नवगीत परिसंवाद-२०११ में
पढ़ा गया शोध-पत्र
नवगीत में राजनीति और व्यवस्था
-डॉ. विनय भदौरिया
आजादी के बाद सम्पूर्ण देश में नई चेतना का संचार हुआ।
यह चेतना आजादी का जश्न मनाने, देश को विकास के पथ पर
ले जाने, एवं खुली हवा में साँस लेने के एहसास से
पूरित थी। जागरुक रचनाकार सदैव वक्त की नब्ज टटोल कर,
युगीन प्रवृत्त्यिों को आत्मसात कर भावाभिव्यक्ति करते
हैं। जनमानस के उल्लास की अभिव्यक्ति गीत के नये
स्वरूप में हो रही थी। गीत का यह नया रूप आंचलिकता बोध
से प्रत्यक्ष हुआ। इन गीतों की भंगिमा पारम्परिक गीतों
से भिन्न थी। टटकी भाषा, नया शिल्प, कथ्य में ताजगी के
साथ सृजित इन गीतों को नये गीतों की संज्ञा से विभूषित
किया गया। कालान्तर में नवगीत के रूप में प्रतिष्ठा
मिली और अद्यतन नवगीत ही हिंदी गीति काव्य की प्रमुख
विधा है। उस काल खण्ड में सृजित कुछ गीतों की बानगी
प्रस्तुत है:-
रात पिया पिछवारे, पहरू ठनका किया
-केदार नाथ सिंह
फूल से सजाओ
मुझको फूल से सजाओ , माथे पर फूल धरो मेरे, माँ बलि
बलि जाओ
-ठाकुर प्रसाद सिंह
पुरवा जो डोल गई। घटा-घटा आँगन में जूड़े से खोल गई
या
गाँव की गुजरिया कहीं नाचे रे
-डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
मन का आकाश उड़ा जा रहा।
पुरवइया धीरे बहो
-डॉ. शम्भूनाथ सिंह
बल्कल ओढ़ री गुजरिया
अभी तेरी बारी उमरिया
-नीरज
किंतु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही। स्वतन्त्रता
जिस उद्देश्य के लिए प्राप्त हुई जननायक उससे विमुख
होने लगे। जनमानस की उत्सव धर्मिता पर तुषारापात होने
लगा क्योंकि राजनेताओं का चारित्रिक पतन प्रत्यक्ष
होने लगा। इस परिवर्तन का अनुभव नवगीतकारों में शिद्दत
से किया गया। नये-पुराने गीत अंक पाँच में प्रकाशित
डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया के यह विचार समीचीन हैं-
"नवगीत की समाई समकालीन प्रगतिशीलता में है और अब यही
इसकी तात्कालिक काव्यवस्तु का आधार है। वैसे प्रारम्भ
में यह नवता, आंचलिक बोध, प्रकृति प्रेम, सामूहिक जीवन
के उत्सव एवं उल्लास प्रियता से प्राप्त हुई थी किंतु
आजादी मिलने के डेढ़ दशक बाद ही राजनेताओं के चरित्र
स्खलन, लोकतान्त्रिक संस्थाओं सेवाओं की उद्देश्य
विमुखता छल-छद्म, कपट पूर्ण आचरण ने आदमी के अस्तित्व
एवं अस्मिता के संकेत को ऐसे विषैलेपन के साथ उघाड़ कर
रख दिया कि संवेदनशील गीतकारों ने पारम्परिक सौन्दर्य
बोध की अवधारणाओं को तोड़कर गीत की वस्तु, भाषा और
शिल्प की नई जमीन तैयार की है।" व्यवस्था पर चोट करती
ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
पहले ही चलना था मुश्किल अँधियारे में
तुमने और घुमाव ला दिया गलियारे में
-मुकुट बिहारी सरोज
दुर्गन्ध वातावरण में है, बदनामी पवन की होती है
