्या ये शहर वाले उसको कुछ कह रहे हैं?
‘संसारी’ नाजर को एक योद्धा व्यक्ति समझता था । मोहल्ले के गरीब लोगों के लिए लड़ मरने वाला। संसारी कुछ गलत तो नहीं समझता था?..

देवी माता के मन्दिर की सभा के नौजवान सेठ ब्रहम आनन्द जी के शहजादे ‘सती स्वरूप’ का भी शहर के लीडरों में अपना स्थान था। हर मंगलवार मन्दिर में जगराता होता, यह ‘सती स्वरूप’ की हिम्मत के कारन ही होता था नहीं तो पहले क्यों नहीं हुआ? वो तो सती स्वरूप जी थे, जो प्रत्येक वर्ष फ्री दो गाड़ियाँ, देवी माता के गरीब भक्तों को लेकर दर्शन करवाने पहाड़ों पर भेजते थे। सती स्वरूप ही थे जो लोगों की बहन बेटियों को रात की महफिलों में उठने बैठने का अवसर प्रदान करते थे।
इतने पुण्य और सबाब का काम करने वाला भला व्यक्ति शहर के मानयोग लीडरों में कैसे विख्यात न हो? अगर संसारी ‘सती स्वरूप’ को धर्मात्मा और भला पुरुष समझता था, तो कुछ गलत तो नहीं समझता था?

बाबा धर्मदास की शहर और आसपास के गावों में अच्छी खासी मान्यता थी। कभी कोई अनहोनी बात नहीं हुई। यह बाबा जी की भक्ति और प्रताप का ही कर्म था। बाबा जी जैसे जती-मती, महापुरुष, धर्मी पुरुष किसी और को बन जाना है? इतना टेढ़ा योगमत का रास्ता जिसकी पालना बाबा जी ही कर सकते थे। वह सवा-सवा महीने अन्न को मुँह नहीं लगाते थे, केवल दूध पीकर गुजारा करते थे। तोबा-तोबा, इतना बडा सहज संतोष! ऐसे ही तो बाबा जी ने ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ बस नहीं की हुई थीं। नौजवान लड़के भी बाबा जी के चरणों में लगे हुए थे, जीवन सुधारने के लिए। बाबाजी के डेरे में ही रहते थे। लीव लगे की बात है, क्या घर का मोह त्याग होता है? बाबाजी जो भी मुँह से वचन करते वो पूरा हो जाता। बाबा जी के डेरे से पता नहीं कितनी ही औरतों ने दूध और पुत्र की बख्शीश प्राप्त की थी। कई बार तो कुंवारी लड़कियों को भी ये बख्शीश दी थी। बात तो बाबा जी के खुश होने की है, इतने यति सति और पराक्रमी महापुरुष जिसकी दुनिया जय जयकार करती थी ‘संसारी’ ऐसे महापुरुष को ‘भगवान’ समझता था तो क्या गलत समझता था?

अब जब ‘संसारी’ ज्योति जोत समा गया था तो सभी धर्म रक्षक, मान सम्मान शहरवासी और रंग बिरंगी पार्टियों के लीडरों का यह फर्ज बन गया था कि संसारी के पार्थिव शरीर को सँभालें। पुलिस संसारी को लवारिस समझकर उसके शरीर को कब्जे में लेकर बैठी थी। सरकार के भाड़े के टटूओं को क्या पता था कि संसारी लवारिस नहीं हैं, समस्त शहर ही उसके वरिसों का था।
‘संसारी’ ही शहर में एक व्यक्ति था, जो सब के लिए एक था। सर्व साँझी वार्ता का एक सच्चा उदाहरण संसारी ही था। संसारी ही था जो मोह माया से निरपेक्ष सर्वत्र का भला माँगने वाला था। हर समय शहर और शहरवासियों के लोगों की भलाई के लिए भगवान से दुआ माँगता था। संसारी जैसे फकीरों की दुआ ही होती है, जिसके सहारे संसार चल रहा है। फिर ऐसे फकीर की संसार से विदाई हो जाने पर उनके लिए समागम करना और उसको याद करना, किसका फर्ज नहीं बनता?

