फ़िल्म-इल्म |
गीत-संगीत हमारी लोक संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है, हमारे पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-समारोहों में ही नहीं, बिजली से अछूते गाँवों में आटा पीसने वाली घट्टियों की घरर-घरर में, बोवनी के समय खेत में पानी उलीचने के लिए जाते पैरों के जूतों की चरर-मरर में, धान कूटते समय मूसल की धप-धप में, ठठेरे द्वारा बर्तन ढालते समय उसकी टन-टन में और घर बनाने के दौरान छेनी-हथौड़ी की खनन-खनन में, इसकी गूँज हर तरफ मौजूद है। सिनेमा, जिसे सामान्य रूप से समझदार आदमी ‘सोलह कलाओं का संगम’ कहता है और ज्यादा पढ़ा-लिखा जिसे ‘लोक का विकृत रूप’ बताता है, वह भी संगीत से कतई अछूता नहीं रहा है। बल्कि सच तो यह है कि अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भारतीय सिनेमा की पहचान ही उसका संगीत रहा है। यही कारण है कि जब छः साल पहले ऑस्कर पुरस्कार समारोह के दौरान श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की घोषणा करने से पहले ‘एमेली’ और ‘नो मेन्स लैंड’ के साथ-साथ ‘लगान’ की भी झलक दिखलाई गई थी, तो उन बीस-बीस सेकेंड के केप्सूलों में जहाँ अन्य नामित फिल्मों की झलक के रूप में उनके कुछ नाटकीय दृश्य प्रस्तुत किए गए थे, वहीं ‘लगान’ के नाम की घोषणा के समय ‘ओ रे छोरे मान भी ले तू मैंने प्यार तुझी से ही किया’ गीत दर्शाया गया था। कहना न होगा, ‘इत्तेफाक’, ‘कानून’, ‘अचानक’ और ‘भूत’ जैसी कुछ अपवाद स्वरूप बनाई गई फिल्मों को छोड़ दें, तो गीतों के बिना हिंदी सिनेमा की कल्पना भी मुश्किल है। कभी-कभी ऐसा होता है कि अच्छे गीतों के दम पर ‘नागिन’, ‘एक मुसाफिर एक हसीना’ और ‘ताजमहल’ जैसी मामूली फिल्में भी हिट हो जाती हैं, तो कभी ऐसा भी होता है कि फिल्म भले ही पिट जाए, लेकिन उनके गीत बरसों बरस चलते रहते हैं, जैसे ‘सेहरा’ और ‘अनपढ़’। भारतीय सिने संगीत की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि समय-समय पर भले इसने पश्चिमी धुनों को थोड़े हेर-फेर के साथ प्रस्तुत किया हो, भले ही कई बार शब्दों की गरिमा को वाद्यों के अतिरेक प्रयोग के नीचे कुचल दिया हो, लेकिन इसने लोक संगीत को भी उतने ही मन से अंगीकार किया है। मजे की बात तो यह है कि
हिंदी सिनेमा ने मात्र ‘गौ-पट्टी’ पर पसरी लोक-संस्कृति को ही नहीं अपनाया,
बल्कि इसके संगीत में गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र सहित दक्षिण व पूर्वी भारत
की छाप भी दिखलायी देती है। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि हमारे अधिकांश
संगीतकार अलग-अलग प्रांतों से, अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए हैं। जहाँ खेमचंद
प्रकाश, अनिल विश्वास और एस.डी.बर्मन के संगीत में बंगाल की छटा रही है, तो
ओ.पी.नैयर, रवि, जी. एस. कोहली ने गीतों को पंजाबी रंगत दी है। शंकर
(शंकर-एहसान-लॉय वाले भी शंकर-जयकिशन वाले भी) और ए.आर. रेहमान ने दक्षिण
