इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
रोहित रुसिया, मदनमोहन
अरविन्द, अमरेन्द्र सुमन, टीकमचंद ढोडरिया और
ओमकृष्ण राहत की
रचनाएँ। |
कलम गही नहिं
हाथ- |
जहाँ वर्षा का कोई मौसम न हो वहाँ वर्षा का
उत्सव हो जाना स्वाभाविक है। इमारात दुनिया का एक ऐसा ही कोना है।
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- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है-
सर्दी के मौसम में सूपों की पुरानी शृंखला को जारी रखते हुए-
बादाम शोरबा। |
आज के दिन
(२७ जनवरी) को १९८३ में तमिल अभिनेता, सीलांबरसन राजेन्द्र का जन्म तथा
१९६९ में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री अन्नादुरै का निधन...
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हास
परिहास
के अंतर्गत- कुछ नये और
कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी
का आनंद...
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नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-
३२ विषय- 'शादी उत्सव गाजा बाजा' में रचनाओं का प्रकाशन
प्रारंभ हो गया है। टिप्पणी के लिये देखें-
विस्तार से... |
लोकप्रिय
उपन्यास
(धारावाहिक)-
के
अंतर्गत प्रस्तुत है २००३ में प्रकाशित
रवीन्द्र कालिया के उपन्यास—
'एबीसीडी' का
पाँचवाँ भाग।
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वर्ग पहेली-१७१
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में-
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समकालीन कहानियों में भारत से
ललित साह की कहानी-
ज्वालामुखी
गाड़ी आधा घंटा लेट आई... यानी
साढ़े सात बजे। इससे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि न तो
मैं इंटरव्यू देने जा रहा था और न तार पाकर किसी मरणासन्न
रिश्तेदार से मिलने। साधारण यात्रा थी, देर-सवेर सब चलेगा।
मेरा बर्थ नंबर सात था। दरवाजे के पास वाली नीचे की सीट। आठ
नंबर मेरे ऊपर था एवं एक से छः नंबर सामने के लेडीज केबिन के
भीतर। सचमुच ऐसे केबिन किसी एक परिवार या जनाना सवारियों के
लिए निरापद तथा आरामदायक होते हैं। अंदर से सिटकनी बंद करो और
रात भर सुख की नींद सोओ, घर जैसा। एक नजर ध्यान से देखने पर
केबिन में बैठे लोग मुझे एक ही परिवार के लगे। एक वृद्धा। दो
लड़कियाँ- किशोर वय की। जरूर बहनें होंगी। क्योंकि दोनों के
कपडें ही नहीं, नाक-नक्श भी एक जैसे थे। एक लड़का भी था सात-आठ
साल का तथा एक वृद्ध, जिनकी दाईं आँख पर छोटा-सा हरा पर्दा लगा
था, एक युवती- गोरी, स्वस्थ एवं सुंदर। मेरे ऊपर की बर्थ खाली
थी, लेकिन बगल वाले बर्थ पर एक काली जवान औरत दो बच्चों के साथ
बैठी थी। आगे-
*
विनय मोघे का व्यंग्य
शादी का मौसम आया
*
चीन से गुणशेखर का संस्मरण
मैं कौन हूँ कहाँ
से हूँ
*
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का ललित
निबंध
अस्ताचल का सूर्य
*
पुनर्पाठ में- प्रकृति अंतर्गत
प्रभात कुमार से जानें- पर्यावरण या
जनावरण
1 |
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पिछले
सप्ताह- |
१
नूतन प्रसाद की लघुकथा
दाढ़ी में तिनका
*
राहुल देव की समीक्षा
समकालीन कहानियों में देश
*
विनय भदौरिया का आलेख
नवगीत में राजनीति और व्यवस्था
*
पुनर्पाठ में-
डॉ. नितिन उपाध्ये का प्रहसन-
रक्तदान
*
समकालीन कहानियों में भारत से
वर्षा
ठाकुर की कहानी- आजादी के लड्डू
"टेस्टीमोनियल?"
"हाँ। बाहर की यूनिवर्सिटीज के लिए लगता है।"
"तुम भी बाहर चले जाओगे?"
"हाँ, सब लोग तो वही कर रहे हैं, इस डिग्री से क्या होगा? दस
पाँच हजार की नौकरी? जब तक डॉलर में कमाई न हो तब तक कहाँ कुछ
हो पाता है? कीड़े मकोड़ों जैसे जीते रहते हैं बस।"
नेहा खामोश थी। कॉलेज का आखिरी सेमेस्टर था। सब लोग भविष्य की
तैयारियों में जुटे हुए थे। किसी का कैंपस सिलेक्शन हो गया था,
किसी को एम बी ए करना था तो किसी को बाप दादा की कंपनी सँभालनी
थी। पर एक बड़ा वर्ग ऐसा था जो हायर स्टडीज के लिए विदेश जाना
चाहता था। वहाँ से फलाँ-फलाँ यूनिवर्सिटीज से एम एस की डिग्री
लेके वहीं की वहीं नौकरी लग जाती और फिर वहीं शादी, बच्चे,
जिन्दगी। नेहा को समझ नहीं आता था कि विदेश जाकर उन्हें क्या
अच्छा लगता था। कितनी भी चकाचौंध हो, कुछ वक्त के बाद तो फीकी
पड़ ही जाती थी, वैसे ही जैसे रेस्टोरेंट का खाना...
आगे- |
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