‘संसारी’ ने इस संसार से विदाई क्या ली, शहर के लिए वह एक पूजनीय व्यक्ति बन गया। उसके अन्तिम दर्शन करने के लिए शहर के निवासियों में एक होड़ सी लग गयी थी। सभी मोहल्लों के चौधरियों की अपने-अपने मोहल्लों में गुप्त मीटिगें शुरू हो गयी थीं। मोहल्ले और शहर के इन चौधरियों के सिर पर ‘संसारी’ के अन्तिम क्रियाकर्म की भारी जिम्मेदारी आ गयी थी। शहर के सभी धर्म, मजहबों के लीडरों की तरफ से ‘संसारी’ की ‘पवित्र देह’ को हासिल करने के लिए अपने अपने दाव-पेंच करने लगे थे। संसारी के मृतक शरीर के पास मैले कुचैले फटे पुराने कपड़ों से ठूस- ठूस कर भरी हुई गठरी में से भगवान राम की फोटो निकली थी। गठरी में से भगवान राम की नई फोटो कैसे और कहाँ से आ गयी थी?... इसके बारे में लोग चाहे कुछ भी कहें पर मुरारी और उसके साथियो का ‘संसारी’ के मृतक शरीर पर हक प्रकट हो गया था। मुरारी और उसके साथी ‘संसारी’ को ‘धर्म का फकीर’ होने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या दे सकते थे? मुरारी ने अपने धर्म और मोहल्ले के लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए ‘संसारी’ का मृतक शरीर हासिल करने के लिए सभी तरफ से घेरा बंदी कर ली। यही तो एक मौका था जिससे मुरारी मोहल्ले के लोगों को अपने प्रति आसक्त कर सकता था। संसारी के मृतक शरीर को हासिल करने के लिए मोहल्ले के लोगों का एकजुट होना बहुत जरूरी था, क्योंकि ये सभी धर्मों की रक्षा की बात थी। एक राम भक्त, हिन्दू पुरुष को यदि और किसी धर्म के रीति रिवाज के अनुसार दफना दिया जाये तो घोर अनर्थ हो जायेगा । मुरारी और उसके साथियों के हेाते हुए उसके मोहल्ले में ऐसा घोर अनर्थ हो जाए यह कैसे हो सकता था? साथ में मुरारी के पास यही तो एक मौका था जो वार्ड के विरोधी को धर्म विरोधी और लोग विरोधी होने का फतवा लगवा सकता था। इसलिए मुरारी और उसके साथियों ने संघर्ष करने का ऐलान कर दिया था।

भाई संसार सिंह के मृतक शरीर को सिक्ख धर्म की रीति रिवाजों के अनुसार ही अन्तिम क्रिया क्रम किया जाना चाहिये यह पवित्र कार्य सिद्धू साहब के नेतृत्व के बिना कैसे संभव हो सकता था। ‘संसारी’ के गले में एक लौकेट और गठरी में से धर्म से सम्बन्धित एक पुस्तक मिली थी जो ‘संसारी’ के सिक्ख होने का सबूत पेश करती थी। सिक्ख धर्म से सम्बंधित हूए बिना ‘संसारी’ अपने गले में गुरु महाराज की तस्वीर वाला लोकेट कैसे डाल सकता था? अत: कैसे हो सकता था कि एक सिक्ख धार्मिक पुरुष की देह को दूसरे धर्म वाले लोग इधर उधर ले जाएँ, उसका निरादर करने। गुरू का सिक्ख अपने जीते जी ऐसा घोर अनर्थ कैसे देख सकता था। ये हिंदुओं की सरकार और दूसरे धर्मों के लोग तो यही चाहते हैं कि सिक्ख धर्म के महापुरुष की देह ऐसे ही सड़कों पर लावारिसों की तरह पड़ी रहे और निरादर होता रहे, लेकिन सिद्धू साहब अपने जीते जी ये कैसे बर्दाश्त कर सकता था। वह तो अपने अंग अंग कटवा सकता था। उसने तुरन्त मोहल्ले के सरदारों को एकत्र कर लिया और इस कार्य को सम्पूर्ण करने के लिए ‘जकरा’ भी लगा दिया था। तरह तरह की मीटिंग होने लगी। मीटिंग के अन्दर भाई संसार को एक सचे साफ सुथरे होने के बारे में प्रकाश डाला गया । सिक्ख धर्म में उसकी आस्था के बारे में विचार विमर्श किया गया । सिद्धू साहब ने जयकारे लगाकर ये ऐलान कर दिया कि गुरूद्वारे के साथ लगती हुई जगह पर पुस्तकालय खोला जायेगा । यह जगह नगरपालिका से हासिल करने के लिए उच्च अधिकारियो से बात करने और मन्त्रियो से मिलने का बोझ सिद्धू साहब ने अपने नाजुक कन्धों पर ले लिया । अपने धर्म के लोगो को इस मुश्किल घड़ी में इक्टठे होने और संघर्ष करने का ऐलान भी सिद्धू साहब ने कर दिया था । धर्म पर आये हुए इतने बड़े धर्म संकट के खिलाफ मोर्चा लगाने की नौबत भी आ सकती थी।

