जब तक मैं अपने गाँव में
रहता था तब तक तो मैंने टीवी का नाम सुना ही नहीं था। मुझे पता
भी नहीं था कि टीवी नाम की कोई चीज भी होती है। फिर पापा की
नौकरी लगने पर हम सभी लोग फतेहपुर आ गए। वहाँ पर भी मैंने पहली
बार टीवी कब देखा कुछ याद नहीं।
मैं तब शायद छह या सात साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था।
रविवार का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे। तभी पापा एक
आदमी के साथ आये। उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था।
डब्बे पर टीवी का एक चित्र बना हुआ था। अब मुझे याद तो नहीं
लेकिन टीवी का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे। ख़ैर डब्बे
से टीवी को निकाला गया और लगा दिया गया। टीवी बहुत बड़ा नहीं
था, जहाँ तक मुझे याद है २१ इंच का था।
टीवी काले रंग का था और
नीचे की तरफ एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिये बने छोटे छोटे
छेदों से पहचान सकते थे। उसके बगल में नीचे की तरफ ही एक ढक्कन
लगा था, जिसे खोलने पर टीवी को कण्ट्रोल करने वाली चार
घुन्डियाँ लगी थी। उनमें से एक घुंडी टीवी के चित्र का रंग
काला-सफ़ेद कण्ट्रोल करने के लिये थी, और बाकि की घुन्डियाँ क्या
करती थी ये तो मुझे आज तक भी नहीं पता। ढक्कन के बगल में एक और
छोटी घुंडी थी, जिसे घुमाने पर टीवी चालू हो जाता था और उसी
घुंडी से आवाज भी कण्ट्रोल होती थी। सबसे नीचे की तरफ सुनहरे
अक्षरों में टीवी का ब्रांड बीपीएल लिखा हुआ था। आप इतना तो
समझ ही गए होंगे कि टीवी श्वेत-श्याम था।
फतेहपुर में दूरदर्शन का ऑफिस हमारे घर के एकदम बगल में ही था,
इसलिये हमें एंटीना लगाने की जरूरत नहीं होती थी। टीवी के ऊपर
ही एक छोटा सा एरियल लगाना होता था। वैसा एरिअल हम अक्सर
रेडियो के साथ लगा देखते हैं जिसे रेडियो सुनते समय हम खींच के
बड़ा कर देते हैं। टीवी लगाकर जब उस आदमी ने चालू किया तो
उसमें कोई दूसरी भाषा की फिल्म आ रही थी। उन दिनों दूरदर्शन पर
रविवार के दिन दोपहर में दूसरी भाषा की फिल्म आती थी। पिक्चर
साफ़ नहीं आ रही थी, उस आदमी ने घुन्डिया कुछ इधर उधर घुमाई और
थोड़ी देर में ही साफ़ पिक्चर साफ़ आवाज के साथ आने लगी। वो
आदमी सब सेट करके चला गया। मुझे अब भी याद है कि उस दिन हमने
उस फिल्म को पूरा देखा था, हालाँकि दूसरी भाषा की होने के कारण
हमें समझ में एक अक्षर भी नहीं आया होगा।
उन दिनों टीवी पर सिर्फ दूरदर्शन आता था और बहुत ज्यादा
प्रोग्राम नहीं आते थे। दिन के समय जब कुछ देर के लिये प्रसारण
बंद होने के कारण कुछ भी नहीं आता था, उस समय टीवी खोलने पर उस
पर कुछ झिलमिल सा आता था, जिसे हम कहते थे की "बारिश हो रही
है।" क्योंकि उसकी आवाज बारिश की आवाज की तरह लगती थी। फिर
प्रसारण शुरू होने से कुछ देर पहले सतरंगी धारियाँ टूँ की आवाज
के साथ आती थीं, और उसके बाद एक खास दूरदर्शन संगीत के साथ
दूरदर्शन का लोगो बन कर आता था जिसके नीचे "सत्यम शिवम्
सुन्दरम" लिखा होता था। धीरे धीरे हमें टीवी पर आने वाले सभी
कार्यक्रमों का समय रट गया था, और हमारा खाने-खेलने का समय भी
टीवी के कार्यक्रमों के हिसाब से निर्धारित हो गया था। मसलन हम
शाम को चार बजे बच्चों का कार्यक्रम देख के खेलने जाया करते
थे।