के परचम को फहराया है, तो नौशाद और चित्रगुप्त ने उत्तर की पताका लहराई है।
कल्याण जी-आनंदजी ने गुजरात की मिठास घोली है, तो सी. रामचन्द्र ने
महाराष्ट्र की तीखी मिर्च से लोगों से हाहाकार करवाया है। उत्तर का लोक संगीत उत्तर के लोक संगीत की मिठास को जन-जन तक पहुँचाने का श्रीगणेश न्यूनतम लागत में अधिकतम रिटर्न देने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी चित्रगुप्त ने किया था। उन्होंने न सिर्फ कई भोजपुरी फिल्मों में संगीत दिया, बल्कि मुंबइया फिल्मों में भी इस भाषा के लोक को समाहित किया। ‘काली टोपी लाल रूमाल’ (गीतकार: मजरूह सुल्तानपुरी) फिल्म का गीत ‘‘लागी छूटे ना, अब तो सनम’ चाहे जाए जिया, तेरी कसम’’ इसका अप्रतिम उदाहरण है। इसी प्रकार मजरूह और चित्रगुप्त की इस जोड़ी ने ‘औलाद’ फिल्म में भी एक बेमिसाल गीत ‘‘हो नाजुक नाजुक बदन मोरा हाए झुक झुक जाए रे तेरे नैन सांवरिया-- दिया था। आम तौर पर विशुद्ध राग-रागनियों पर गीत तैयार करने वाले महान संगीतकार नौशाद ने भी उत्तर भारत के लोक संगीत का भरपूर और सार्थक दोहन किया। दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ गयो रे (गंगा जमुना), मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार (उड़न खटौला), ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे दगाबाज तोरी बतिया ना मानूँ रे (गंगा जमुना), ढूँढो ढूँढो रे साजना ढूँढो रे साजना मोरे कान का बाला (गंगा, जमुना), आज सखी री मोरा जिया ललचाए रे, जिया ललचाए (राम और श्याम) उनके लोक-संगीत के प्रति अनुराग के प्रबल उदाहरण हैं। कुछ बर्ष पहले शिव-हरि ने भी उत्तर की लोक धुनों पर दो लोकप्रिय गीत बनाए हैं। दोनों ही लोकप्रिय हुए। फर्क इतना है कि जहाँ ‘‘रँग बरसे भीगे चुनरवाली रँग बरसे‘‘ (सिलसिला) अपनी अश्लीलता के कारण खटकता है, वहीं ‘‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’’ (लम्हे) अपनी मधुरता के कारण मन के भीतर उतर जाता है। उत्तर के अंचल की ही धूल लेकर मजरूह भी ‘सुजाता’ में आए थे। संगीतकार थे एस.डी.बर्मन और गीत था, ‘‘काली घटा छाए, मोरा जिया तरसाए, ऐसे में कहीं कोई मिल जाए।’’ पिछले दिनों प्रदर्शित ‘दिल्ली-६’ में राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी एक दिलचस्प लोकगीत प्रस्तुत किया था: सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल/सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल लेकिन उत्तर के अंचल का सिरमौर अभी ‘तीसरी कसम’ का यह गीत माना जाता है, लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया/पिया की पियारी भोली भाली रे दुल्हनिया। पंजाबी लोक संगीत ओ.पी.नैयर के आने से पहले भारतीय फिल्म संगीत में एक खास किस्म की ठंडक थी, लेकिन उनके आते ही परिदृश्य बदला और संगीत में पंजाब की मस्ती शुमार हो गई। सर पर टोपी लाल हाथ में रेशम का रूमाल (तुमसा नहीं देखा), उड़े जब जब जुल्फें तेरी (नया दौर), हाय रे हाय ये तेरे हाथ में मेरा हाथ तो फिर क्या बात मेरी जाँ वल्ले-ह-वल्ले/सुभान अल्लाह हाए हसीं चेहरा हाए (दोनों कश्मीर कली), न जाने क्यूँ हमारे दिल को तुमने दिल नहीं समझा (मुहब्बत जिंदगी है) और अजी किबला मोहतरमा, कभी शोला कभी नगमा, इस आपके अंदाज का हाए क्या कहना (फिर वही दिल जाया हूँ) सरीखे गीतों की इक-इक ताल में पंजाब की मस्ती छुपी हुई थी। नैयर की ही तरह पंजाबी
