गाड़ी आधा घंटा लेट आई... यानी साढ़े सात बजे।
इससे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि न तो मैं इंटरव्यू
देने जा रहा था और न तार पाकर किसी मरणासन्न रिश्तेदार से
मिलने। साधारण यात्रा थी, देर-सवेर सब चलेगा।
मेरा बर्थ नंबर सात था। दरवाजे के पास वाली नीचे की सीट। आठ
नंबर मेरे ऊपर था एवं एक से छः नंबर सामने के लेडीज केबिन के
भीतर। सचमुच ऐसे केबिन किसी एक परिवार या जनाना सवारियों के
लिए निरापद तथा आरामदायक होते हैं। अंदर से सिटकनी बंद करो और
रात भर सुख की नींद सोओ, घर जैसा।
एक नजर ध्यान से देखने पर केबिन में बैठे लोग मुझे एक ही
परिवार के लगे। एक वृद्धा। दो लड़कियाँ- किशोर वय की। जरूर
बहनें होंगी। क्योंकि दोनों के कपडें ही नहीं, नाक-नक्श भी एक
जैसे थे। एक लड़का भी था सात-आठ साल का तथा एक वृद्ध, जिनकी
दाईं आँख पर छोटा-सा हरा पर्दा लगा था, एक युवती- गोरी, स्वस्थ
एवं सुंदर।
मेरे ऊपर की बर्थ खाली थी, लेकिन बगल वाले बर्थ पर एक काली
जवान औरत दो बच्चों के साथ बैठी थी। लड़का आठ-नौ साल का होगा और
लड़की चार-पाँच साल की। जरूर ऊपर की बर्थ भी उसी की होगी,
क्योंकि लड़का कभी ऊपर जाकर बैठता कभी नीचे। ऊपर होल्डाल बिछा
था और एक लाल रंग की बड़ी सी अटैची रखी थी।
मैंने अपनी बर्थ पर बेडशीट बिछाई और फूँक से तकिया फुला कर रख
दिया। उसके बाद पैंट-शर्ट बदल कर लुंगी-कुरता पहना और अटैची को
सीट के नीचे करके चेन-ताला डाल कर निश्चिंत हो गया। फिर यूँ ही
डिब्बे के दूसरे किनारे तक का चक्कर लगाकर अपनी जगह आ बैठा।
मेरा मन बातचीत करने को हो रहा था। लेकिन किससे करूँ? एक-दो
पत्रिकाएँ तो पास में थीं, मगर पढ़ने की जरा भी इच्छा नहीं हो
रही थी, इसलिए सिगरेट जलाकर चुपचाप बाहर ताकने लगा।
मेरे ऊपर की बर्थ का यात्री भी आ गया। वह लगभग पैंतालिस की
उम्र का होगा। लम्बा-तगड़ा शरीर। कीमती पैंट-शर्ट। दाएँ हाथ की
चार उँगलियों में नगीना जड़ी महँगी अँगूठियाँ। बर्थ पर बिस्तर
लगा और सामान सहेज कर वह मेरे पास ही बैठ गया। और बातों का
सिलसिला शुरू करने की नीयत से बताया कि अपने एक संबंधी से
मिलने वह दोपहर की गाड़ी से यहाँ आ गया था।
वह पुलिस इंस्पेक्टर था और इस वक्त अपने छोटे भाई के पास से
माँ को लाने जा रहा था। मैं एक सांध्य दैनिक में उप संपादक
हूँ, जानकर उसने खुशी जाहिर की।
साढ़े आठ बजे हमने खाना खाया। इंस्पेक्टर भी हमारे पास ही खाने
