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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से वर्षा ठाकुर की कहानी— आजादी के लड्डू


"टेस्टीमोनियल?"
"हाँ। बाहर की यूनिवर्सिटीज के लिए लगता है।"
"तुम भी बाहर चले जाओगे?"
"हाँ, सब लोग तो वही कर रहे हैं, इस डिग्री से क्या होगा? दस पाँच हजार की नौकरी? जब तक डॉलर में कमाई न हो तब तक कहाँ कुछ हो पाता है? कीड़े मकोड़ों जैसे जीते रहते हैं बस।"
नेहा खामोश थी।

कॉलेज का आखिरी सेमेस्टर था। सब लोग भविष्य की तैयारियों में जुटे हुए थे। किसी का कैंपस सिलेक्शन हो गया था, किसी को एम.बी.. करना था तो किसी को बाप दादा की कंपनी सँभालनी थी। पर एक बड़ा वर्ग ऐसा था जो हायर स्टडीज के लिए विदेश जाना चाहता था। वहाँ से फलाँ-फलाँ यूनिवर्सिटीज से एम.एस. की डिग्री लेकर वहीं की वहीं नौकरी लग जाती और फिर वहीं शादी, बच्चे, जिन्दगी।
 
नेहा को समझ नहीं आता था कि विदेश जाकर उन्हें क्या अच्छा लगता था। कितनी भी चकाचौंध हो, कुछ वक्त के बाद तो फीकी पड़ ही जाती थी, वैसे ही जैसे रेस्टोरेंट का खाना एक दो दिन बढ़िया लगता था पर रोज रोज वही मिले तो, फिर तो घर के खाने की याद आती ही है। घर तो घर ही होता है, उससे कितने दिन दूर रहा जा सकता है। पर यह बात उन लोगों को क्यों नहीं समझ आती थी जो पागलों की तरह अंधी दौड़ में भाग रहे थे, टेस्टिमोनियल्स के लिए लाइन लगा रहे थे। साहिल भी तो उसी लाइन में खड़ा था।

तो क्या वो भी लग जाए लाइन में? चली जाए विदेश? बना दे अपना घरौंदा वहीं? लेकिन हवा पानी का क्या, मिट्टी का क्या? उस आदत का क्या जो बचपन से यहाँ रहने की पड़ गयी है। सुबह सात बजे दरवाजे पर दस्तक देता ''दैनिक फलाँ-फलाँ'', पास के मंदिर की घंटियाँ, बाहर खडी गाय जो रोटी का इंतजार कर रही होती थी, दूध वाला भैया जो बाजार से आधे दाम में दूध दे जाता था, या फिर मोहल्ले का किरानेवाला जो फोन पर आर्डर लेके राशन पहुँचा जाता था। कामवाली बाई जो पाँच सौ में बर्तन चौका कर जाती थी। पडोसी जो तीन चार दिन शक्ल न दिखने से खुद ही आकर हाल चाल पूछ जाते थे। ये सब मिलता होगा वहाँ? जिस जगह की हवा और मिटटी में अपनेपन की महक नहीं, वहाँ जिन्दगी भर के लिए साँस लेना, क्या दम नहीं घुट जाएगा?

सेमेस्टर खत्म हुआ, और वो घर लौट आयी। अब रिजल्ट का इंतजार था, और फिर कैंपस से मिली नयी नौकरी की शुरुआत। घर पर बड़े भैया का रोज फोन आता था। पूछते रहते थे आगे क्या करना है। उसका भी एक ही जवाब रहता था, एक दो साल काम करके फिर आगे की पढ़ाई करेगी। फिर वे पूछते, एम.एस. क्यों नहीं कर लेती, सब लोग तो विदेश जा रहे हैं पढ़ने के लिए। शर्माजी का लड़का गया था कुछ साल पहले, आज क्या ठाठ से रह रहा है, वहीं नौकरी है, डॉलर में कमाता है, बैंगलोर में प्रॉपर्टी ले ली है। यही तो लाइफ है। यहाँ क्या रखा है? तुम तो इतनी टैलेंटेड हो, तुम्हें तो बहुत अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल जायेगा।

