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समीक्षायण


समकालीन कहानियों में देश
-राहुल देव
 


देश और देशप्रेम हमेशा से ही हिंदी कहानियों का एक प्रमुख विषय रहा है। विशेष रूप से प्रवासी कहानीकारों ने इस परंपरागत विषय पर कई बेहतरीन कहानियाँ लिखीं हैं। प्रवासी कहानीकारों का इस विषय पर कहानियाँ लिखना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वह अपने देश से दूर रहते हुए अपनी माटी की कहानियाँ रच रहे हैं। आज के आधुनिक समय में जब कहानियों के विषय खेमों और विचारधाराओं में बटे हुए हैं, स्मृति और ज्ञान के भावनात्मक धागों में लिपटी ये कहानियाँ साहित्य के उजले भविष्य की ओर से हमें आश्वस्त भी करती हैं। ऐसे कथाकारों की एक लम्बी फेरहिस्त बनायी जा सकती है जो कि कहीं न कहीं उनके स्वयं के देशप्रेम की भावना का द्योतक भी बनती है। समकालीन कहानी के व्यापक परिदृश्य में इस विषय पर केन्द्रित कुछ कहानियों का विश्लेषण करना यहाँ पर ज्यादा समीचीन होगा।

सुप्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी की कहानी ‘झूमर’ का खाका अर्जुनदास नामक एक आदर्शवादी रंगकर्मी के आसपास बुना गया है। अर्जुनदास ने अपने जीवन में बड़े कष्टों और संघर्षों का सामना किया है। इस सबमें उनकी पत्नी कमला ने भी हमेशा कदम से कदम मिलाकर उनका साथ दिया है। हालाँकि आज के समय को देखकर कभी कभी वह स्वयं से सवाल करते हैं कि क्या मैं सही था, क्या बीते समय में उनके द्वारा लिए गये फैसले सही थे? आज एक मैदान में आयोजित रंगोत्सव में उनकी उपलब्धियों के लिए पुरस्कार देने के लिए बुलाया जाता है लेकिन उनके मन में आज वह उत्साह नहीं है जो पहले कभी रहा करता था। वह अपने बीते दिनों को याद करते हैं कि किस तरह वे जनजागृति फ़ैलाने के लिए पुलिस के तमाम विरोध और अड़चनों के बावजूद शो दिखाया करते थे। वे याद करते हैं कि किस तरह नाटक से प्रभावित होकर एक महिला ने अपने सोने के झूमर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों के लिये दान कर दिये थे। आज न वैसे नाटक हैं, न वैसे देखने वाले। आज सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को भत्ते से तौल रही है। देशप्रेम की उस भावना का मूल्य लगाना उनके संस्कार में नहीं है। कहानी में कलाकारों की कई समस्याओं को उठाया गया है जैसे कलाकारों की आर्थिक स्थिति, सरकार की उपेक्षा, परिवार का विरोध और नाटकों का गिरता हुआ स्तर। पुराने और नये समय और संस्कृति की गहरी पड़ताल करती यह कहानी हमें सही आदर्शों के विषय में सोचने पर विवश कर देती है।


यू.एस.ए. से इला प्रसाद की कहानी ‘भारत का वीजा’ प्रवासी भारतीयों के दर्द को बयाँ करती एक यथार्थपरक व संवेदनशील कहानी है। कहानी का सार कुछ यूँ है, शुभेंदु अपनी पत्नी राखी के साथ पिछले बीस साल से अमेरिका में रह रहा है। एक दिन उसे पता चलता है कि भारत में रह रही उसकी माँ की मृत्यु हो गयी है और उसे अंत्येष्टि के लिए भारत जाना पड़ेगा। वह इसके लिए अमेरिका में भारतीय दूतावास के वीजा कार्यालय जाता है जहाँ उसे तमाम बने नये नियमों का हवाला दे देकर के परेशान किया जाता है। अथक भागदौड़, भूख-प्यास और निराशा से जूझकर कर उसे इतनी देर में वीसा मिलता है कि प्लेन में चढ़ने के बाद जब वह भारत में अपने घर फ़ोन करता है तो समाचार मिलता है कि लाश से दुर्गन्ध उठने के कारण अंतिम संस्कार किया जा चुका है। शुभेंदु अपनी कोने की सीट पर बैठा, आधे चेहरे को रूमाल से ढँके प्लेन की खिड़की की तरफ मुँह किये फूट-फूटकर रोने लगता है और कहानी की भावपूर्ण समाप्ति होती है। इस कहानी में शुभेंदु के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने प्रवासी भारतीयों की एक बहुत बड़ी समस्या को उठाया है।