का डिब्बा ले आया था। वह खीर-पूड़ी तथा आलूदम लाया था। मैं सफर
में हमेशा सादा भोजन लेकर चलता हूँ। मीठा दही-रोटी बस। बगल
वाली तथा केबिन वाली युवती अपने साथ ढेर से एवं कई तरह के
व्यंजन लेकर आई थी। रसगुल्ले, दहीबड़े, बेसन युक्त मसालेदार
पूड़ियाँ, पुलाव वगैरह। हम दोनों को भी मना करने के बावजूद हाथ
खोल कर बाँटे। पिकनिक पार्टी हो गई हमारी। मजा आ गया। वाह! अगर
ऐसे सहयात्री मिल जाएँ तो किसी की यात्रा कठिन हो ही नहीं
सकती।
रात के साढ़े दस हो रहे थे।
बगल की सीट वाली औरत अपनी बेटी के साथ लेटी थी और लड़का ऊपर की
बर्थ पर सो चुका था। केबिन वाली युवती अभी बैठी हुई थी तथा बगल
में उसका बेटा सो चुका था। नीचे की दूसरी बर्थ पर मामा जी सोए
थे। उनके ऊपर की बीच वाली बर्थ पर सास सोई थी। ऊपर की दोनों ओर
की बर्थों पर ननदें सोई थीं। बीच वाली एक बर्थ उठाई नहीं गई
थी। इंस्पेक्टर अभी भी मेरे पास ही बैठा था और रह-रहकर हम
दोनों में एक-दो बातें हो जाया करती थीं। लगभग पूरा डिब्बा
खामोशी के आलम में डूब चुका था।
इंस्पेक्टर से चुपचाप बैठा नहीं गया शायद इसलिए वह अपनी ड्यूटी
का एक जोरदार किस्सा सुनाने लगा था कि कैसे उसने एक फरार
खतरनाक मुजरिम को अचानक मुलाकात होने पर दौड़ कर पकड़ लिया था।
उसने गर्व से बताया कि उसके हाथों में चाकू होते हुए भी कैसे
उसे उठा कर पटक दिया और जमकर ठुकाई कर दी। हालाँकि ऐसा करते
हुए चाकू से दाएँ कंधे पर हल्का सा जख्म लग गया था जो कानून की
रक्षा करने जैसे बड़े काम को देखते हुए कोई माने नहीं रखता। फिर
उसने पुलिसिया रोब तथा अकड़ के साथ कहा- मजाल है मेरे सामने कोई
लफंगा ऐसी-वैसी हरकत कर जाए, चीर कर रख दूँ स्साले को।
उसकी जवाँमर्दी से उत्साहित होकर मैंने भी अपनी निडरता एवं
समाजसेवा का एक नमूना पेश किया कि कैसे मैंने अपने शहर के एक
खूँखार बदमाश के बारे में लगातार लिख-लिख कर सरकार को उसे
पकड़ने पर मजबूर कर दिया था। उस हरामी ने एक-दो बार मुझे गोली
से उड़ा देने की धमकी भी दी थी, मगर मैं, अगर पत्रकार अपनी जान
की परवाह करने लगें तो क्या खाक पत्रकारिता करेंगे?
केबिन वाली युवती हमारी दिलेरी की कहानी बड़े ध्यान से सुन रही
थी। उस पर प्रभाव भी पड़ा था, इसलिए हमें दाद देती हुई गंभीरता
से बोली, 'आप लोगों जैसे हिम्मत वालों की वजह से ही शरीफ
आदमियों की इज्जत बची है भाई साहब, नहीं तो...'