और नेहा चुपचाप सुनती रहती। पूछना चाहती थी कि भैया अगर सौ लोग बाहर कुएँ में कूदकर नहाना पसंद करते हों तो क्या मैं अपने घर में नहाना बंद कर दूँ? मैं अपने देश में रहना चाहती हूँ, इत्मीनान से रहना चाहती हूँ, अपनी भाषा बोलना चाहती हूँ, अपने लोगों के बीच सुकून से रहना चाहती हूँ। टैलेंटेड हूँ तो यहाँ भी तो अच्छा भविष्य बन सकता है।
और फिर नेहा नई नौकरी की शुरुआत करने बंगलोर चली गयी, एक प्रतिष्ठित कंपनी में।

बहुत खुश रहती थी नेहा, पढ़ लिखकर अफसर बन गयी थी। जहाँ जाती लोग इज्जत से बात करते। आगे जिन्दगी खुली किताब की तरह पड़ी थी जिसमें नेहा के बाकी के सपने लिखे जाने का इंतजार कर रहे थे। बड़े भैया लोग भी आश्वस्त थे और उसके लिए अच्छे खासे रिश्ते भी आने शुरू हो गए थे। लड़के भी उसकी तरह अच्छी कम्पनियों में काम करने वाले या किसी बड़े कॉलेज में लेक्चरर होते। नेहा के परिवार वाले परेशान थे कि इनमें से सबसे अच्छा लड़का कैसे ढूँढा जाए। और फिर एक दिन ऑफिस में उसका मोबाइल बजा। बड़े भैया का नंबर था।

"हाँ भैया।"
"भाभी बोल रही हूँ।"
"ओह नमस्ते भाभी, कैसी हो?"
"ठीक हूँ, तेरी नौकरी कैसी चल रही है?"
नेहा सोच रही थी, ऑफिस के वक्त भाभी का फोन, मतलब कुछ खास बात थी।
"हाँ भाभी बढ़िया चल रही है नौकरी। "
"अच्छा सुन, तू अगले सन्डे का टिकट करा लेना, यहाँ का। अभी से बात कर लेना बॉस से।"
"क्या हुआ?"
"एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है तेरे लिए, लड़का एन.आर.आई. है, अगले हफ्ते आ रहा है इंडिया, शादी करने के लिए।"
"शादी करने के लिए? मतलब पहले लड़की देखेगा न? "वाकई बहुत शॉर्ट नोटिस था!
"हाँ हाँ, एक महीने की छुट्टियाँ लेके आ रहा है, एक बार में ही लड़की पसंद करके शादी भी कर लेगा।"
"बाप रे, भाभी इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला? मुझे टाइम चाहिए।"
"तेरे पास टाइम ज्यादा होगा, उसके पास नहीं है। उसको जल्दी सेटल होना है, और सुन, यह बहुत अच्छा रिश्ता है, कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए। भाभी उसका देशप्रेम जानती थी, इसलिए ज्यादा सतर्क थी।

नेहा ने सुना था, ऐसे किस्सों के बारे में। एन.आर.आई. लड़के पहले के कुछ साल पैसे इकठ्ठा करने में लगा देते थे, और फिर उन्हें याद आता था कि उनकी उम्र निकल रही है और शादी करनी बाकी है। तो फिर वे इस तरह के शॉर्ट नोटिस देकर ''इंडिया'' आते थे, मिशन शादी के लिए। अखबारों में भी इश्तहार दे देते थे, ताकि इकट्ठे सब लडकियाँ लाइन से देख लें फिर एक पसंद करके झट से शादी करके वापस चले जाएँ। कई लड़के तो लड़की देखने का काम मम्मी पापा को पकड़ा देते थे, वे बस मंडप में पहुँच जाते थे।

विदेश जाकर सिर्फ आदमी मशीन नहीं बनता था, उसकी भावनाएँ भी मशीन बन जाती थीं। शादी जैसे महत्त्वपूर्ण मसले ऐसे निपटाए जाते थे मानो ड्राइंग रूम का फर्नीचर पसंद करने आये हों। दिखने में अच्छा है, दुकान अच्छी है, रख लो। उसके बाद से तो हर शाम भाभी का फोन आ जाता था। पार्लर गयी कि नहीं, सूट कौन सा लेके आएगी? फोटो भेज, बॉस से छुट्टी की बात कर ली? और फिर भाभी उपदेशों की झड़ी लगा देती थी। तू लड़के से अपनी इस नौकरी की ज्यादा बड़ाई मत करना क्योंकि यह तो तुझे छोड़नी पड़ेगी, और वहाँ जॉब करने की जिद मत पकड़ लेना। जैसा वो बोले बस हाँ हाँ करती रहना। समझ रही है न? ये लड़का बहुत अच्छा है, तेरी लाइफ बन जायेगी।