पाँच साल फतेहपुर में रहने के बाद पापा का ट्रान्सफर प्रतापगढ़
हो गया। वहाँ पर पापा को एक साल के लिये सरकारी मकान नहीं मिला,
तो हम लोग एक किराये के मकान में रहते थे। हमने जब वहाँ पर
टीवी खोल कर लगाया तो उसमें कुछ नहीं आया, हमें बाद में पता
लगा कि प्रतापगढ़ में दूरदर्शन का ऑफिस ही नहीं है, और वहाँ पर
एंटीना लगाना पड़ेगा जो कि इलाहबाद के दूरदर्शन के ऑफिस से
सिग्नल पकड़ेगा। इन सब ताम-झाम से बचने के लिये एक साल के लिये
जब तक हम उस किराये के मकान में रहे हमने रेडियो से ही काम
चलाया।
एक साल बाद हमें जो सरकारी मकान मिला वह दुमंजिले मकान की पहली
मंजिल पर था, एंटीना खरीदा गया, छत पर एंटीना लगाया। लेकिन
एंटीना लगाने पर भी चित्र साफ़ नहीं आया। अगल बगल पता किया गया
तो पता चला कि इलाहबाद बहुत दूर होने के कारण सिग्नल नहीं
पकड़ता और सभी लोग बूस्टर नामक एक यन्त्र का इस्तेमाल करते
हैं। अब टीवी तो देखना ही था, इसलिये बूस्टर खरीदा गया। बूस्टर
असलियत में दो छोटो छोटे हथेली के साइज के यन्त्र थे। एक को
ऊपर छत पर एंटीना के साथ लगाना होता था, दूसरे को नीचे टीवी के
साथ लगाना होता था, और दोनों यन्त्र एंटीना के तार के साथ
जुड़े होते थे। बूस्टर लगाने पर चित्र और आवाज तो साफ़ आने लगी
लेकिन फिर भी कभी कभी चित्र खराब हो जाने का झंझट हमेशा रहा।
मेरा भाई या मैं ऊपर छत पर जाकर एंटीना घुमाते थे और नीचे से
"आ गया" "नहीं आया" बोलकर हमें बताया जाता था कि कब घुमाना बंद
करना है। हमें किसी ने ये भी बता दिया था कि तार जहाँ पर
बूस्टर से जुड़े होते थे वहाँ कार्बोन जम जाता है, तो महीने
में एक बार मैं और मेरा भाई पेंचकस लेकर तार को बूस्टर से अलग
करके उसे साफ़ करके फिर से जोड़ देते थे। पता नहीं इसका फ़रक
पड़ता था कि नहीं लेकिन ये हमारा हर महीने का पक्का कार्यकम
था।
शुक्रवार के दिन दूरदर्शन पर हिंदी फिल्म दिखाई जाती थी। रात
के समाचार के एक घंटे या आधे घंटे के बाद। हम सभी को और खास
तौर से मेरे भाई को फ़िल्म बहुत पसंद थी। टीवी पापा मम्मी के
बेड रूम में लगा था और हमारे पापा सोने के मामले में समय के
बहुत पाबंद थे। इसलिये शाम से ही फ़िल्म के लिये माहौल बनाया
जाता था। उस दिन मेरा भाई एक्स्ट्रा पढ़ाई करता था, या यों
कहिये कि पढ़ाई करने का नाटक करता था। पापा को ये आश्वासन भी
देना पड़ता था कि हम लोग बिलकुल शोर नहीं मचाएँगे और धीमी आवाज
में टीवी देखेंगे। रात के समाचार के साथ खाना खाने के बाद गुड
नाईट कॉइल जला कर जमीन पर टीवी के सामने चटाई बिछायी जाती थी
और फ़िल्म का आनंद लिया जाता था। फ़िल्म के बीच बीच में प्रचार
आते थे, और मम्मी की आदत थी उन प्रचारों के बीच में ही सो जाने
की। फिर मम्मी को सुबह विस्तार से रात की फ़िल्म का ब्यौरा
दिया जाता था।
कुछ दिनों के बाद जब मैं नवीं कक्षा में था तो हमारे नीचे वाली
आंटी के यहाँ केबल लगा। केबल बहुत मजेदार चीज थी। ढेर सारे
चैनल्स, ढेर सारे प्रोग्राम्स और ढेर सारी फ़िल्म्स। केबल का
तार हमारे घर के ऊपर से ही जाता था, इसलिये कभी कभी हमारा टीवी
भी केबल पकड़ लेता था। जैसा कि मैंने पहले भी बताया मेरे
भाई को बचपन से ही फ़िल्मों का काफी शौक था इसलिये उसने बहुत
कोशिश की कि घर में केबल लग जाए, लेकिन ऐसा प्रचलित था कि