पृष्ठभूमि के प्रतिभाशाली संगीतकार रवि भी हैं। उन्होंने महेन्द्र कपूर की
रेंज का भरपूर फायदा उठाते हुए ‘‘न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के
जियो (हमराज)’’ और दिल करता ओ यारा दिलदारा मेरा दिल करता (आदमी और इंसान)
जैसे लोकप्रिय गीत दिए गए तो मन्नाडे की नजाकत का उपयोग करते हुए ऐ मेरी
जोहराजबी (वक्त) जैसा लोकप्रिय गीत भी गवाया। लेकिन उनके तमाम
पंजाबी-गैरपंजाबी पृष्ठभूमि वाले गीतों के बीच एक गीत ऐसा भी था, जिसमें
पंजाब का रंग तो था, लेकिन एक अलग ही तेवर के साथ। ‘वक्त’ फिल्म का वह गीत
था-दिन हैं बहार के तेरे मेरे इकरार के दिल के सहारे आजा प्यार करें। साठ और सत्तर के दशक के सबसे लोकप्रिय गीतकार आनंद बक्शी ने अपने सरल-सहज गीतों के जरिए कई पंजाबी वाक्यों को अन्य भाषा-भाषियों की जुबाँ तक पहुँचाया। जा रे जा तेनू रब दा वास्ता (कच्चे धागे) के ओ मैंनूँ प्यार करती है, सड्डे उत्ते वो मरती है (प्रतिज्ञा), की गल है कोई नहीं (जानेमन), मैं छम-छम नचदीं फिरां (लोफर)। नब्बे के दशक के बाद फिल्म संगीत में इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों की पकड़ गहराते ही पंजाबी संगीत का उपयोग तो जारी रहा, लेकिन ढोल की वो असल गूंज कहीं गायब हो गई। फिर भी कुछ संगीतकारों ने उल्लेखनीय प्रयास किए। विशाल भारद्वाज ने ‘माचिस’ में चप्पा चप्पा चरखा चले, बापी-तुतूल-ध्रुव ने ये दुनिया ऊटपटांगा कित्थे हथ ते कित्थे टाँगा (खोसला का घोसला), प्रीतम ने नगाड़ा नगाड़ा नगाड़ा बजा (जब वी मेट), शंकर-एहसान लॉय ने ‘झूम बराबर झूम’ का टाइटल ट्रेक सलीम-सुलेमान ने ‘चक दे इंडिया’ का शीर्षक गीत और ए.आर.रेहमान ने ‘रंग दे बसंती’ में ‘‘मोहे मोहे तू रंग दे बसंती’’ गीतों में रंग जमा दिया।
गुजराती लोक संगीत मराठी लोक संगीत हिंदी सिनेमा का गढ़ मुंबई है और महाराष्ट्र इसकी राजधानी, लेकिन आश्चर्य है मराठी लोक-संगीत का हमारे यहाँ अपेक्षाकृत उतना प्रयोग नहीं हो पाया। फिर भी सी. रामचंद्र ने ‘नवरंग’ में ‘‘आ दिल से दिल मिला ले’’ गीत में विशुद्ध मराठी ताल बजवाई थी। इसी प्रकार ‘दो जासूस’ में रवींद्र जैन ने ‘‘दरिया चा राजा देवा हो देवा तुम्हीं को माना देवा हो देवा’’ गीत में और कल्याणजी-आनंदजी ने ‘कहानी किस्मत की’ में ‘‘रफ्ता रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है’’ में ‘‘हे पांडुबा पोरगी फंसली रे फंसली’’ जैसे आकर्षक प्रयोग किए थे। इसके अलावा महाराष्ट्र के गणेशोत्सव और मटकी फोड़ संबंधी गीत हमारे यहाँ इतने अच्छे बनाए गए हैं कि आज इन पर्वों में लोक गीतों का स्थान इन्हीं फिल्मी गीतों ने ले लिया है। गणेशोत्सव में जहाँ ‘‘देवा हो देवा गणपति देवा तुमसे है बढ़कर कौन’’ (हमसे बढ़कर कौन) की गूँज सुनाई देती है, तो कृष्ण जन्माष्टमी के वक्त ‘‘गोविंदा आला रे आला जरा मटकी सम्हाल ब्रिजबाला’’ (ब्लफ मास्टर), ‘‘शोर मच गया शोर देखो आया माखन चोर’’ (बदला) और ‘‘मच गया शोर सारी नगरी रे आया बिरज का बाँका सम्हाल तेरी गठरी रे’’ (खुद्दार) पर युवा मंडली थिरकती नजर आती है।