उसने एक दो बार भैया से बात करने की कोशिश की, इतनी हड़बड़ी में फैसला मत माँगो मुझसे, थोडा वक्त दो मुझे, लड़का एन.आर.आई. है तो क्या, मुझे तो थोडा वक्त चाहिये उसे परखने का। कम से कम यह तो पता करने दो कि वहाँ मेरा क्या भविष्य होगा, क्या जॉब मिलेगा मुझे।

पर नेहा के परिवार वाले जैसे अंधे हो गए थे, एन.आर.आई. की चमक के सामने। लड़के वाले खाते कमाते थे, हौंडा सिटी थी, अपना बंगला था दिल्ली में। और लड़का सबसे छोटा, कोई जिम्मेदारी नहीं। यही सब तो देखना होता है, और क्या! देखने वाले तो यह भी बताते थे कि लड़का खूब गोरा चिट्टा था और अच्छा खासा दीखता था। इससे अच्छा तो अब प्रिंस विलियम्स ही मिल सकता था।

नेहा जानती थी कि परिवार वाले उसकी भलाई के लिए ही बोल रहे थे। उसकी जनरेशन की बाकी लड़कियों के लिए तो यह स्वर्णिम अवसर था, बैठे बिठाये विदेश जाने का। कौन नहीं जाना चाहता था वहाँ, कौन नहीं शादी करना चाह्ता था एक एन.आर.आई. से। यह तो सपना साकार होने जैसा था।

पर दिक्कत यह थी कि नेहा ने तो यह सपना देखा ही नहीं था! ऐसे सपने साकार होने का क्या करना जो कभी देखे ही नहीं हों, वे तो दूसरों के सपने थे। तो क्या उसे लाइन में उससे पीछे खड़ी लड़की को यह सपना सौंप देना चाहिए। पर यह सम्भव भी तो नहीं था, उसके शुभचिंतक अजगर की तरह उसके दिलो दिमाग पर पहरा दे रहे थे। थोड़ी उसकी राय इधर से उधर हुई नहीं कि फुँफकार उठते थे। उनके सामने उनका फर्ज था। नेहा के सामने उसकी जिन्दगी।

नेहा अपने हाथों की लकीरों को देखती थी, क्या उनमें सच में विदेश जाकर रहना ही लिखा है? उसने कोशिश तो की थी न जाने की, कोई फॉर्म नहीं भरा था, कोई हाथ पैर नहीं मारा था, फिर भी किस्मत आज उसके सामने वही सवाल लेकर खड़ी थी। परिवार वाले खुश थे, लड़के में कोई कमी नहीं थी, वक्त भी नहीं था ज्यादा सोचने का, अब तो किस्मत लिखी जा चुकी थी। लड़के ने बीच में उससे फोन पर भी बात की और अपनी फोटोज भी उसे मेल कर दीं ताकि सन्डे की वो मुलाकात एक औपचारिकता बनके रह जाय, हाँ कहने की। उसने टिकट करा दिया, शनिवार को जाना था और रविवार शाम को ही लौट आना था। कपड़े सहेजकर रख दिए, पार्लर हो आयी। अब सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया था।

सन्डे सुबह वो भैया के घर पहुँच गयी। नहा धोकर तैयार हो गयी, भाभी ने नाश्ता पानी तैयार कर दिया था। भैया भाभी रह रह कर उसकी नब्ज टटोलते कि कहीं उसके दिल में कुछ और तो नहीं। भाभी ने उसे सलीके से पेश आने के गुर सिखाये।

साढ़े ग्यारह बजे लड़के का परिवार हौंडा सिटी से उतरा और उनके घर पहुँचा। अच्छे लोग थे, दोनों परिवारों में खूब बातें हुईं, थोड़ी देर में भाभी नेहा को लेके बाहर आयी और लड़के के परिवार वालों ने उससे कुछ औपचारिक बातें कीं। फिर लड़के की बड़ी दीदी ने इशारे से नेहा की भाभी से कुछ कहा तो उन्होंने नेहा और लड़के को अंदर जाकर बात करने का न्यौता दिया। ये भी आधुनिक अरेंज्ड मैरिज का एक रिवाज था, लड़के लड़की का अकेले में बात करके अपना अंतिम निर्णय देना।

नेहा का दिल जोर जोर से धड़क रहा था। भाभी की बात लड़के ने हँसकर टाल दी थी, शायद वो ये कहना चाहता था कि लड़की उसे वैसे ही पसंद है। ये सुनकर नेहा का दिल डूब गया, मतलब अब मुहर लग गयी थी?