केबल लगवाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं इसलिये मम्मी ने कभी इस
चीज के लिये इजाजत नहीं दी। और वैसे भी ईमानदारी से बोलूँ तो
उस छोटे से ब्लैक एँड व्हाइट टीवी में केबल लगवाने का कोई मतलब
भी नहीं था।
फिर एक दिन हमारा टीवी खराब हो गया। हमने सारी घुन्डियाँ इधर
उधर चारों ओर घुमा फिरा के देख लीं लेकिन टीवी नहीं चला। टीवी
काफी पुराना भी हो चला था, और वैसे भी अब रंगीन टीवी का जमाना
आ गया था, इसलिये मेरे छोटे भाई ने पापा से बहुत मिन्नतें करीं
कि अब इस टीवी को रिटायर कर दिया जाए और एक रंगीन टीवी लाया
जाए। एक-दो हफ्ते बाद पापा भी मान गए कि अब इस टीवी को अलविदा कह
देना चाहिये। इस फैसले से हम सभी बहुत खुश हुए थे, खास तौर से
मेरा भाई।
लेकिन इससे पहले कि दूसरा टीवी आए, पापा के ऑफिस में किसी ने
पापा को एक टीवी मेकैनिक के बारे में बता दिया। उनका नाम राम
प्रसाद था। पापा ने उनको बुला लिया, और उन्होंने टीवी के सब
अर्जे पुर्जे खोले तो पता लगा की टीवी के पीछे चूहों ने छेद
बना दिया था और कुछ तार वार काट दिए थे इसलिये टीवी खराब हो गया
था। खैर उन्होंने तार वगैरह जोड़ के टीवी ठीक कर दिया और पीछे
के उस छेद में रुई भर दी। टीवी ठीक होने की पापा को जितनी ख़ुशी
हुई थी उससे कहीं ज्यादा दुख मेरे छोटे भाई को हुआ। टीवी का
खराब होना रंगीन टीवी आने का एक मात्र जरिया था, लेकिन राम
प्रसाद जी ने सब गुड़ गोबर कर दिया था।
उसी समय हमारे घर में वोल्टेज की समस्या आने लगी। वोल्टेज कभी
बहुत हाई हो जाता था तो टीवी चलता ही नहीं था, और कभी बहुत लो
हो जाता था तो टीवी पर चित्र बहुत काले आते थे और देखना मुश्किल
हो जाता था। खैर इसका हल भी निकाला गया, पहले तो स्टैबीलाइजर
से जितना वोल्टेज मैनेज हो सकता था उतना स्टैबीलाइजर से करते
थे। फिर वोल्टेज ज्यादा होने पर घर में हीटर, पानी गरम करने
वाला गीजर सब ऑन कर देते थे। वोल्टेज कम होने पर घर के सारे
बिजली के उपकरण यहाँ तक की बल्ब भी बंद कर देते थे, तब जाके
टीवी का आनंद ले पाते थे।
ख़ैर ये सब चीजें टीवी भी कितने दिन झेलता। टीवी अब अक्सर खराब
हुआ रहता था लेकिन राम प्रसाद जी हमेशा आ के ठीक कर जाते थे।
फिर मैं बारहवीं पास कर के इलाहाबाद आ गया। छोटा भाई भी आगे की
पढ़ाई के लिये बारहवीं पास कर के कानपुर चला गया। पापा का
ट्रान्सफर भी झाँसी हो गया। और वहाँ पर कुछ दिनों बाद पापा ने
एक रंगीन टीवी ले लिया।
इस बार घर गया तो कमरे के कोने में वह पुराना टीवी नहीं दिखा।
मम्मी ने बताया उसे कुछ ही दिनों पहले २०० रूपये
में एक
मेकैनिक को बेचा गया। पता नहीं एक अजीब सा खालीपन लगा ये खबर
सुनकर। घर का वह कोना भी बड़ा अजीब सा खाली खाली लग रहा था
मानो वो टीवी उस कोने का ही एक हिस्सा हो। जिस तरह बहता पानी
तो गुजर जाता है लेकिन हथेली गीली कर जाता है और गीली हथेली
बार बार उस पानी का एहसास कराती है, उसी तरह वक्त भी गुजर
जाता है लेकिन कुछ यादें छोड़ जाता है जिनके सहारे आप फिर से
पुराने वक्त को जी सकें। वह खाली कोना अब भी रह रह कर लड़कपन
के उन दिनों की याद कराता है। अब घर में केबल भी है औए एक नया
रंगीन टीवी भी, लेकिन वो बचपन नहीं है जिसका वो ब्लैक एंड
व्हाइट टीवी एक अटूट हिस्सा था। |