बादल भी हुये हैं आवारा, मरुस्थल में ज्यादा बरसे हैं
माली महलों की ताक में हैं, बिरवा पानी को तरसे है
करतूतें काली हैं माली की, बदनामी चमन की होती है।
-शिवबहादुर सिंह भदौरिया
अधिकांश राजनेता सुविधा भोगी हो गये। जनता और देश सेवा
से विमुख अपने निजी स्वार्थों की सम्पूर्ति में संलग्न
हो गये। राजनेताओं के पतनोन्मुखता के कारण देश में
अव्यवस्था का फैलाव हर दिशा में होने लगा। फलतः
आतंकवाद, बेरोजगारी, भुखमरी, कुंठा, सन्त्रास, महँगाई,
जातिवाद, धर्मवार, क्षेत्रवाद आदि समस्याओं से देश घिर
गया। इन सभी समस्याओं को नवगीतों ने संजीदगी से लेकर
निर्भीकता से अभिव्यक्तिक तल परा उतारा। समाज व देश
में घटित हर घटना एवं परिवर्तन पर नवगीत की पैनी
दृष्टि कथ्य तथा भाषा, टटके बिम्बों, नये प्रतीकों के
माध्यम से निरन्तर प्रयासरत है कि नवगीत सहज
सम्प्रेष्य हो तो कि जिन के लिए सृजन हो रहा है बात उन
तक अवश्य पहुँचे। "साहित्य समाज का दर्पण है”यह उक्ति
आज भी प्रासंगिक है। ऐसे विकट समय में नवगीत का
दायित्व और भी बढ़ जाता है कि वह राजनेताओं के मुखौटे
उतार कर जनता के समक्ष प्रस्तुत करे क्योंकि गीत काव्य
की सबसे लोकप्रिय विधा है इसीलिए यह ज्यादा कारगर
सिद्ध हो सकती है। नवगीत निरन्तर अपने धर्म का निर्वाह
भी कर रहा है। शीर्ष पर पहुँची असंवेदनशीलता पर प्रहार
करती यह पंक्तियाँ दृष्टव्य है-
कंकरी क्या फेंकता हूँ रोज गुम्मे
किंतु जुम्बिश नहीं कोई झील में।
हर लहर दहशतजदा है
हाल पानी का लटा
ये समूचा वायुमंडल
लग रहा ज्यों जिभ कटा
फड़फड़ाता सिम्त कैलेन्डरनुमा
बँधा है अभिशप्त कोई कील में।
-डॉ. विनय सिंह भदौरिया
काव्य मंचों एवं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित नवगीतों
द्वारा निरन्तर प्रहार किये जा रहे हैं किंतु
सत्तासीनों एवं नौकरशाहों पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं
दिखाई पड़ रहा है। देश में हवाला, घोटाला, चीनी, चारा,
यूरिया काण्ड, टूजी स्पेक्ट्रम काण्ड आदि खुले आम हो
रहे हैं। यदि इनके काले कारनामों को उजागर करने का
प्रयत्न किया जाता है तो बाबा रामदेव की तरह अपमान
सहना पड़ता है या अन्ना हजारे की टीम को ध्वस्त करने का
यत्न सत्तासीनों द्वारा किया जाता है। राजनेताओं के
चरित्र और आचरणों को नवगीत द्वारा प्रतीकों एवं
बिम्बों के सटीक प्रयोगों से उजागर करने का प्रयत्न
सराहनीय है यथा-
आँखों पर काले चश्मे हैं, बातों में मस्ती
बदल रहे हर रोज मुखौटा, साँपों की बस्ती
-शीलेन्द्र चौहान
वही मछेरे जाल वही है, वही मछलियाँ ताल वही है
आश्वासन मंत्रों से झारें, नाराजी के भूत उतारें
धौंस जमाऊ रैली थैली, धूल उड़ाऊ जीपें कारें
नारे हथकंड़े हो हल्ले, अभी चुनावी चाल वही है
-शिवबहादुर सिंह भदौरिया