शहर के उच्च जाति धर्म वाले लोग ऐसे ही शोर मचा रहे थे। ‘संसारी’ हर दूसरे चौथे दिन वाल्मीकि के मन्दिर में सेवा करने आता था, किस को पता नहीं था? यदि वह वाल्मिकी का भक्त नहीं था तो वाल्मीकि के मन्दिर में आकर सेवा करने का क्या मतलब था। यदि संसारी इस समाज से सम्बन्धित नहीं था तो दूसरे धर्म के लोगों ने उसे दर- दर भटकने क्यों दिया? अब उनको अचानक ‘संसारी’ की याद क्यों और कैसे आ गई? अपने ऋषियों, महापुरुषों और फकीरों को नाजर और उसके साथी दूसरे धर्मों को कैसे सौंप सकते थे।

अब तो कौम जाग चुकी है। जब सोई हुई थी, तब सो रही थी। अब जाग्रति आ गयी है फिर भला फकीर दरवेश कैसे दुसरे के हाथों से बेअदब होंगे? नाजर ये कैसे होने देता? वह संसारी के मृतक शरीर को किसी दूसरे के हाथ नहीं लगने देगा। नाजर का कहना था कि उनके बुजुर्गों को अब तक इस उच्च जाति और धर्म के लोगों ने अपने रीति रिवाजों में कभी शामिल नहीं किया, अब दरवेश को अपने रीति रिवाज के अनुसार क्रिया करके यश प्राप्त करना चहाते हैं। कम से कम नाजर के होते तो ये नहीं हो सकता था। नाजर के नेतृत्व में शहर की गंदगी बजार में आने लगी। नाजर जी महाराज ने संसारी का अन्तिम क्रिया कर्म करने के लिए अपने घर के साथ पड़ा हुआ नगरपालिका का ढाई कनाल का प्लाट भी निर्धारित कर लिया था। क्रिया कर्म के बाद संसारी की यादगिरी के बहाने खाली पड़े प्लाट को हड़पने का इससे अच्छा अवसर नाजर के लिए क्या हो सकता था? नाजर ने शहर विधायक मैडम को भी यह स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह खुद हस्तक्षेप करके ‘संसारी’ के मृतक शरीर को उन्हें दिलवाने का कष्ट करें, नहीं तो वह इस शरीर को हासिल करने के लिए किसी भी तरह के उचित एवं अनुचित साधन को अपनायेगा। उसकी जाति के नौजवान लड़कों ने कोई ऐसा वैसा काम कर दिया तो उसके लिए नाजर जिम्मेवार नहीं होगा। नाजर ने नगरपालिका के प्लाट को संसारी की यादगिरि बनाने के लिए विधायिका को स्पष्ट बताते हुए कमेटी के प्रधान तक भी सूचना पहुँचा दी थी।

देवी माता के भगत सेठ ब्रह्मानन्द के शहजादे, ‘सती स्परूप’ और उसके शिष्यों की मण्डली के पास ‘संसारी’ के देवी माता के भक्त होने के सबूत कम नहीं थे। फिर भला ये मण्डली संसारी के मृतक शरीर पर अपना हक क्यों नहीं जताती? ‘संसारी’ जैसे देवी माता के परम भक्त का सड़क के किनारे इस तरह पड़े रहना परम आनन्द जी के शहजादे ‘सती स्परूप’ के लिए ही नहीं अपितु देवी माता के सम्पूर्ण भक्तों के लिए यह सबसे बड़े शर्म की बात थी। सती स्वरूप और उसकी मण्डली के पास यही एक मौका था जिसमें वह संसारी के अन्तिम क्रिया कर्म के लिए चन्दा इकट्ठा कर सकते थे। मन्दिर के पीछे औरतों के पूजा पाठ करने के लिए एक विशिष्ट कमरा बनाने का काम कितने समय से अधुरा पडा था जो अब पूरा हो सकता था। कितना कष्ट सहना पड़ता था इन औरतों को ‘वेले कवेले’ पूजा पाठ करने के लिए यह सब ‘संसारी’ की याद में ही पूरा हो सकता था।