फिर अचानक लड़के की दीदी ने उसे जोर देकर नेहा से बात कर लेने को कहा। इस बार लड़का राजी हो गया और दोनों अंदर कमरे में चले गए।
आकाश ने नेहा को साफ शब्दों में अपने दिल की बात बतायी कि वो यहाँ शादी करने के लिए आया है और उसे नेहा से कुछ नहीं पूछना, और फिर उसने नेहा की राय जाननी चाही।
नेहा सर झुकाकर बैठी थी। इस मोड़ पर आकर क्या उसके पास कोई रास्ता था?
"आकाश, आप मेरी राय जानना चाहते हैं?"
"हाँ, खुलकर बताओ। शर्माओ मत।" आकाश को अंदेशा हो गया था।
"मैं अभी शादी के लिए तैयार नहीं हूँ। मुझे अभी वक्त चाहिए।"
"बोलो न। कितना वक्त चाहिए?"आकाश सुन रहा था।
"पता नहीं।"
"तुम ये शादी नहीं करना चाहती न?" आकाश ने सीधे शब्दों में पूछा।
नेहा और नहीं टाल सकी "हाँ आकाश, मैं इस शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं। आप बहुत अच्छे लड़के हwx और मुझे बहुत खराब लग रहा है यह सब कहते हुए, लेकिन ये सच है।"
"तो फिर आपने घरवालों को क्यों नहीं बताया? अगर मुझे पहले पता चल जाता तो ये सब इतना लम्बा नहीं खींचता न।"
"मैंने बताने की बहुत कोशिश की थी, पर आप इतने अच्छे लड़के हो इसलिए किसी ने मेरी एक न सुनी।"
"कोई बात नहीं नेहा, मैं समझ सकता हूँ, हम लोग लड़कियों को बोलने का मौका ही कहाँ देते हैं। मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है, आप चाहें तो मैं खुद बाहर जाकर ना कर दूँगा, ताकि कोई आपसे सवाल न पूछे।"
नेहा का मन हल्का हो रहा था। कुछ क्षण के लिए मौन छा गया।

"इतनी जल्दी बाहर चले जायेंगे तो लोगों को शक हो जाएगा, थोड़ी देर और बैठना पड़ेगा।" आकाश सही कह रहा था। अब वे दोनों थोड़े हलके मूड में आ गए थे।
"वैसे बुरा न मानो तो मैं पूछ सकता हूँ आपको वक्त किसलिए चाहिए था?"
"मेरा अभी जॉब लगा है, अभी मुझे हायर स्टडीज की तैयारी भी करनी है, फिर दो साल और पढ़ना होगा। बस यही सब।"
"हाँ इतना वक्त तो मैं तुम्हें नहीं दे सकता!" दोनों हँसने लगे।
"लेकिन फिर भी, बुरा मत मानना, ऐसे ही पूछ रहा हूँ, हायर स्टडीज तो वहाँ भी हो सकती हैं न, और वहाँ तो ज्यादा अच्छे कॉलेज हैं, लोग यहाँ से पढ़ने जाते हैं।" आकाश ने बहुत सही सवाल किया था।
नेहा कुछ पल खामोश रही, फिर दृढ़ता से बोली।
"मुझे यहीं की यूनिवर्सिटीज से पढ़ना है, वही मेरा सपना है। मैं बाहर नहीं जाना चाहती।"
"कोई बात नहीं, हम लोग अभी कुछ नहीं कहेंगे, पर घर जाकर मैं मना कर दूँगा, ठीक है?"
नेहा ने हामी भरी। मन ही मन उसका शुक्रिया अदा कर रही थी।
"लेकिन आपने मुझे बहुत अजीब जगह पर खड़ा कर दिया है।" आकाश आरामकुर्सी पर लेट गया था, दार्शनिक अंदाज में, खुद अपना ही उपहास करते हुए । "मैं मना कर दूँगा पर कारण क्या बताऊँगा!"
नेहा के माथे पर लकीरें देखकर वो हँसने लगा "तुम चिंता मत करो मैं सम्भाल लूँगा। अब जो होगा देखा जायेगा।"