सुन कर हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई और गर्व भी।
मैं सोया नहीं था, सिर्फ लेटा हुआ था। युवती भी इस तरफ ही सिर
करके लेटी थी। लेटने के पहले उसने दरवाजा बंद करना चाहा तो पता
चला कि पल्ला गायब है 'लो, यह भी अच्छी रही' एक खीझ भरी फीकी
हँसी तैर गई थी उसके होठों पर। ऊपर बर्थ पर इंस्पेक्टर भी पसर
चुका था। पूरा डिब्बा सोए-अधसोए की स्थिति में था।
दो मिनट होते न होते गाड़ी खुल गई और उसी समय दूसरे किनारे से
कोई चिल्लाता हुआ डिब्बे में घुसा तथा एकाध मिनट टी.टी.आई. से
उलझने के पश्चात जोर-जोर से अंड-बंड बकता, दाएँ-बाएँ देखता
चौथे केबिन के पास रुक गया। शायद उसमें जगह खाली थी। उसने दाएँ
हाथ में पकड़ी भूरी अटैची को ऊपर बर्थ पर फेंका और नथुने फुला
कर इस किनारे तक ताकने के बाद दोनों बाहों को डैने की तरह थोड़ा
उठाते हुए गरजा, 'हत स्साला, गोली मार देंगे। हमारा नाम
बीरेंदर बाबू है।'
उसके साथ दो व्यक्ति और थे। एक ब्रीफकेस वाला गोरा-गंजा अधेड़,
दूसरा गले में गमछा लपेटे पैंट-शर्ट वाला मुच्छड़। वे दोनों भी
अपने लिए बर्थ कब्जियाने लगे।
उसकी यह हरकत इतनी बेहूदा तथा हंगामापूर्ण थी कि डिब्बे के
अधिकांश सोए-अधसोए यात्रियों की आँखें खुल गईं। मैं उठकर बैठ
गया तो देखा केबिन वाली युवती भी सँभल कर बैठ रही है। ऊपर से
उतर कर इंस्पेक्टर भी मेरी बगल में आ बैठा। कौन हल्ला मचा रहा
है, स्साला?
'सुनिए भाई साहब!' तभी टी.टी.ई. ने उस आदमी के कंधे पर पीछे से
उँगली की थपकी दी, 'मैंने बताया था न आपको, इस डिब्बे में कोई
बर्थ खाली नहीं है। सभी कोटे की सीट हैं और अगले स्टेशनों पर
इनके अगले पैसेंजर आएँगे।
'अरे, जब हम बैठ गए तो कौन पैसेंजर आएगा यहाँ? स्साले को गोली
मार देंगे।' वह आदमी अजीब तरह से झूम कर बोला। लगता था उसने
दारू पी रखी थी और नशा उसके सिर पर चढ़ कर बोल रहा था।
'ओफ्फोह ! आप तो खामखाँ जबर्दस्ती कर रहे हैं साहब। मैं ...
मगर टी.टी.ई. को वाक्य पूरा करने का मौका न देकर वह बीच में
चिल्लाते हुए बोल पड़ा, 'हाँ, जबर्दस्ती कर रहे हैं, बोलिए का
कीजिएगा? अरे, हमारा नाम वीरेंदर बाबू है। पेशकार हैं हम।
जाइए, केसे-मुकदमा न कीजिएगा। कीजिए। हमारे साथ में वकील साहब
भी हैं जो रोजे इक ठो मोकदमा लड़ते हैं।'
'आप भी कमाल करते हैं साहब। मैं क्या कहना चाह रहा हूँ और
आप...'टी.टी.ई. चिढ़ते हुए बोला, 'मैं सिर्फ ये कह रहा हूँ कि
आखिरी तीनों केबिनों में लोकल पैसेंजर बैठे हुए हैं जो पटना
जंक्शन में उतर जाएँगे। वहीं आप भी डिब्बा बदल लीजिएगा, बस।'
'अच्छा। मुझे कोई भुच्च-गँवार समझे हैं कि आपका आर्डर हुआ और
धोती खोल कर भाग जाएँगे? एकदम नहीं। अरे, एक दफे बताए तो दिमाग
में नहीं अंटा कुछ ? हमरा नाम वीरेंदर बाबू है पेशकार हैं हम।
सुन रहे हैं न?...' उस आदमी ने अक्खड़पन से धौंस जमाते हुए कहा,
'देखिए, हमको बनारस जाना है और मोगलसराय तक हम इसी बोगी में
