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२५. ३. २१३

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
होली और वसंत के रंगों से सराबोर, विविध विधाओं में, विभन्न रचनाकारों की ढेर सी काव्य रचनाएँ !

- घर परिवार में

रसोईघर में- होली आ रही है और उसकी तैयारी में शुचि ने भेजे हैं चाट के विविध व्यंजन। इस शृंखला में प्रस्तुत है- रगड़ा पेटीस।

रूप-पुराना-रंग नया- शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें रूप बदलकर- होली और घर की सजावट

सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी- होली

- रचना और मनोरंजन में

नवगीत की पाठशाला में- ार्यशाला- २६, रंग विषय पर रचनाओं का प्रकाशन पूरा हो गया है। इन्हें अनुभूति के होली विशेषांक में देखा जा सकता है।

साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये यहाँ देखें

लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत- पुराने अंकों से प्रस्तुत है १६ मार्च २००५ को प्रकाशित अमेरिका से स्वदेशराणा की कहानी हो ली

वर्ग पहेली-१२६
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में भारत से
ममता कालिया की कहानी- एक दिन अचानक

बसन्त को इस बार सिर्फ तीन हफ्ते का मौका मिला लेकिन उसने रस, रंग और गंध का तीन तरफा आंदोलन छेड़ दिया। मेडिकल कॉलेज के विस्तृत और विशाल कैम्पस का कोई कोना नहीं छूटा, उसके स्पर्श से। सामने बना बड़ा सा अस्पताल भी एक बार अपनी समस्त गंध, दुर्गंन्ध और विरूपता के साथ पराजित हो गया। ये बड़े-बड़े झबरे डेलिया, साथ में नन्हें-नन्हें नैस्टर्शियम, कैलेन्ड्यूला और सिनेरेरिया दिन भर धूम मचाए रहते और शाम होते ही रातरानी, राजरानी की तरह बौरा जातीं। ऑफिस के सामने कतार में लगे गमले भी तरह-तरह के फूलों से इतराते। ऐसी रंगों की बारात में सफेद रंग सिर्फ डॉक्टरों के कोट और दीवारों पर नज़र आता। तीन हफ्ते खत्म होते खुश्क न होते हवाएँ चल निकलीं। ठंड एक बारगी कम हो गई। लोगों के बदन से गरम कपड़े उतरने लगे। उसकी जगह धूप के चश्मों की बिक्री बढ़ गई। अखिल इसी टर्म में हाउस फिजिशयन बना था। उसके सामने कड़ी मेहनत का धूप-पसीना था। पर वह पूरे जोश में था। उसे यह भी पता था कि अगला एक साल... आगे-
*

राकेश कुमार सिंह द्वारा प्रस्तुत
संथाली लोक कथा- वसंतोत्सव
*

विद्यानिवास मिश्र का ललित निबंध
वसंत मेरे द्वार
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रीतारानी पालीवाल का आलेख
पुकारते हैं साकुरा आओ

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पुनर्पाठ में अरुणा घवाना के साथ-
प्राकृतिक रंगों की खोज- घर-बाहर

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पिछले सप्ताह-


राकेश कुमार सिंह द्वारा प्रस्तुत
संथाली लोक कथा- वसंतोत्सव
*

शशांक दुबे की पड़ताल
हिन्दी सिनेमा में लोक संगीत
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दिनेश मौर्य का आलेख
उत्तर आधुनिकता का कबीर मश्जो

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पुनर्पाठ में कला और कलाकार के अंतर्गत
जहाँगीर सबावाला से परिचय

*

समकालीन कहानियों में भारत से
राहुल यादव की कहानी- टेलीविजन

जब तक मैं अपने गाँव में रहता था तब तक तो मैंने टीवी का नाम सुना ही नहीं था। मुझे पता भी नहीं था कि टीवी नाम की कोई चीज भी होती है। फिर पापा की नौकरी लगने पर हम सभी लोग फतेहपुर आ गए। वहाँ पर भी मैंने पहली बार टीवी कब देखा कुछ याद नहीं। मैं तब शायद छह या सात साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था। रविवार का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे। तभी पापा एक आदमी के साथ आये। उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था। डब्बे पर टीवी का एक चित्र बना हुआ था। अब मुझे याद तो नहीं लेकिन टीवी का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे। ख़ैर डब्बे से टीवी को निकाला गया और लगा दिया गया। टीवी बहुत बड़ा नहीं था, जहाँ तक मुझे याद है २१ इंच का था। टीवी काले रंग का था और नीचे की तरफ एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिए बने छोटे छोटे छेदों से पहचान सकते थे। उनीचे की तरफ ही एक ढक्कन लगा था, ...-आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : कल्पना रामानी
 

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