बाबा धर्मदास के डेरे में भी संसारी के अन्तिम क्रिया कर्म का समाचार पहुँच चुका था। बाबा धर्मदास ने अपने आस पास के गाँवों में अपने प्रचारकों से यह समाचार फैला दिया कि डेरे से सम्बन्धित एक महापुरुष अपने पार्थिव शरीर को त्याग कर स्वर्ग जा चुके हैं। गाँव के अन्दर जितने भी डेरे के श्रदालू थे या जितनी भी औरतों ने बाबा से दूध और पुत्र की दात प्राप्त की थी उनकी तरफ से ‘संसारी’ की याद में लंगर लगाने के लिए काफी मात्रा में रसद सामग्री लाने लगी थीं। डेरे के प्रबन्धक और छोटी उम्र में परमात्मा के साथ जुड़े पदार्थवादी लोग मोह माया का त्याग कर चुके थे। बाबा धर्मदास के शिष्यों के लिए ‘संसारी’ के क्रिया कर्म के यही दस दिन अच्छे बीतने वाले थे। डेरे के साथ जुड़ी हुई गाँव और कस्बे की औरतों के लिए लगातार दस बारह दिन बाबा धर्मदास की कृपा से डेरे में सेवा करने आने के लिए मौका और सबब बना था। बाबा धर्मदास के शिष्य ये मौका हाथ से कैसे जाने देते? उन्हें ‘संसारी’ की मृतक देह पर झूठा दावा तो करना नहीं था, ‘संसारी’ के गर्दन में डाली हुई माला से बढ़कर और क्या सबूत हो सकता था कि वह परम भक्त नहीं हैं।

‘संसारी’ की मृत्यू के २४ घण्टे बाद भी शहर के अन्दर अनिश्चितता का माहौल बना हुआ था। धर्म से सम्बन्धित ऐसा मुद्दा पहले कभी नहीं उठा था। इस तरह के धर्म संकट का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा था। हर धर्म के, और धार्मिक स्थान से जुड़े लोगों यह मानना था कि ‘संसारी’ की पवित्र देह उन्हें प्राप्त हो जाएगी। अब मोहल्ले और धर्म स्थानों पर ‘संसारी’ के मृत शरीर को प्राप्त करने के लिए गुप्त सभाएँ होने लगी थीं। अब आम शहर वासी के चेहरे पर क्या होगा? का प्रश्न लटक गया था। दुकान, मकान, गली, मोहल्ले, जहाँ भी चार आदमी इकठ्ठे होते यही बात चलती ‘संसारी’ की मृत देह किसे प्राप्त होगी? हर चौधरी की तरफ से यही आश्वासन दिया जा रहा था कि देह उनको ही मिलेगी चाहे उसके लिए उन्हें कितनी ही कुर्बानियाँ क्यों न देनी पड़ें। शहर के अन्दर तनाव का वातावरण बन गया था। शहर के अन्दर पैदा हुए इस तनाव को ध्यान में रखते हुए पुलिस ने भी अपनी गश्त बढ़ा दी थी। शहर के तनाव वाले नाजुक इलाकों में सख्त ड्यूटी दी जाने लगी। हर मोड़ और चौक पर नाके लगा दिए गये, बाहरी ताकतों का इस मौके पर फ़ायदा उठाने की सम्भावनाएँ भी थीं। देखते ही देखते सारा शहर छावनी में तबदील हो गया था।

शहर की इस गम्भीर हाल को भाँपते हुए कुछ शांति पसन्द लोग भी आगे आ गए थे। उनके होते हुए शहर में शान्ति कैसे भंग हो सकती थी? लोगों के अन्दर तनाव को कम करने के लिए उनका आना जरूरी हो गया था। स्थिति को सुधारने के लिए अलग- अलग मोहल्ले से सभी धर्मों के बुद्धिमान लोग इस स्थिति से निपटने के लिए आगे आए थे। सेठ अमरचन्द विद्रोही इस शान्ति ग्रुप का नेता था।

