इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
राजा अवस्थी, सविता असीम,
शील भूषण, सुधा ओम ढींगरा और अटल बिहारी वाजपेयी की
रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- सर्दियों के मौसम में पराठों के क्या कहने ! १५ व्यंजनों की स्वादिष्ट
शृंखला- भरवाँ पराठों में इस सप्ताह प्रस्तुत हैं-
बेसन के पराठे।
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बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें यदि शिशु एक साल का है-
भाषा के
साथ सहयोग।
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बागबानी में-
फ्लैट में बगीचा-
अगर फ्लैट में बगीचा लगाने के लिये मिट्टी
बिछाने की जगह नहीं तो भी बगीचे के शौकीनों को निराश होने की...
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वेब की सबसे लोकप्रिय भारत की
जानीमानी ज्योतिषाचार्य संगीता पुरी के संगणक से-
१६ जनवरी से
३१ जनवरी २०१२ तक का भविष्यफल।
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- रचना और मनोरंजन में |
सप्ताह का विचार-
संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता, निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव
और विकास नहीं होता। |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-२० में सूर्य की गति, धूप
का गुनगुनापन और उत्सव का आनंद बाँटते नवगीतों का प्रकाशन
निरंतर जारी है- |
लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है-
१ नवंबर
२००२ को प्रकाशित, यू.के. से
उषा राजे सक्सेना की कहानी—
बीमा बिस्माट।
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वर्ग पहेली-०६५
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में भारत
से
विभारानी की कहानी
अभिनेत्रियाँ
देर हो चुकी थी। नागम्मा
जल्दी-जल्दी कपड़ा मार रही थी कि पीतल के नटराज नीचे गिरे –
घन्न्न्न्न्.... जोरदार आवाज हुई। जयलक्ष्मी घबड़ाकर बाहर
निकली –
‘क्या तोड़ दिया?’
‘कुछ नहीं... नटराज गिर पड़े।’
‘संभालकर बाबा! कितनी बार समझाऊं?’‘हाथ ही तो है न मा! हो जाता
है।’ जयलक्ष्मी के भाषण से नागम्मा चिढ़ती है। नागम्मा की
दलील से जयलक्ष्मी चिढ़ गई -‘एक तो गलती, ऊपर से गलथेथड़ी।
सॉरी तो इन लोगों की जीभ पर है ही नहीं।’ नागम्मा के हाथ फिर
से मशीन की तरह चलने लगे। आठ बजे उसे दफ्तर पहुँचना होता है-
पैसेज की सफाई, क्यूबिकल्स की सफाई, केबिन की सफाई, बाथरूम की
सफाई, केबिन के अफसरों के लिए पानी। कान्ट्रैक्ट पर है वह। सब
कुछ करते-धरते दस बज जाते हैं। दफ्तर के कैंटीन में ही वह
नाश्ता करती है। कांट्रैक्टर से उसे यूनीफॉर्म मिली हुई है –
साड़ी! एकदम मटमैले रंग की। हमेशा गन्दी दिखती। गहरे रंग की
नागम्मा पर वह साड़ी उसे और गहरा बना देती।
विस्तार
से पढ़ें...
*
पवन शर्मा की लघुकथा
तनाव
*
पत्रकार ओमप्रकाश तिवारी की
डायरी के पन्नों से- भुज का
भूकंप
*
अनिल मिस्त्री का दृष्टिकोण
पुरानी सोच का आदमी
*
पुनर्पाठ
में माधवी वर्मा का आलेख
स्वर साम्राज्ञी सुरैया |
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पिछले सप्ताह- |
1
रतनचंद रत्नेश का व्यंग्य
टीवी में गरीबी कहाँ
*
अनीता खटवानी का आलेख
सिंधी लोकनाटक
*
आज सिरहाने के अंतर्गत
कहानी संग्रह 'वतन से
दूर'
*
पुनर्पाठ में चित्रकार
कृष्ण जी हौवाला जी आरा से परिचय
*
समकालीन कहानियों में भारत
से
शीला इंद्र की कहानी
स्वेटर के फंदे
जिस बात से माँ जी डर रही थी, वही हुई। बाबू जी दो-चार कौर खा
कर ऐसे ही उठ गए जब खाने बैठे थे, तो ऐसा नहीं लगता था कि भूख
बिल्कुल है ही नहीं यों जबसे दोनो दुकाने दंगाइयों ने जला दी,
उनकी क्या, घर में सभी की भूख-प्यास नींद उड़ गयी थी. पर रोया
भी कहाँ तक जाए, आँसू भी तो इतना साथ नहीं देते। हाँ! माँ जी को
मालूम है कि बाबू जी की आँखों ने कभी खारा जल नहीं बहाया, पर
उनकी छाती से उठती वे दिल को चीरती गहरी निश्वासें, माँ जी ही
जानती थी कि वह रो रहे है... ऐसे कि रो-रो कर उनका हृदय छलनी
हुआ जा रहा है।
‘‘ऐसे गुमसुम होकर बैठोगे, तो कैसे चलेगा? आखिर इन बच्चों की
तरफ देखो न। अपनी खातिर नहीं, इन्हीं की खातिर सही, कुछ हँसों
बोलो तो। तुम्हारी वजह से ये बच्चे भी सहमे-सहमे से रहते हैं’’
वह कहती।
पर बाबू जी बिना कुछ कहे सिर झुका लेते। फिर धीरे-धीरे वह
हँसने-बोलने भी लगे। विस्तार
से पढ़ें....
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