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देर हो चुकी थी। नागम्मा
जल्दी-जल्दी कपड़ा मार रही थी कि पीतल के नटराज नीचे गिरे –
घन्न्न्न्न्.... जोरदार आवाज हुई। जयलक्ष्मी घबड़ाकर बाहर
निकली–
‘क्या तोड़ दिया?’
‘कुछ नहीं... नटराज गिर पड़े।’
‘संभालकर बाबा! कितनी बार समझाऊँ?’‘हाथ ही तो है न माँ! हो
जाता है।’
जयलक्ष्मी के भाषण से नागम्मा चिढ़ती है। नागम्मा की दलील से
जयलक्ष्मी चिढ़ गई -‘एक तो गलती, ऊपर से गलथेथड़ी। सॉरी तो इन
लोगों की जीभ पर है ही नहीं।’
नागम्मा के हाथ फिर से मशीन की तरह चलने लगे। आठ बजे उसे
दफ्तर पहुँचना होता है- पैसेज की सफाई, क्यूबिकल्स की सफाई,
केबिन की सफाई, बाथरूम की सफाई, केबिन के अफसरों के लिए पानी।
कान्ट्रैक्ट पर है वह। सब कुछ करते-धरते दस बज जाते हैं।
दफ्तर के कैंटीन में ही वह नाश्ता करती है। कांट्रैक्टर से
उसे यूनीफॉर्म मिली हुई है – साड़ी! एकदम मटमैले रंग की। हमेशा
गन्दी दिखती। गहरे रंग की नागम्मा पर वह साड़ी उसे और गहरा
बना देती। साड़ी के संग संग वह भी और गन्दी व अशोभनीय दिखती।
जयलक्ष्मी भी जल्दी-जल्दी हाथ
मार रही थी। सुबह पाँच बजे वह उठती है – दोनों |