जाएँगे। और अब आप भचर-भचर करना बंद कीजिए, काहे कि आपको इधरे
ड्यूटी करना है। दूसरी बात यह है कि हमरा घर भी इधरे है, अगर
मेरा माथा ज्यादा खराब हुआ न, तो जानते हैं का होगा? एक दिन दस
ठो नौजवान को लेकर आएँगे और आपको चलती गाड़ी से बाहर.... बस,
किस्सा खतम। हमको कौन का कर सकता है? 'धमकी' खुले आम जान से
मार देने की धमकी। टी.टी.आई. ने सपने में भी सोचा न था कि कोई
इस तरह बिना झिझक, बिना डर उसे खत्म कर देने की धमकी दे सकता
है? वह हक्का-बक्का सा कुछ क्षण तक उसका मुँह देखता रह गया,
फिर गुस्से से 'चुप रहिए, फालतू बात मत कीजिए' बोलता हुआ अपनी
सीट की तरफ चला गया।
वह आदमी कुछ देर कल्ला भींचे खड़ा रहा फिर जैसे प्रतिद्वंद्वी
को अखाड़े से हरा कर भगा दिया हो इस तरह इतरा कर चिल्लाया,
'हैत्त साला गोली मार देंगे। हमारा नाम वीरेंदर बाबू है।' उसके
बाद केबिन की तरफ मुँह करके बोला, 'सब ठीक है न वकील बाबू? उफ
बाप रे, इत्ता गरमी!' तब पहले कुरता फिर पजामा खोल कर ऊपर की
बर्थ पर फेंकने के बाद 'स्साला बाथरूम किधर है?' कहता वह इधर
ही जाने लगा।
उसके बदन पर अब काले रंग का रेडीमेड जाँघिया ही बच रहा था।
बनियान पहले से नहीं थी। इस तरह उसका एक लगभग नंगा रूप नमूदार
हो गया था। हल्की तोंद वाला गोरा बदन। सीने पर काले-काले घने
बाल। कटी-छंटी चौड़ी मूँछें और होंठों के दोनों किनारों से बहती
पान की पीक। तिस पर फूले पपोटे वाली बड़ी-बड़ी नशे में मत्त
आँखें। ...कुल मिलाकर वीभत्स तथा डरावना आकार।
वह दोनों हाथों से दोनों तरफ की बर्थों का सहारा लेता और
बर्थों पर लेटे लोगों पर कमीनी नजरें फेंकता हमारे सामने आकर
रुक गया। क्षणांश तक मुझे तथा इंस्पेक्टर को लाल-लाल आँखों से
घूरा, फिर केबिन के नीचे-ऊपर झाँकने के बाद युवती पर दृष्टि
जमा कर जोर से 'हैत्त स्साला, गोली मार देंगे। हमरा नाम
वीरेंदर बाबू है।' कहता निकला और संडास के बंद दरवाजे पर ही
पेशाब करने लगा।
उसके एक बार यहाँ से गुजरने से ही शराब की तेज बदबू फैल गई थी,
जैसे किसी ने आस-पास दारू फैला दिया हो।
जब वह उधर से लौटा तो जाँघिये का सामने का हिस्सा ठीक से चढ़ा
नहीं था। वह हमारे पास आकर पुनः ठिठका। हम दोनों को लपलपाती
दृष्टि से ताका, फिर युवती को देखते हुए 'हैत्त स्साला, गोली
मार देंगे। हमरा नाम वीरेंदर बाबू है।' बोल कर आगे बढ़ गया।
उसकी बेपर्दगी तथा फूहड़पन देख कर युवती का चेहरा क्रोध व शर्म
से आरक्त हो उठा। दरवाजा होता तो बंद करके कमीने की बेहूदगी
तथा नंगई से महफूज हुआ जा सकता था, लेकिन ऐसे में...। निराशा
तथा खीझ के मारे होंठों में ही कुछ बुदबुदा कर वह थोड़ा ज्यादा
सावधान होकर बैठ गई।
'स्साला, हमारा एरिया नहीं है वरना जूता मार-मारकर इसकी सारी
नंगई भुलवा देता। हरामी, रंडी का बच्चा।' इंस्पेक्टर गुस्से से
चेहरा विकृत करते हुए बड़बड़ाया।