भारत से डॉ महीप सिंह की कहानी ‘धुँधलका’ सविता नाम के महिलापात्र के चरित्र की कहानी है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते वह राजनीति में एक बड़े नेता सुधाकर के संपर्क में आती है लेकिन धन तथा सत्ता का लोभ उसे अकेलेपन के गहरे गर्त में धकेल देता है। चुनाव से पहले तमाम तिकड़म भिड़ाये जाते हैं जो आज की राजनीति के गंदे चेहरे को बेनकाब करती है। चुनाव में उसकी पार्टी की हार होती है। फिर एक दिन अकेले बैठे हुए वह अपने बीते दिनों को याद करती है, अपना पुराना घर, अपने पति और अपने बेटे के बारे में सोचती है। जहाँ पहले वह किसी स्कूल में पढ़ाया करती थी, अत्यंत सीमित संसाधन होते हुए भी उसके पास अपने परिवार के लिए समय होता था। राजनीति के दलदल में उतरने के बाद उसकी व्यस्तताओं ने उसे ऐश्वर्य तो दिया परन्तु खुद का घर-परिवार व मन की शांति छीन ली। वह यह भी सोचती है कि वह कब, कैसे और क्यों सुधाकर से मिली। इसी उधेड़बुन में वह आँखें बंद किये हुए अब अक्सर बैठी रहती है।‘ इस कहानी में कहानीकार ने देश के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह से आयी कुछ महिलाओं की स्थिति के एक अँधेरे पक्ष का सविता के चरित्र के माध्यम से बखूबी चित्रण किया है।

भारत से हर्ष कुमार की कहानी ‘फौजी’ एक घटना-प्रधान कहानी है जिसमे एक फौजी की अपने देश के प्रति समर्पण भावना, उसके जीवनमूल्यों और उसकी व्यक्तिगत समस्याओं को सामने रखने का प्रयास किया गया है। कहानी रेलयात्रा के प्रसंग से शुरू होती है जिसमें पवन नाम का व्यक्ति भी सफर कर रहा होता है, रेल के उसी डिब्बे में भारतीय सेना के एक ब्रिगेडियर जैक का आगमन होता है यात्रा के दौरान उनमें परिचय होता है और लेखक तथा जैक की बातचीत तथा रेलयात्रा के दौरान घटने वाली छोटी छोटी घटनाएँ एक सशक्त कथानक में बदल जाती हैं। फौज की नौकरी की तमाम सारी परेशानियों के बावजूद उसकी देशभक्ति का जज़्बा कहीं से भी कम होता दिखाई नहीं देता। वह देश के वर्तमान राजनीतिक हालात पर भी चिंता व्यक्त करते हुए कहता है- हमारे यहाँ निर्णय लेने वाला वो है जो बन्दूकधारी सिपाहियों से घिरा रहता है सुबह दफ्तर जाता है और शाम को घर। घर-दफ्तर पर कमांडोज़ का पहरा। कोई खतरा नहीं। न मौत को करीब से देखा न कभी ज़िन्दगी को खुल कर जिया। ऐसे लोगों से और क्या उम्मीद रखी जा सकती है। यात्रा समाप्ति पर वे अपनी-अपनी अपनी राह चले जाते हैं, लेकिन पवन के मन में फौजी द्वारा बताया गया 'सकारात्मक सोच' का पाठ बसा रह जाता है। अखबार से कुछ दिन बाद वह पता चलता है कि तीन ब्रिगेडियरों का प्रमोशन हो गया है जिनमें एक जैक भी था। लेखक सोच में पड़ जाता है कि उनकी मेहनत रंग लायी
है, सितारों ने अपना काम किया है या ‘सकारात्मक सोच’ ने या शायद तीनों ने।

