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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
अंतरा करवड़े की लघुकथा- वीर


“और फिर शिवाजी महाराज ने एक ही वार में अफ़जल खान का काम तमाम कर दिया।” दादी ने कहानी समाप्त की।

वीर रस से पगी इस कथा को सुनकर मिन्टू का सीना साहस और गर्व से फूल उठा था। वो अपने पिता में वीरता के लक्षण खोजने लगता। कभी ट्रैफिक सिग्नल तोडते नियम भंग को साहस समझ बैठता, तो कभी दोस्तों के बीच जोर जोर से गालियाँ देते और चिल्लाकर अपना पक्ष रखते पिता उसे दिलेर दिखाई देते, तो कभी दादी की दवाई लाने में टालने के उनके बहानों को वो चतुराई समझ बैठता।

उस रात लगभग डेढ बजे, पडोस की शालिनी आंटी के घर हलचल हुई। बहू का प्रसव नजदीक था और घर में कोई मर्द नहीं। आंटी अकेली और बहू दर्द से बेहाल। मिन्टू ने आशा से अपने पिता को देखा। अब समय आ ही गया था कि वे सभी के सामने अपनी वीरता दिखा ही देते। लेकिन मम्मी की मिन्नतों और दादी की पड़ोस धर्म की दुहाई भी काम न आई। पिता मुँह ढाँपकर पड़े ही रहे और घरवालों को भी पचड़े में न पड़ने की सलाह दी।

तभी मम्मी के अन्दर की शक्ति जाने कहाँ से जाग उठी, उतनी रात वे चौराहे तक अकेली दौड़ीं और हाथ पैर जोड़कर एक रिक्शेवाले भैया को तैयार कर लाई फिर शालिनी आंटी और मिन्टू की मम्मी ने मिलकर बहू को अस्पताल पहुँचाया। ये सब करने के बाद रात साढे तीन पर थकी हारी मम्मी घर लौटी। मिन्टू ने दौडकर उसका आँचल पकड़ लिया।

उसे अचानक लगा कि ये आँचल मात्र कपड़े का टुकड़ा नहीं है, दीवार है और वीरता की इबारत ऐसी दीवारों पर ही लिखी जाती है।

२१ अप्रैल २०१४

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