'समाज का कोढ़ है कमीना। ...ऐसे आदमी को देख कर तो मेरा खून
खौलने लगता है। लेकिन क्या करूँ? ट्रेन है न...।' मैंने भी
संजीदगी से अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए कहा। हमारे क्रोध भरे
उद्गार सुनकर युवती ने बारी-बारी से हम दोनों के चेहरे देखे,
फिर दृष्टि झुका ली। यह समझना कठिन था कि हमारी बातों को उसने
किस रूप में लिया- मजबूरी, बहाना या भीरुपन। बगल वाली सीट पर
सोई औरत इसी दरम्यान उठकर ऊपर की बर्थ पर जा बैठी थी। सुरक्षा
के ख्याल ये यही उपयुक्त लगा था उसे।
वह आदमी अपनी जगह पर बैठा नहीं, बल्कि खड़े-खड़े ऊल-जलूल बकता
रहा और दो- तीन मिनट बाद ही 'हैत्त स्साला, गोली मार देंगे' की
गर्जना करके इस ओर चल पड़ा। हमारे सामने रुका तथा युवती को पैनी
निगाहों से ताकते हुए 'चौप्प, गोली मार देंगे,' बोल कर संडास
तक चला गया। वहाँ बेमतलब संडास के दरवाजे पर दो लात जमायी। पिच
से पीक थूका। लौटा और युवती को घूर कर 'हैत्त स्साला, मसल कर
रख देंगे' कहता आगे निकल गया।
विचित्र रंगदारी थी। ...अजीब उद्दंडता। युवती ने अंदरूनी
गुस्से से कसमसा कर इधर-उधर देखा। उसकी सास, पति के मामा जी
तथा दोनों ननदों की नींद भी खुल चुकी थी और वे भौंचक्के से
ताकने लगे थे। सिर्फ लड़का इस हंगामे से बेखबर अपने सपनों में
गर्क था।
अब तक डिब्बे के, गहरी निद्रा में सोए मुसाफिर भी जग चुके थे
और झाँक-झाँक कर उस आदमी की बदमाशी देख रहे थे, जो खामखाँ सबों
की नींद खराब किए दे रहा था। परंतु किसी ने विरोध में कुछ कहने
की जरूरत नहीं समझी। या अन्याय होते देख कर भी खामोश रहने की
परंपरागत भारतीय प्रवृत्ति की वजह से सब चुप रहे या वे गोली
मार देने की धमकी से भयभीत होकर मौन थे।
आवाज तो हम दोनों की भी बंद थी।
शायद सबों की तरह डर मेरे अंदर भी कहीं दुबक कर बैठा था और
इंस्पेक्टर के भीतर भी। वह आदमी एक खतरनाक आतंकवादी की तरह
डिब्बे की दुनिया पर हावी हो चुका था।
मगर इस बार जब वह लौट कर अपने केबिन के पास खड़ा हुआ तो गैलरी
की ऊपरी बर्थ पर लेटा युवक अचानक आजिजी तथा गुस्से से बोल पड़ा,
'आप अपनी सीट पर आराम से क्यों नहीं बैठते भाई साहब। बेमतलब
हल्ला-गुल्ला मचा कर लोगों की नींद खराब कर रहे हैं। देख भी
रहे हैं कि डिब्बे में जनाना सवारियाँ मौजूद हैं, फिर भी
जाँघिया पहन कर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ नाच रहे हैं।'
'का बोला रे, हम नाच रहे हैं? कमीना... सूअर का बच्चा ... वकील
साहब, तनी दीजिए तो पिस्तौलवा... दागिये दें स्साले को।...
निकालिए। इसको... कुत्ता स्साला। चमड़ी खींच लेते हैं अभी...
ठहर।' और इसके साथ ही वह चप्पल उठा कर पड़ापड़ मारने लगा युवक
को। 'का हुआ वीरेंदर बाबू?' केबिन से वही अधेड़ व्यक्ति बाहर
निकल आया, साथ में मुच्छड़ भी और बाहर का नाटक देख वे दोनों भी
युवक पर थप्पड़-घूसा बरसाने लगे, 'स्साला दोगला, राँड़-रोहिया
समझा है रे?'