भारत से शीला इंद्र की कहानी ‘फाँसी से पहले’ बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बमकांड में पकड़े गए तीन क्रांतिकारियों कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेंद्र गोस्वामी के जीवन पर आधारित एक देशभक्ति से परिपूर्ण ऐतिहासिक कहानी है। कन्हाई और सत्येन्द्र बसु जेल में बंद हैं, उन्हें सूचना मिलती है कि उनका ही एक साथी नरेन गुसाईं अपने देश से गद्दारी कर अंग्रेजों का मुखबिर बन गया है। वे दोनों तमाम अन्य क्रांतिकारियों और निरपराध लोगों की जान बचाने के लिये नरेन के कोर्ट में बयान देने से पहले ही उसकी हत्या करने की एक योजना बनाते हैं,  और उसे जानपर खेलकर पूरा करते हैं। मुकदमा चलाया जाता है और दोनों को फाँसी की सजा होती है। सन १९०८ के १० नवंबर को दोनों हँसते-हँसते फाँसी को गले लगा लेते हैं। अंत्येष्टि के बाद इन शहीदों की राख को देश प्रेमी जनता लूट लेती है, ताकि अपने बच्चों के गले में गंडा तावीज बनाकर पहना सके, जिससे आने वाली पीढ़ी भी वैसी ही वीर, साहसी और देश-प्रेमी बने। कहानी में तत्कालीन देशकाल का लेखिका ने ध्यान रखा है और कहानी प्रवाहपूर्ण भाषाशैली के साथ आगे बढ़ती है। दोनों क्रांतिकारियों के चरित्रों के माध्यम से यह कहानी पाठकों के मन में देशप्रेम की भावना का संचार करती है। सोचने वाली बात यह है कि क्या आज हम इतने संघर्ष के बाद मिली स्वतंत्रता का मान रख पा रहे हैं?

भारत से अलका सिन्हा की कहानी ‘अपूर्णा’ तीन पीढ़ियों के समय की शिनाख्त करती एक सार्थक कहानी बन पड़ी है। अपने परपोते ‘हिम’ के साथ खेलते हुए उम्र के सत्तर वर्ष पार कर चुकी उसकी दादी फ्लैशबैक में अपने अतीत के गहरे ख्वाबों में डूब जाती हैं। वे संभ्रांत बंगाली परिवार की लड़की थी, उनके पिता अक्सर कहा करते थे- ''जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से महान है। जानती हो, हमारा देश अभी आज़ाद नहीं है, अंग्रेजों के शिकंजे में जकड़ा है और पराधीन जीवन व्यर्थ है, एकदम व्यर्थ...। हमें कुछ करना चाहिए, इस देश का क़र्ज़ा है हम पर, हमें उसे खून देकर भी चुकाना होगा।'' आज भी उन पुरानी बातों को याद करके नयनकोर गीले हो जाया करते हैं बूढ़ी अपूर्णा के। वह जननी की भूमिका निभाए या जन्मभूमि के लिये मर मिटे? वह विदेश प्रेम, रिश्वत और भ्रष्टाचार से आहत होती है, क्या इसीलिये उसने अपने बेटे का नाम सुराज रखा था? ऐसे प्रश्नों के साथ वह आज भी अक्सर अपने आप से उलझ जाया करती है। उसकी यादों का हिंडोला रुक जाता है, जब परपोता हिम जाग जाता है और दादी पुकारकर उनसे लिपट जाता है। कितनी मिठास थी इस एक संबोधन में- जैसे उसके मन का सारा अवसाद ब्लॉटिंग पेपर की तरह जज़्ब कर लिया हो हिम ने। उसकी जिंदगी आँख मिचौली खेलती उससे पूछती है कौन हो तुम पूर्णा...या अपूर्णा...ठीक इसी चरम बिंदु पर कहानी
ख़त्म हो जाती है।