अजीब सा पल था, बाहर लोग उनकी हँसी सुनकर समझ रहे थे कि अंदर सब ठीक चल रहा है, और अंदर उनकी कहानी का अंत बदला जा चुका था। उनकी निश्चिंत हँसी के पीछे छुपी थी जल्द ही खुलने वाले सच की चिंता, जिन्दगी की कटुता का सामना करने से पहले लिए गए सिगरेट के कश की तरह।

लेकिन यह कड़वा घूँट तो पीना था, यह दर्द तो सहना था, ये हाथों की लकीरें बदलने से उठ रहा दर्द, नयी कहानी के सृजन का दर्द। सृजन और दर्द तो एक ही सिक्के के दो पहलू थे, यही तो प्रकृति का नियम था। यह भी एक दौर है जो गुजर जाएगा, नेहा सोच रही थी।

वो दौर गुजरा, और बहुत दर्द देकर गुजरा। आकाश अधिक वक्त तक नहीं छुपा पाया था, और रास्ते में ही घरवालों ने उससे उगलवा लिया था। सब हतप्रभ थे। ये तो उम्मीद से बाहर की चीज हो गयी थी। उनके राजकुमार को एक लड़की ने रिजेक्ट कर दिया था। क्या जमाना सचमुच बदल गया था। क्या एक अच्छे खासे एन.आर.आई. को यों ही रिजेक्ट किया जा सकता था?

उन्होंने तुरंत नेहा के भैया भाभी को फोन लगाया और माजरा बताया। भैया भाभी के काटो तो खून नहीं।
दोनों सर पकड़कर बैठ गए थे। अब कुछ नहीं हो सकता था। नेहा काँप रही थी, पर अपने निश्चय पर दृढ़ थी और वापस जाने की तैयारी में जुट गयी थी। पता नहीं आगे क्या होगा, पर आज उसने हाथों की लकीरें बदलने की हिम्मत की थी। लगता था जैसे खुद भगवान आकर उसके सर पर बैठ गए थे और उसे हिम्मत दिला रहे थे। वर्ना आज जो हुआ वो एक आम आदमी की करामात नहीं थी।

हर तूफान कुछ वक्त के लिए उठता है, फिर ठंडा पड़ जाता है। नेहा की जिन्दगी से भी वह दौर धीरे धीरे गुजर गया। आकाश ने लाइन में अगली लड़की से शादी कर ली थी और बाहर चला गया था। उसने नेहा को मेल भी किया था और उज्जवल भविष्य की कामना की थी। नेहा सोच रही थी, हर रिश्ते की वही परिणिति तो जरूरी नहीं जो हम चाहते हैं, ये भी तो एक रिश्ता है, दोस्ती का। ये भी तो एक तरीका है दिल को छू लेने का। क्या वो जिन्दगी भर भूल पायेगी इस नन्हीं सी नाव को जो निकली तो थी उसे साथ लेकर चलने को पर जिसने उसे तूफान पार कराया।

और उसके बाद नेहा ने सबसे पहला काम ये किया कि जितने रिश्ते आये थे उनमें से अपने शहर में रहने वालों को छाँटा, उनसे मुलाकात की, वक्त गुजारा, और सही लड़का चुनकर सदा के लिए अपने देश में रहने का वीसा बना दिया! उसके पति के आदर्श भी उसकी तरह मिट्टी से जुड़े थे, और दोनों मिलकर अपने परिवारों का बहुत ध्यान रखते थे। त्योहारों से लेकर हर छोटे बड़े मौकों पर शरीक होते थे। इसी जिन्दगी की तो कल्पना की थी नेहा ने। वक्त के साथ उसका परिवार भी उसके फैसले का सम्मान करने लगा था। आकाश से फिर कोई संपर्क नहीं हुआ, और वक्त का तकाजा भी यही था, लेकिन मन के एक कोने में उसके लिए आदर और सम्मान की भावना हमेशा के लिए बस गयी थी।

और उस दिन १५ अगस्त को जब चपरासी पूरे विभाग में लड्डू बाँट रहा था तो नेहा ने दो दो उठा लिए थे।
"अरे मैडम आप को तो लड्डू पसंद ही नहीं!"
'ये स्पेशल हैं, इनके लिए मैंने बहुत मेहनत की है। "
"आपने कब मेहनत कर ली? वो तो गाँधीजी ने और भगत सिंह इन लोगों ने की थी? "
"उन्होंने आजादी के लिए की थी, मैंने आजादी के लड्डू इस कुर्सी पर बैठकर खाने के लिए!"

 २७ जनवरी २०१४

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