इस आकस्मिक चप्पल-थप्पड़-घूसों की बौछार से युवक बिलकुल घबरा
गया और दोनों हाथों पर वार को भरसक रोकते हुए मदद माँगती
निगाहों से इधर-उधर ताकने लगा। लेकिन किसी को जानबूझ कर ऊखल
में सिर डालने की हिम्मत नहीं हुई। उसी समय टी.टी. आई. लपक कर
वहाँ आया।
'यह क्या झमेला खड़ा कर दिया साहब आप लोगों ने? जगह तो मिल गई
है न, चलिए बैठिए अपनी सीट पर। हटिए यहाँ से। टी.टी.आई. के
बीच-बचाव करने से आसपास के दूसरे यात्रियों को भी साहस आया और
वे भी चिरौरी करने में जुट गये, 'हाँ, हाँ, छोड़ दीजिए साहब।
गलती से बोल गया बेचारा, माफी दे दीजिए।'
वकील तथा मुच्छड़ शांत होकर अपनी जगह पर जा बैठे, लेकिन वह आदमी
वहीं खड़ें होकर शेखी से यात्रियों पर नजरें दौड़ाने लगा जैसे
शेर शिकार करने के बाद चुनौतीपूर्ण गर्व भरी दृष्टि से इधर-उधर
देखता है।
तभी गाड़ी की रफ्तार धीमी होने लगी और कुछ ही देर बाद
प्लेटफार्म पर आ लगी। जक्शन आ गया था। लोगों की चिल्ल-पों मची
हुई थी। खिड़की से युवती ने देखा कि वह अधेड़ आदमी और मुच्छड़
गाड़ी रुकते ही बिना उस आदमी को बताए उतर पड़े थे। उसने सोचा-
चलो दो शैतानों से तो मुक्ति मिली। डिब्बे के यात्रियों को
पूरी उम्मीद थी कि यहाँ टी.टी.आई. स्टेशन मास्टर से उस आदमी की
गुंडागर्दी की शिकायत करके उस पर कानूनी कार्रवाई करवाने की
कोशिश जरूर करेगा या कम से कम उसे डिब्बे से निश्चय ही उतरवा
देगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह तो आराम से अपनी सीट पर ही
बैठा रहा। जरूर उस आदमी की चलती गाड़ी से उठाकर फेंक देने की
धमकी ने उसके हाथ-पाँव ठंडे कर दिए थे। यह अस्वाभाविक भी नहीं
था। क्योंकि जिस तरह आजकल ट्रेन में हत्या, डकैती, राहजनी,
अपहरण जैसे अपराध कर्म बे-रोक-टोक जारी थे, उसे देखते हुए
प्रतिदिन सफर वाली ड्यूटी करने वाला कोई व्यक्ति किसी गुंडा
तत्व से दुश्मनी मोल लेने की मूर्खता कैसे कर सकता था?
गाड़ी खुलने के दो-चार मिनट बाद तक वह आदमी अपनी जगह पर ही डटा
रहा, फिर अचानक गैलरी से निकल कर भद्दी सी अँगड़ाई ले जोर से
चिल्लाया- मदद। ... जैसे काले नाग ने डँसने के पहले फूत्कार
मारा हो- फों ऽ ऽ।
उसने दाएँ-बाएँ गर्दन घुमा कर गैलरी में दोनों तरफ देखा। नथुने
फुला कर श्वास खींचा और जोर से 'हैत्त स्साला, गोली मार देंगे।
हमरा नाम वीरेंदर बाबू है।' चिल्ला कर उस किनारे तक गया, फिर
तुरंत ही दाएँ-बाएँ नजरें दौड़ाता इस तरफ आने लगा। लेकिन इस दफे
वह कहीं रुका नहीं। सीधे जाकर दोनों संडासों के बीच चहलकदमी
करने लगा। किंतु यह तो महज दिखावा था। कब तक ऐसा करता? शीघ्र
ही वह अपनी असलियत पर आ गया और हमारे सामने खड़े हो केबिन की
ऊपरी बर्थ पर दृष्टि फेंक, बदन को ऐंठते हुए विचित्र अंदाज में