इस क्रम में कमलेश बक्शी की कहानी ‘सूबेदार बग्गा सिंह’ एक जिंदादिल फौजी की ह्रदयस्पर्शी कहानी है। कहानी एक आर्मी अस्पताल के दृश्य से शुरू होती है जिसमें कारगिल युद्ध में ज़ख्मी कर्नल करनैल सिंह भर्ती होता है। उसी अस्पताल में उस कर्नल का बूढ़ा पिता सूबेदार बग्गा सिंह भी है,  जो अपाहिज होने के कारण घर नहीं जाना चाहता और अस्पताल में ही सेवा कर के जीवन बिता रहा है। वर्षों से बग्गा सिंह ने अपनी पहचान छुपा रखी थी लेकिन बेटे को पहचनाने के बाद वह उससे बात करने से स्वयं को रोक नहीं पाता। उसे यह जानकर खुशी होती है कि परिवार में सब उस पर गर्व करते हैं और उसे खोने के बाद भी उसकी पत्नी में फौज के प्रति कोई डर नहीं है। वे घर का हालचाल पूछते हैं और अपनी पहचान छुपाए रखकर परिवार वालों के लिये ढेर से उपहार के साथ बेटे को विदा कर देते हैं।
इस प्रकार यह पूरी कहानी इतनी मार्मिक है कि एक चलचित्र की तरह हमारी आँखों के सामने चित्रित होने लगती है। कहानी में फौजी जीवन की कठिनाइयों के साथ साथ उनके परिवार की जिजीविषा, बहादुरी और देशप्रेम का चित्रण है। साथ ही देश की भीतरी असुरक्षा की ओर भी इशारा किया गया है।

भारत से मीरा कान्त की कहानी ‘विसर्जन’ एक देशभक्त पिता और उसके पुत्र के भावनात्मक अंतर्संबंधों की कहानी है। इसका कथानक भी कुछ कुछ पिछली कहानी जैसा ही है। लगभग पूरी ही कहानी फ्लैशबैक में चलती है। बंशीलाल एक सैनिक स्कूल में अध्यापक थे। उनका बेटा कबीर उनके सपने को साकार करते हुए सेना की इलेवन जाट रेजिमेंट में शामिल होता है। वह उसका बचपन याद करते हैं, याद करते हैं वह दिन जब वह सेना में शामिल हुआ और कबीर से कैप्टन कबीर कौल बन गया। इम्फाल में तैनाती के दौरान कबीर आतंकवादियों का शिकार हो जाता है। यह खबर सुनकर बंशीलाल को झटका सा लगता है। वह सोच में डूब जाते हैं कि क्यों? क्यों होता है सच का चेहरा इतना भयावह। अभी तो उसके कबीर ने जी भरके जीवन को देखा भी नही !! उसकी शादी को भी अभी कितना समय हुआ है, मात्र तीन महीने ही तो। वह बड़े दुखी मन से अपने बेटे की अस्थियों को यमुना में विसर्जित करते हैं। हम मनुष्य नियति के आगे और कर भी क्या सकते हैं। एक यक्ष प्रश्न हमेशा हमारे सामने आ टकराता है कि आखिर जब इस संसार में हर वस्तु मरणासन्न है तो फिर स्मृतियाँ क्यों नहीं मरतीं !

यूएसए से शैल अग्रवाल की कहानी ‘अनन्य’ देश पर आधारित एक मर्मस्पर्शी भावनात्मक कहानी है। फ्लाइट लेफ्टिनेंट आदित्य राय भारतीय वायुसेना का एक जाबांज ऑफिसर है। अचानक छिड़े एक युद्ध में आदित्य दुश्मनों का वीरता से सामना करते हुए शहीद हो जाता है। आदित्य और शुभांगी की हाल ही में सगाई हुई होती है। मोर्चे पर उसके शहीद होने की खबर सुनकर शुभांगी पर मानो वज्रपात सा होता है। वह आदित्य की यादों में खो जाती है और उसके साथ बिताये गये अपने स्वर्णिम पलों को याद करती है। दोनों ने मिलकर न जाने कितने सपने सजाये थे मगर वक़्त के क्रूर लम्हों ने मानो सबकुछ छीन लिया। भारत सरकार द्वारा आदित्य को युद्ध में उसके अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया जाता है। उसे भी देश की आन-बान-शान के लिए आदित्य के मर मिटने का दुःख नहीं बल्कि गर्व होता है। दुःख होता है तो सिर्फ इस बात का कि जिस तरह हर साल शहीदों की बरसी पर तमाम नेता झूठी भाषणबाजी करके मात्र कार्यक्रमों की खानापूर्ति करते हैं। फिर भी वह इन कार्यक्रमों में हर साल जाती है क्योंकि दुनिया शहीदों को भूल सकती है, उसके आदित्य को भूल सकती है लेकिन वह नहीं। ‘झिलमिल यादों की सितारों वाली वह काली–सियाह चूनर ओढ़े शुभी आज भी, वैसे ही, जीवन के उसी मोड़ पर तैयार खड़ी है क्योंकि उसे पता है कि उसका आदित्य ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में हो, एक दिन उसे लेने अवश्य आएगा।‘ इस प्रकार वह उसकी यादों के सहारे अपना पूरा जीवन काट देने का निश्चय करती है।