ये फणी अब आदमी के वेश में
संवेदना को डस रहे हैं
इन दिनों अक्सर धवल पोशाक में हैं
द्रोहियों का ले सहारा
कोटरों में बस रहे हैं
-विद्यानन्दन राजीव
अजब सभा है, अजब सभासद
राजा वही, वही है रानी, घुमा-फिराकर वही कहानी
वही मुसाहिबी, वही खुशामद
-सत्यनारायण
रावण वही नाम बदला है
लिखा-पढ़ा अगला पिछला है
-मधुकर अष्ठाना
अतुलनीय बलशाली गिरगिट
नये जमाने के
तोड़े सारे कीर्तिमान
इतिहास रचाने के
-शैलेन्द्र शर्मा
मुलजिम नहीं कतल के हो तो
फिर काहे के नेताजी
राजनीति की पहले वाली परिभाषाएँ बदल चुकीं
नैतिकता वाले जज्बे को पद लोलुपता निगल चुकी
माहिर नहीं दल बदल में तो
फिर काहे के नेता जी
-विनय भदौरिया
नये-नये करतब दिखलाती, आदि बन्दरों की औलादें
राजा के सिंहासन तक, ये अपनी पूँछ जगा लेंगी
तीखी चीख पुकार मचाकर, अच्छी भीड़ जुटा लेंगी
लोकतंत्र की डुगडुगियों पर, बस्ती-बस्ती कूदें फाँदें
-दिनेश सिंह
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि राजनेताओं का
चारित्रिक पतन किस कदर हुआ। पहले राजनेताओं ने कुर्सी
हथियाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाए तो अपराधियों ने
विचार किया कि मेरे बलबूते सत्ता पा रहे हैं तो वे
स्वयं हकदार बनने लगे तथा सौदेबाजी कर विधानसभाओं एवं
संसद तक पहुँचने लगे परिणामतः अपराधियों का राजनीतिकरण
हो गया तथा स्थिति यह बन गई है कि-
जो विधि के विध्वंसक वे, विधि के निर्माता हैं
जिनका कोई भाग्य नहीं वे, भाग्य विधाता हैं
-विनय भदौरिया
प्रजातान्त्रिक प्रणाली हास्यास्पद हो चुकी है यथा
मजेदार चल रहा आजकल, प्रजातन्त्र का खेल
लूले लँगड़े फाँद रहे हैं, ऊँचे-ऊँचे शैल
मक्खन बाजी से ही मक्खन, मिलता है अब ककुआ
-विनय भदौरिया
भैंस दुहे सब दुहनी लेकर, खड़े ताकते भकुआ
दस्यु सरगना संसद पहुँचे, भले आदमी जेल
-विनय भदौरिया
राजनेताओं द्वारा ऐसे घिनहे हथकंड़े अपनाये जाने लगे कि
चिन्तनशील, प्रतिभा सम्पन्न, नैतिकता एवं ईमानदारी से
जीने वाला बौद्धिक वर्ग राजनीति से किनारा करने लगा।
सत्ता सँभालने का पैमाना ही बदल गया। यथा-
अब किसको किससे मारोगे, तोड़ चुके पैमाने लोग
नाकाबिल पैताने के भी बैठे हैं, सिरहाने लोग
-डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
एक तो बाघ दूसरे बाँधे बन्दूक वाली कहावत चरितार्थ हो
रही है। अहंकार की सीमा का कोई ओर-छोर नहीं तथा अनाचार
अत्याचार उनके बाएँ हाथ का खेल हो चुका है क्योंकि वे
ही कुर्सी पर हैं। कुर्सी की महत्ता का बखान इन
पंक्तियों में दृष्टव्य है-
कैसी भी कुर्सी हो भाई, माने रखती है
बड़े बड़ों को वह अपने, पैताने रखती है
कुर्सी के आगे पीछे हो, दुनिया डोल रही
जिसके पास है कुर्सी, उसकी तूती बोल रही
-कैलाश गौतम
शब्दों के हाथी पर ऊँघता महावत है
गाँव अभी लाठी है भैंस की कहावत है