बंगाली लोक संगीत कश्मीरी लोक संगीत जम्मू-कश्मीर की रंगत हसरत जयपुरी ने ‘जब प्यार किसी से होता है, में बिखेरी थी। बरसों पहले स्टार प्लस पर ‘‘दिस वीक दैट इयर’’ कार्यक्रम के दौरान उन्होंने एक मजेदार किस्सा सुनाया था। एक बार वे जयकिशन के साथ घूमने के लिए कश्मीर गए थे। वहाँ जब कश्मीरी युवतियों को पता चला कि वे हसरत हैं, तो उन्हें घेर कर कहने लगीं, ‘‘क्या कहें हसरत साब आप तो कया लिखते हैं यूम्मा’’। यह शब्द उनहें जम गया और बाद में लोकप्रिय गीत की शकल लेकर ‘‘ये आँखें उफ यूम्मा’’ के रूप में आया। बरसों बाद कश्मीर का लोकगीत, ‘मिशन कश्मीर’ में (गीत: समीर, संगीत शंकर एहसान लॉय) सुनने को मिला। यह गीत लोक, रफ्तार और मेलडी का अद्भुत समुच्चय था: बुंबरो बुंबरो श्याम रंग बुंबरो आए हो किस बगिया से। यह गीत मूल रूप में कश्मीरी भाषा में भी उपलब्ध है। मानना होगा संगीतकार को कि उन्होंने लोक की आत्मा को कहीं से भी डिस्टर्ब नहीं किया। दक्षिण भारतीय लोक संगीत शैलेन्द्र-हसरत और शंकर-जयकिशन की चौकड़ी को अलग अलग क्षेत्रों के लोगों से मिलकर वहाँ का गीत रचने में महारत हासिल थी, उन्हें तमिल का बदकम्मा शब्द इतना पसंद आया कि इसे दो गीतों में इस्तेमाल किया, एक तो ‘राजकुमार’ में ‘‘नाच रे मन बदकम्मा ठुमक ठुमक बदकम्मा’’ और दूसरा ‘शतरंज’ में रफी और शारदा की आवाज में ‘‘बदकम्मा बदकम्मा बदकम्मा, बदकम्मा इकड़ पतोड़ा’’। तमिलनाडु के ही पड़ोसी आँध्र की हैदराबादी को ‘गुमनाम’ में ‘‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’’ में पेश किया गया था। आंचलिक शब्दों से प्रेरित अन्य गीतों की तुलना में यह गीत अलहदा इसलिए समझा जाना चाहिए कि जहाँ उन गीतों में मुखड़ा लोकभाषा में होता था और अंतरे हिंदी में, वहीं इस गीत में मुखड़ा सामान्य है, लेकिन अंतरा अंचल की बानी में। महमूद पर फिल्माए गए इस
गीत की सफलता का परिणाम यह निकला कि आगे चलकर उनके लिए कई फिल्मों में
दक्षिण भारतीय गीत बनाए गए। खास तौर पर ‘दो फूल’ का यह गीत ‘‘मुत्तुकौड़ी
कव्वाड़ी हड़ा, मुत्तुकौड़ी कव्वाड़ी हड़ा, है प्यार में जो ना करना चाहा, वो भी
मुझे करना पड़ा’’। यहाँ यह कहना दिलचस्प होगा कि आमतौर पर गीतों की शुरुआत
तो ठेठ आंचलिक शैली में होती है, लेकिन थोड़ी ही देर में गीतकार अपनी वाली
में आकर मुंबइया या खड़ी हिंदी पेल देते हैं, दूसरी ओर कुछ गीतकार आंचलिक
शुरुआत के बाद शास्त्रीय शैली में पहुँच जाते हैं। साहिर लुधियानवी ने
‘चित्रलेखा’ (संगीतकार: रोशन) में एक गीत 'काहे
तरसाए, जियरा' इस तरह बनाया था। १८ मार्च २०१३ |