भारत से राजेन्द्र त्यागी की कहानी ‘अधूरा सवाल जनतंत्र का’ आज के भीड़तंत्र के दोनों पहलुओं- जनतंत्र बनाम राजतंत्र की स्थिति पर प्रहार करती हुई व्यंग्यात्मक भाषा शैली के साथ एक पठनीय और प्रभावशाली कहानी बन पड़ी है। कहानी का प्रारंभ मुन्नालाल और लालबुझक्कड़ नाम के दो दिल्ली वासियों के बीच एक सवाले से होता है। सवाल यह है कि ''राजपथ व जनपथ में से कौन किसके ऊपर से गुजर रहा है? ..एक-न-एक तो जरूर दूसरे की छाती पर पाँव रख आगे बढ़ा होगा। रेखागणित का सामान्य सिद्धांत है-जब दो रेखाएँ परस्पर एक-दूसरे को काटती हैं, तो दूसरी रेखा पहली रेखा के ऊपर से गुजरती है। ..जरूर यही सिद्धांत यहाँ भी लागू रहा होगा।'' राजपथ जनपथ के चौराहे पर खड़ा मुन्नालाल रेखागणित की इस पहेली को सुलझाने में मशगूल था। तभी जनतंत्र के दो पहरेदार आए और धकियाते-धकियाते उसे जनपथ की तरफ ले गए। मुन्नालाल ने अपने को सँभाला। कपड़े-लत्ते झाड़े और कुत्ते की तरह अपने ही मसूढ़ों से निकला खून चाटते हुए पहरेदार से पूछ बैठा, ''भइया मेरी गलती क्या थी?'' अंत में इस सवाल का जवाब भी एक सिपाही ही देता है- जन-तंत्र में जन पहले आता है, तंत्र बाद में, इसलिए तंत्र ही जन के ऊपर सवारी कर रहा है!'' कहानी में आम-आदमी की दुर्दशा और भ्रष्ट तंत्र का चित्रण है।

भारत से अलका पाठक की कहानी ‘फोकस’ वर्तमान संदर्भो में मीडिया के असंवेदनशील चेहरे को हमारे सामने रखती है। आज़ाद हिन्द फौज के एक स्वतंत्रता सेनानी की विधवा व उसके पुत्र पर ज्ञानबाबू नाम का पत्रकार प्रोग्राम बनाना चाहता है। वह सोचता है कि असली हालत दिखे तो प्रोग्राम ढँग का बने– आज़ादी के पचास साल में शहीद की विधवा की दारुण दशा! अधिकारियों को पूछा जाय, नेताओं को टटोला जाय। पर बुढ़िया संतुष्ट थी। पेंशन मिल जाती है। काया निरोग है, घर में माया है, सुत आज्ञाकारी है और क्या चाहिए?’ वह अपनी वाहवाही के लिए उस बेचारी विधवा से उल्टे-सीधे सवाल करता है व उसकी मदद करने के बजाय उसका मज़ाक बनाता है। अपने प्रोग्राम्स को सनसनीखेज बनाने के लिए आजके मीडियाकर्मी और पत्रकार खोजी पत्रकारिता के नाम पर क्या से क्या नहीं करते इस सब बातों को ज्ञानबाबू के चरित्र के माध्यम से इस कहानी में लेकर कहानीकार ने बड़े रोचक ढंग से कहानी के कथ्य को रखने का प्रयास किया है।