-गुलाब सिंह
और जब नाकाबिलों एवं नकारों की संख्यावृद्धि होने लगी
तो देश में अस्थिरता एवं अव्यवस्था का वातावरण उत्पन्न
हो गया। अलगाववादी ताकतें जोर पकड़ने लगी तथा देश
आतंकवाद जैसी गम्भीर समस्या की गिरफ्त में आ गया।
सत्तासीनों का असीमित धैर्य एवं कानून की लचर व्यवस्था
के कारण आज सभी आतंक के साये में जीने के लिये विवश
हैं। कुछ जिन्दगियों को बचाने के लिए खूँखार
आतंकवादियों का रिहा करना या फाँसी की सजा पाने के बाद
भी वोट की राजनीति के कारण ततकाल फाँसी न देने के कारण
आतंकवाद दिन दूना रात चौगुना फल फूल रहा है तथा संसद
जैसी अति सुरक्षित सर्वोच्च संस्था पर भी हमले करने
में आतंकवादियों के हौसले बुलन्द हैं। हाँलाकि आतंकवाद
की समस्या आज वैश्विक है। अमेरिका में पेन्टागन इमारत
पर हमला करने वालों का शासक पाकिस्तान में अपने
सैनिकों को भेजकर सफाया करता है किन्तु यहाँ फाँसी
देने में हिचकिचाहट है। इस वैश्विक समस्या को नवगीत
निरन्तर अभिव्यक्त कर रहा है। निम्न पंक्तियाँ
दृष्टव्य हैं-
हत्यारों ने जात पूछ कर गोली मारी
हत्यारों ने धर्म पूछ कर गोलीबारी
-यश मालवीय
आग पी रही, आग जी रही, आग से आग बुझाये
मेरा मौला इस बस्ती के कैसे दिन हैं आये,
केंशन झुलस रही क्यारी घाटी में
धुंध जमी शिखरों पर,
बिना बात के कहर ढा रहे बंदर बया घरों पर
सहमे-सहमे सभी परिन्दे ढाढस कौन बँधाये
-शैलेन्द्र शर्मा
घूम रहा बम बना आदमी, धुन बजती हर ओर मातमी
कहाँ किधर बारूद फटेगा, बता न पाता आज आदमी
-मधुसूदन साहा
रोज हत्या, रास्ते पर रहजनी है
तनी हरदम, बर्बरों की तर्जनी है
धरा पर अब, जिन्दगी जीना कठिन है
-डॉ.अनिक कुमार
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि आतंकवाद जैस
वैश्विक स्तर पर प्रसारित समस्या को नवगीत जिम्मेदारी
के साथ अभिव्यक्त कर रहा है। केवल समस्या को ही नहीं
निजात पाने के उपायों को भी प्रकाश में लाने के लिये
प्रयत्नशी है यथा-
बुझा देने के सिवा चारा नहीं, हुआ समझौता कभी क्या आग
से
तोड़कर विशदन्त काबू में करें, अन्यथा खतरा रहेगा नाग
से।
-विनय भदौरिया
आजादी के बादसे गरीबी उन्मूलन की योजनाएँ सत्तासीनों
द्वारा जनता के समक्ष लाई जा रही हैं किंतु अव्यवस्था
के चलते पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुँच पा रही हैं।
अधिकांश आर्थिक पैकेज बदंर बाँट की भेंट चढ़ जाते हैं।
कहावत है कि पानी व भ्रष्टाचार हमेशा अधोगामी होते
हैं। विकास एवं राहत योजनाओं की राशि यदि सौ रुपये
(१०० रुपये) ऊपर से चलती है तो मात्र बीस रुपये (२०
रुपये) का उपयोग होता है शेष शासकों, नौकरशाहों एवं
ठेकेदारों की जेबों के हवाले होता है। नवगीतों से बड़ी
बारीकी एवं करीने से यह रहस्योद्घाटन हो रहा है। इस