विद्रोही शहर में एकरसता बनाये रखने के लिए काफी लम्बे समय से प्रयास कर रहा था। शहर में अपना प्रभाव डालकर चन्दा इकट्ठा करना और सद्भावना समागम कराने का बेड़ा उसने अपने सिर पर उठा रखा था। इस कार्य से सम्बन्धित उसने ‘सर्व धर्म सदभावना’ कमेटी भी बनाई हुई थी, जिसके प्रधान, कैशेअर, सचिव, के सभी कठिन पदों का संचालन खुद ही कर रहा था। मानव अधिकार रक्षक समिति का प्रधान गुरदेव सिंह भी शान्ति संघ ग्रुप का प्रमूख अग्रणी व्यक्ति था। अपनी बहू को मर्जी के अनुसार आत्महत्या करने का मौका देना, थाने में घूस देकर मुजरिमों को छुड़वाना जैसे मानव अधिकारों से सम्बन्धित मामलों में हेर फेर करने में उसकी पुरे इलाके में वाह वाही थी।

शान्ति पसन्द शहरियों के संगठन में लाला कूड़चन्द, सरदार मुखबर सिंह, सेठ गरीब दास, सहित कई और लोग भी थे जो अपने क्षेत्र की मानी हुई हस्तियाँ थीं। शहर के प्रभावशाली आदमियों के इस ग्रुप ने पुलिस के उच्च अधिकारियों और सभी धर्म के नेताओं और विधायिका बीबी के साथ भी अगल- अलग मीटिंग करके सर्वप्रमाणित हल ढूँढने की पूरी ताकत लगा दी थी।

आखिर इन शान्ति और इन्साफ पसन्द शहरियों के सहयोग और प्रयासों से सभी धर्म के रक्षकों, चौधरियों और नेताओं की एक मीटिंग विधायक बीबी जी के ‘गरीबखाने’ पर बुला ली गयी। विदेशी कप में चाय पीते और बहुमूल्य विदेशी प्लेटों में तरह- तरह की मिठाइयाँ खाते और ठहाके मारते हुए सभी धर्मों के जातिवादी नेताओं ने सर्वसम्मति से इस संकट का हल ढूँढ निकाला था।
मीटिंग में सर्व सम्मति के साथ यह फैसला किया गया कि ‘संसारी’ का अन्तिम संस्कार श्री नाजर जी के घर के पास खाली पड़े प्लाट में सिक्ख धर्म के रीति रिवाजों के अनुसार ही किया जायेगा। चूँकि संसारी सभी धर्मों का साझा व्यक्ति था, इसलिए इस तरह के फकीर पर सभी का बराबर हक बनता है। संसारी के फूल (अस्थियाँ) आधे राम जी के मंदिर की कमेटी को और आधे गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी को दिए जाने का फैसला हुआ। देवी माता के मन्दिर में ‘संसारी’ की याद में जगराता रखा जायेगा और बाबा धर्मदास के डेरे में सभी धर्मों की तरफ से सामूहिक लंगर लगाये जाने का ऐलान किया गया। एक सर्वधर्म सदभावना रैली निकालने का फैसला भी किया गया, इन सभी धर्म के ठेकेदारों के द्वारा।

सभी धर्मों के रक्षक इस फैसले पर काफी खुश नजर आ रहे थे। सभी के चेहरों पर चमक दिखाई दे रही थी और विधायक बीबी तो खुशी से फूली नहीं समा रही थी, क्योंकि पहली बार उसने समस्त शहर पर अपना प्रभुत्व कायम किया था। उसके यत्न और प्रयासों से ही शहर पर आया इतना बडा धर्म संकट टल गया। सभी धर्मों के नेता अपने लोगों के बीच जीत की डींग हाँकने लगे थे। अपनी-अपनी जीत की दलीलें देने में लगे हुए थे।

और हाँ! पुलिस के मुख्य अधिकारी को संकट के दौरान शान्ति बनाए रखने के बदले में सम्मानित करने का फैसला किया गया। इस सम्मानित राशि को इकट्ठा करने की जिम्मेदारी सर्वधर्म सदभावना कमेटी के मुखिया सेठ अमनचन्द विद्रोही ने अपने हाथ में ले ली थी। मुरारी अपनी जीत पर खुशी मना रहा था। पूरा मोहल्ला इस संकट की घड़ी में उसकी पीठ पर आकर खडा हो गया था।

लेकिन बेचारा ‘संसारी’? जिसको अपने जीते जी पता ही नहीं था कि वह शहर का इतना महत्वपूर्ण और महान व्यक्ति है!

 

२८ अप्रैल २०१४

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