गरज उठा, 'हैत्त स्साले गोली मार देंगे। हमरा नाम वीरेंदर बाबू
है।'
उधर लेटी दोनों लड़कियाँ हड़बड़ा कर उठ बैठीं। उन्हें शक हुआ कि
अब यह आदमी कोई शरारत करेगा। लेकिन नहीं, वह तो तत्क्षण ही
युवती का मुँह देखने लगा और अचानक होंठों को थोड़ा आगे निकाल
'फुर्रर्र' करके चलता बना। उसके ‘फुर्रर्र’ करने से पीक मिले
थूक के बारीक छींटे युवती के चेहरे पर फैल गए। आवेश तथा अपमान
से वह काँप उठी। फिर एक नजर हम दोनों की ओर देखा। लेकिन शायद
हमारे चेहरे पर मदद न कर पाने की विवशता भाँप कर चुपचाप उठी और
बाशबेसिन पर मुँह-आँख धो आई।
'स्साला, ऐसा नीच आदमी हमने आज तक नहीं देखा। शर्म आती है
मुझे।' बोल कर इंस्पेक्टर ऊपर की बर्थ पर जा लेटा।
‘दरवाजा बंद कर लो भाभी, वह फिर आएगा’ दोनों ननदें लगभग एक साथ
बोल पड़ीं।
‘दरवाजा होता तो शुरू में ही बंद नहीं कर लेती। कोई चीज
ठीक-ठाक रहने देते हैं लोग?’ युवती ने उन दोनों की ओर ताकते
हुए बेबसी से कहा। सास तथा मामा जी भी उठ बैठे थे। सास ने
हिदायत देते हुए कहा, ‘तुम अंदर की तरफ आकर बैठ जाओ बहू,
गुंडों का क्या भरोसा?’
सुन कर युवती चंद सेकेंड कुछ विचारती रही, फिर दृढ़ स्वर में
मना करते हुए बोली, ‘नहीं माँ जी, यहीं बैठना ठीक है।’
अजीब जटिल समस्या मुँह बाये सामने आकर राक्षसी की भाँति खड़ी हो
गई थी। पूरे डिब्बे में आतंक भरा सन्नाटा इस छोर से उस छोर तक
पसरा हुआ था। उस आदमी के हाथ में पिस्तौल नहीं था, लेकिन उसके
मुँह से बार-बार निकलता गाली शब्द का डर लोगों के खून में मिल
कर बहने लगा था, साथ ही उस युवक की निर्मम पिटाई का असर भी
सबों के दिलों-दिमाग पर छाया था। इसलिए लोग ‘जिस पर पड़े खुद
निपटे’ या ‘चुपचाप अपना सफर पूरा करो’ की भावना को अपना कर
मुँह छिपा रहे थे।
इस बार लौट कर वह आदमी अपने केबिन में जा घुसा और पंद्रह-बीस
मिनट तक बाहर नहीं आया तो हमने अनुमान लगाया कि वह जरूर नशे के
झोंक में सो गया होगा और अब डिब्बे में शांति का वातावरण बन
जाएगा। शायद दूसरे यात्रियों ने भी ऐसा ही कुछ सोचा होगा और
उसकी बेहूदगी से पिंड छूटने के आसार देख आश्वस्त होकर सोने की
कोशिश करने लगे।
किन्तु हमारा सोचना एकदम भ्रम साबित हुआ, क्योंकि वह आदमी
अचानक पुनः अपने केबिन से बाहर आ खड़ा हुआ था जैसे कोई राक्षस
अपनी गुफा से निकल आया हो। उसने सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए पूरी
गैलरी में नजरें दौड़ाईं और पहले की तरह गरजा, ‘हैत्त स्साला,
गोली मार देंगे। हमरा नाम वीरेंदर बाबू है’। अपनी-अपनी जगह पर
पसरे यात्री चौंके, किंचित हिले-डुले, फिर मन ही मन यह मानते
हुए स्थिर हो पड़े रहे कि अब यह रात इसी तरह काँटों की सेज पर