सन्दर्भ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य है-
अनुदानों के छत्ते काटे, मिल जुलकर अमलों ने बाँटे
ग्राम विकास बहीखाते में, दर्ज हुये घाटे ही घाटे -
डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
राजघरों में खेल हो रहा, चूहे बिल्ली का
बदल रहा हर रोज मुखौटा, मौसम दिल्ली का
राजकोष राजामन्त्री का, देश हुआ कंगाल -शीलेन्द्र
चौहान
इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि आजादी के बाद
विकास नहीं हुआ। विकास से शैक्षिक, आर्थिक एवं समृद्धि
पाने के कारगर उपाय हुये। जगह-जगह शिक्षण संस्थान,
स्वास्थ्य के लिये चिकित्सालय स्थापित हुए गाँवों तक
सड़कों एवं विद्युत का जाल बिछा हुआ है। पहले की
अपेक्षा सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक स्तर ऊँचा हुआ है।
औद्योगिक क्रान्ति के जरिये उत्पादको बढ़ावा मिला,
रोजगार के अवसर भी प्रदान किये गये लेकिन इस विकास के
क्रम में जितना हमने पाया उससे कहीं ज्यादा खोया है।
औद्योगिक क्रान्ति के कारण वर्तमान युग अर्थ की चपेट
में आ चुका है और अर्थ मानवमात्र के केन्द्र में है
जिससे मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ तथा उपजा बाजारवाद
एवं पनपी उपभोक्तावादी संस्कृति। भौगोलिक दूरी कम हुई
है, सूचना एवं संचार क्रान्ति के माध्यम से सम्पूर्ण
विश्व विश्वग्राम के रूप में समझा जाने लगा है किन्तु
साथ् ही बढ़ी है दिलों की दूरी, फलतः पारिवारिक एवं
सामाजिक रिश्तों की स्थिरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया
है। पारिवारिक रिश्तों में स्वार्थ प्रविष्ट हो चुका
है इसलिए रेतीले सम्बन्धों का तेजी से बिखराव प्रारम्भ
है। इसका खामियाजा मध्यम वर्ग अधिक भोग रहा है। इसका
कारण भी हमारे राजनेता ही हैं क्योंकि हमारे आदर्श तो
वही हैं। उनके बिछाये जाल में तो हमें फँसना ही है। हर
व्यक्ति में खूब धन कमाने की लालसा एवं सुविधा भोगी
प्रवृत्ति जाग्रत हुई है। हमने पूरब पथ छोड़ दिया है
तथा पाश्चात्य सभ्यता को अंगीकार कर लिया है परिणामतः
हम नंगेपन के शिकार हो चुके हैं। इस अपसंस्कृति के हम
शिकार होंगे स्वप्न में भी नहीं सोचा गया। यथा-
ऐसा भी आयेगा मौसम, यह उम्मीद न थी
प्यासी मरी मछलियाँ, रोइ भर-भर आँख नदी
मेघ-मरुत-सूरज-धरती, किससे क्या चूक हुई
भरी-भरी बाहर से नदिया, भीतर सूख गई
खड़े सभी रिश्ते हैं, सन्देहों के घेरे में
एक हाथ दूजे का दुश्मन, हुआ अँधेरे में
-नीलम श्रीवास्तव
बहुत बुरे हालात हुए हैं
पुरखों वाले गाँव के
नहीं जड़ों को कोई देता, अपने पन की खाद
घर का बूढ़ा बरगद झेले, एकाकी अवसाद
-मनोज जैन मधुर
रिश्तों को दर किनार कर हम अपने धर्म से च्युत हो गये
हम सब कुछ बनना चाहते हैं सिर्फ इन्सान बनने से कतरा
रहे हैं। यथा-
कभी साँप तो कभी सिंह हम, या फिर कभी सियार