भारत से डॉ सूर्यबाला की कहानी ‘दादी का खज़ाना’ भी एक उल्लेखनीय कहानी है। इस कहानी में पीढ़ियों के मध्य सभ्यता, संस्कृति, देश तथा जीवन के नैतिक मूल्यों को बहुत अच्छे से सहेजा गया है। वस्तुतः अपने देश के प्रति प्यार व लगाव एक भावना है जो हमें स्वभावगत रूप से अपने संस्कारों से प्राप्त होती है। इस कहानी की प्रधान चरित्र दादी माँ अपने अनुभवजन्य ज्ञान तथा ढेरों कहानियों के खजाने के साथ भावी पीढ़ी को सही राह दिखाती हैं। इस कहानी से संयुक्त और एकल परिवार के मध्य किस तरह से अंतर है यह भी स्पष्ट रूप से पता चलता है। निश्चित रूप से आज के एकल परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवार हमारी सांस्कृतिक विरासत, भाषा व बोली को सहेजने में ज्यादा सहायक होते हैं।


भारत से किरण अग्रवाल की कहानी ‘दिल्ली दूर है’ एक बिलकुल अलग तरह की कहानी है इसमें लेखिका कल्पना का सहारा लेकर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के व्यक्तित्व से वर्तमान संदर्भो में संवाद करती है। उन्होंने नारा दिया था- ‘दिल्ली चलो’। आज ५२ साल बाद जब उनकी आत्मा दिल्ली पहुँचती है तो वह पहचान नहीं पाते कि वह कहाँ आ गए हैं- ‘यह वह दिल्ली तो नहीं जिस का हम ने सपना देखा था एक दिन। गोरे तो चले गए लेकिन अपने विष बीज छोड़ गए हैं मेरे देशवासियों के अंदर उन के विचारों में, उन के कार्य-कलापों में। पूरी कहानी ऐतिहासिक तथ्यों को साथ लेकर चलती है जिससे कहानी प्रासंगिक हो उठती है। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत का आज तक कोई साक्ष्य नहीं मिल सका। देश को स्वतंत्र कराने में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

इस क्रम में यूएसए से डॉ राम गुप्ता की कहानी ‘शौर्यगाथा’ अपने देश की सांस्कृतिक विरासत के एक छोटे से शहर महोबा का ऐतिहासिक आख्यान है। महोबा यानि आल्हा ऊदल जैसे वीरों की जन्मभूमि जिन्होंने वीरता की पराकाष्ठा स्थापित की। इस कहानी में ऐतिहासिक गौरवगाथाओं के तथ्यों को लेकर तत्कालीन समाज का वर्णन है साथ ही हमें बुंदेलखंड के वीरों की शौर्यगाथाओं तथा अपने गौरवशाली अतीत व तमाम किवदंतियों की जानकारी भी मिलती है। इसके साथ ही कथा में वर्षा ऋतु का सुंदर वर्णन हुआ है। कजरी और रक्षा के बंधन के पर्व कैसे मनाए जाते थे, कैसे वर्षा ऋतु के विभिन्न राजसी आयोजन होते हैं वह सब इस कहानी में रोचक ढँग से वर्णित हुआ है। प्रसिद्ध शाइर इकबाल ने भी क्या खूब कहा था- ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा !’

आमतौर पर हिंदी कहानी की तीसरी पीढ़ी के युवा कहानीकार विषयगत नवीनता की तलाश में रहते हैं और देश तथा देशप्रेम जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को एक घिसापिटा विषय मानते हैं और शायद इसीलिए वे इस विषय पर लिखना नहीं चाहते फिर भी हम देख सकते हैं कि वर्तमान समय में भी इस विषय पर बहुत सी अच्छी अच्छी कहानियाँ लिखी गयी हैं और लगातार लिखी जा रहीं हैं। एक सामान्य से लगने वाले विषय पर कई लेखक जिस तरह से संवेदना के विविध स्तरों पर आकर कहानियाँ लिख रहे हैं वह हिंदी कथा साहित्य के लिए एक सुखद संकेत माना जाना चाहिए। इनकी कहानियों में विषय की सामान्यता के साथ साथ भाषा व शिल्प की विशिष्टता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। कथावस्तु व संवेदना का यह नयापन पाठक को कहानियों के साथ जोड़ता है और अपने देश के प्रति नवीन भावऊर्जा का संचार उसके मन मस्तिष्क में बरबस ही होने लगता है।

२७ जनवरी २०१४

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