गुजारनी है। अपमान सहते। करवटें बदलते।
वह इस तरफ आने लगा। होंठों में कुछ बुदबुदाता और बदतमीजी से
चलता। इस बार भी वह मेरे सामने नहीं रुका, और न चिल्लाया ही।
लेकिन चलते हुए ही युवती के चेहरे पर ढेर सारा धुआँ छोड़ गया।
वह बौखला कर दोनों हाथों से धुएँ को तितर-बितर करने लगी। उसकी
दोनों ननदें जो लेटी होने के बावजूद बिल्ली जैसी सतर्कता से
इधर ही ताक रही थीं, फौरन उठ कर बैठ गईं।
वह आदमी नल के पास जाकर सिगरेट का धुँआ उड़ाने लगा, फिर आखिरी
हिस्से को बाशबेसिन में फेंक जोर से थूक कर अकड़ता हुआ मेरे
सामने आकर ठहर गया।
उसका ठहरना आफत का पास आ खड़े होने जैसा लगा।
दोनों लड़कियाँ दूसरे किनारे की तरफ खिसक गईं, जिन्हें उसने खा
जानेवाली नजरों से देखा और तत्काल ही निर्लज्जता से युवती के
चेहरे को घूरते हुए ‘हैत्त स्साला, गोली मार देंगे। हमरा नाम
वीरेंदर बाबू है।’ की भयंकर घोषणा करते हुए पाँव आगे बढ़ाया।
तभी युवती एकबएक उठ खड़ी हुई और बिजली की रफ्तार से लड़के का
जूता उठा कर पीछे से उसकी गर्दन पर दे मारा। पटाक की जोरदार
आवाज हुई और ‘बाप रे’ कहता हुआ वह आदमी पीछे घूमा कि चटाक से
दूसरा वार उसके मुँह पर हुआ। प्रहार इतना सधा हुआ था कि वह
आदमी दोनों हथेलियों से अपना चेहरा थामने को बाध्य हो गया। ठीक
उसी समय बगलवाली ऊपरी बर्थ पर बैठी औरत लगभग कूद कर नीचे उतरी
और पीछे से दोनों मुट्ठी में उसके बालों को पकड़ कर जोर से खींच
लिया। इस आकस्मिक झटके को वह आदमी सँभाल न सका और उलटते-उलटते
गद्द से बैठ गया। फिर तो दोनों ने मिल कर उस पर जूतों-लातों की
बरसात कर दी।
यह बिल्कुल अप्रत्याशित घटना थी, जिसकी खबर बिजली की तेजी से
पूरे डिब्बे में फैल गई। देखते-देखते पूरी गैलरी भर गई और हर
कोई अपनी जगह से सिर निकाल-निकाल कर घटना को अपनी नजर से देखने
की कोशिश करने लगे। एक-दो औरतें किसी तरह दब घुसड़ कर वहाँ तक आ
पहुचीं थीं और उस आदमी पर हाथ साफ कर रही थीं।
....अंधाधुंध मार खाकर उस आदमी का नशा तथा रंगदारी हवा हो गई
थी और अब अपनी दयनीय
स्थिति
भाँप कर वह प्रहारों को दोनों हाथों से रोकते बचाते गिड़गिड़ा
रहा था, ‘बाबू हो....मार डाला हमको...माफी दे दीजिए बहन
जी....चरन छूते हैं...अगले स्टेशन पर उतर जाएँगे हम। छोड़ दीजिए
हमको....’।
कुछ यात्री दूर से ही उन लोगों की हौसला अफजाई कर रहे थे।
लेकिन अधिकांश पुरुषों की जबान तालू से चिपकी हुई थी। शायद वे
शर्मिंदगी तथा आंतरिक अपराध बोध से ग्रस्त थे, क्योंकि जो काम
उन्हें करना चाहिए था, उसे औरतें कर रही थीं। मेरी हालत तो ऐसी
हो गई थी जैसे आलपिन चुभा कर फुग्गे की हवा निकाल दी गई हो।
निश्चय ही यही हाल इंस्पेक्टर को भी रहा होगा। |