अन्दर का आदमी नदारद, उसे दिया है मार
सुलभ हुसे संचार माध्यम, जितनी मात्रा में
उतना ही ज्यादा एकाकी, जीवन यात्रा में
फाइल कभी साग का झोला, दैनन्दिन व्यापार
-विनय भदौरिया
इस अव्यवस्था के कारण ही रेतीले सम्बन्ध परस्पर प्रेम
व विश्वास का अभाव पूरा पारिवारिक व सामाजिक ढाँचा
चरमरा गया है जिसका नतीजा घर-घर में बँटवारा। प्रेम का
सूरज घृणा के बादलों से आच्छादित है। यथा-
जबसे आँगन बाँटा, घर में धूप नहीं आती
सहमे-सिकुड़े गलियारे हैं, दालानें रोई-रोई
ठिठुरे-ठिठुरे कमरे, लगती बैठक है काँटे बोई
जबसे नई देहरी काटा, धूप नहीं आती
-मधुकर अष्ठाना
ड्योढ़ी ऊपर फिर दुर्दिन महराज बिराजे
वत्सल छाती को तीखी सी, एक छुरी की धार मिली
पिता पुत्र के बँटवारे में, आँगन को दीवार मिली
मिला मोतियाबिन्द सास को, आँख बहुरिया आँजे
-डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
गरीबी इस देश के लिए आजादी के पूर्व तथा बाद में भी
अभिशाप के रूप में रही है। अव्यवस्था का परिणाम है कि
जो पहले से गरीब थे वे अधिकांश अब भी गरीब हैं तथा जो
समृद्धिशाली थे उनके वैभव में अधिक वृद्धि हुई है।
असमानता की खाई भौतिक स्तर पर बढ़ती ही जा रही है उसका
कारण निम्न पंक्तियों में दृष्टव्य है-
दोहरी नीति तुम्हारी इन्दर दो हैं तेरे रूप
आधे अँगना पानी बरसे, आधे अँगना धूप
हम तो वैसे हैं, सदियाँ बदल गयीं
पोखर के हिस्से का पानी, नदियाँ निगल गयीं
सबको तृप्ति बाँटने वाले, पड़े उपेक्षित कूप
-डॉ.विनय भदौरिया
और इस दोहरी नीति के कारण गरीबों की राहत सामग्री
बिचौलिये गटक लेते हैं तथा गरीब की पूर्व स्थिति बनी
रहती है। इस समस्या को नवगीत में कभी नजर अन्दाज नहीं
किया तथा विभिन्न प्रकार से प्रचुर मात्रा में
अभिव्यक्ति के तल पर लाया जा रहा है यथा-
मत आना चाँद तुम्हें देखकर, बेटा रोटी-रोटी कहता है
-शिवकुमार पराग
क्या मालूम था, नाम के हाथों, सूखी रोटी होगी
नंगे होंगे पाँव, बदन पर, केवल फटी लँगोटी होगी
-शीलेन्द्र पाण्डेय
अम्मा के संग बीन रहे जो, कूड़ा पालीथीन
और पिटारी लिये साँप की, बजा रहे हैं, बीन
-बृजनाथ श्रीवास्तव
पैबन्दी कपड़ों में होरी, अब भी आँसू पीता है
मजदूरी का टोटा हो तो, घास बेच कर जीता है
-हरिशंकर सक्सेना
दिन में भी रातों की स्याही, दृश्य हुए सब काही-काही
कौड़ी-कौड़ी को मोहताजी, उस पर इतनी उम्रदराजी
निकल गई सब खख्खा शाही
-निर्मल शुक्ल
दुनिया हर पल है सपनीली
माँग रहे हैं भूखे बच्चे, किंतु अभी हैं आलू कच्चे
चूल्हे पर है चढ़ी पतीली
-अवनीश चौहान
माँ ये गीत कहाँ से लाई, किसके पाले पोसे हैं
कुल उजरोटी गई दूध की, इतना पानी मिला रही है
लौंगन डोभी पान-पचीसी, तू बरसों से खिला रही है
मेरी सुधि में खैनी खाकर, बापू भजन भरोसे है
-डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
दादा नंगे पाँव, देखते रहे उम्र भर, सपने जूतों के
दादी रहीं माँजती बर्तन, जमींदार से कई निपूतों के
-बटुक चतुर्वेदी
कितनी बार भोर की किरनें, आईं भूख पखार
अपने दरवाजे देहरी पर दिन की दीठ उतार
-अनूप अशेष
रेशम के कीड़े हम पहले थे अब भी हैं
लोग हमें उलझाकर, धागे सुलझाते हैं
हम तो दर्शक जैसे, पहले थे, अब भी हैं
-अमरनाथ श्रीवास्तव
ज्वर में पड़ा खाँसता रह-रह, सेच रहा देवान
भूख-गरीबी कुछ न देखता, कैसा है भगवान
फूस-फास की बनी मड़इया, तन परी फटही बंडी
चूल्हे बेहया की लकड़ी। बिन अलाव के ठंडी
चले सुरसुरा जब पछुवा का, कोई नहीं निदान
-डॉ. विनय भदौरिया
मँहगाई एक ऐसी समस्या है जो दिन प्रतिदिन सुरसा के
मुँह की तरह विस्तार ले रही है पर हमारे शासक कोई
कारगर उपाय नहीं खोज पा रहे। हाँ विपक्षी पार्टियों के
पास सत्ता पक्ष को कटघरे में खड़ा करने के लिए सबसे सहज
व सुलभ मुद्दा है, जिसका सदैव उपयोग होता है। रोजमर्रा
की उपयोगी चीजों का भाव आसमान छू रहा है। रुलाने में
लहसुन व प्याज बड़े माहिर हैं जो पाँच-दस रुपये से एक
बारगी बारी-बारी से सौ रुपये तक के ऊँचे दामों में
बिकते हैं। ये आमजन से खासजन तक के लिए दैनिक उपयोग की
वस्तु हैं। वर्तमान में खाद्य वस्तुओं से लेकर
वस्त्राभूषणों के दाम शिखर पर हैं। नवगीतों ने इस
समस्या को गम्भीरता से अंगीकार किया है तथा अभिव्यंजित
किया है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
कितना मँहगा जीना, भाव चढ़ा है ऊना दूना
-राम सेंगर
सता रही है चाबुक मारे, तृष्णा कसे लगाम
उमरिया कैसे बीते राम
तपता सूरज धौंस जमाये, डांट रही पुरवइया
दिन भर तोड़े हाड़मजूरी, पाया बीस रुपइया
खून पसीने से महँगे हैं नून तेल के दाम
-डॉ अजय पाठक
सिर के ऊपर कुंठा की तलवार लटकती है
महँगाई की मार, कमर को जमकर तोड़ रही
और पेट को पीट, भूख के घुटने जोड़ रही
सुख सुविधा की गंध, न अपने पास फटकती है
-मनोज जैन ‘मधुर’
दिन भर की घुटन, शाम मुफ्त कहकहे
ऐसी दिनचर्या में, नित्य हम रहे
शिखर चढ़ी महँगाई, मुफलिस की पहुनाई
रोज भोर हो करजा, लेता है अँगड़ाई
केवल सिन्दूर छोड़ और क्या रहे।
-डॉ. विनय भदौरिया
महँगाई अलावा बेरोजगारी की समस्या भी चिन्ताजनक है।
रोजगार के कम अवसर इसका प्रमुख कारण है दूसरा कारण
आरक्षण भी है। प्रारम्भ में दबे-कुचले, शोषित पीड़ित
वर्ग का सामाजिक स्तर ऊपर उठाने हेतु समय विशेष के लिए
आरक्षण का प्राविधान किया गया था। किंतु हमारे शासक
वर्ग ने वोट की राजनीति से सम्प्रक्त कर लाभ पाने का
अस्त्र बना लिया तथा इसका दायरा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा
रहा है। आरक्षण के कारण प्रतिभायें कुंठित हो रही हैं
तथा अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में दायभार है जिसके
कारण किसी विभाग में दायित्वों का सम्यक रूप से
निर्वहन नहीं हो रहा है। बेरोजगारी एवं आरक्षण की
समस्या भी नवगीत की दृष्टि से नहीं बच पाती। अत्यन्त
बारीकी एवं मार्मिकता के साथ इन समस्याओं को अभिव्यक्त
किया जा रहा है। पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
मंगल का बेटा रोजगार, रह-रह कर भूख राग गाता है
सूरज को रोज जल चढ़ाती है
माँ कब तक नौकरी लगेगी कहता है वह
बाबू के पाँव में बिवाई है
चमरौधा जूता की चिन्ता में रहता है वह
-शिवकुमार ‘पराग’
दादा नंगे पाँव
देखते रहे उम्र भर, सपने जूतों के
-बटुक चतुर्वेदी
और आरक्षण को किस करीने से नवगीतों ने अभिव्यक्त किया
है दृष्टव्य है-
एक दिशा वेधी सन्नाटा, धधक पसीज रहा
सूर्यमुखी फूलों पर स्याही, गगन उलीच रहा
-नीलम श्रीवास्तव
सूरज चमक चमक कर हारा
थका चन्द्रमा टूटा नभ से पुच्छल तारा
-रवीन्द्र भ्रमर
सूरज उगा बिना निखरे ही, डूब गया पिछवारे
अब रोशनी चले हैं देने, ये आरक्षित तारे
-डॉ. विनय भदौरिया
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नवगीतों
में जीवन की जटिल अनुभूतियों को समग्रता के साथ
अभिव्यक्त किया जा रहा है। राजनेताओं ने राजनीति को
किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जिसके कारण उत्पन्न
अव्यवस्था को तो रेखांकित किया ही जा रहा है साथ ही
जनता से परिवर्तन के लिए निवेदन भी नवगीतों के द्वारा
किया जा रहा है। यथा-
नई व्यूह रचनओं की, होती मन्त्रणायें
संकट में लगती है, पार्थ की प्रतिज्ञायें
मूल्यों के सूरज का, सूर्यास्त से किये
न्याय का धनन्जय न चिता रूढ़ हो जाये
-डॉ. राम प्रकाश
इस न्याय के धनन्जय को चितारूढ़ होने से बचाने के नवगीत
सम्पूर्ण देश की जनता को मशविरा देता है कि-
एक साथ इतने नागों को
मत भेजो भाई
संसद तो संसद है कोई चन्दन बाग नहीं।
-डॉ. विनय भदौरिया
क्योंकि ये-
साँप नहीं साँपों से भी
हैं ज्यादा ही जहरीले
है किसमें मजाल इतनी जो
इनके डसे हुए को कीले
-डॉ. श्याम निर्मम
इन समस्याओं को निरन्तर अभिव्यक्त करने के बावजूद
नवगीत निराशावादी नहीं हैं वरन् आस्थावादी है। आशा का
स्वर भी निरन्तर प्रस्फुलित हो रहा है। यथा-
चाहे जितनी चादर तानो, सूरज तो निकलेगा ही
जब जवान चल पड़ी हवाएँ, मौसम तो बदलेगा ही
-राधेश्याम ‘बन्धु’
आयेंगे शुभ दिन भी आयेंगे
आखिर ये कब तक भरमायेंगे
-विनोद श्रीवास्तव
वस्तुतः नवगीत राजनीति और व्यवस्था के समस्त सन्दर्भों
को ग्रहण कर नये शिल्प विधान में टटके बिम्बों एवं
प्रतीकों को प्रयोग कर सहज भाषा में सम्प्रेषणीयता के
साथ अभिव्यक्त कर रहा है जो भावकों को स्वतः आकर्षित
कर रहा है। फलतः नवगीतों की ग्राहयता में निरन्तर
अभिवृद्धि हो रही है जो गीति-काव्य के लिए शुभ लक्षण
है। |