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दृष्टिकोण

पुरानी सोच का आदमी
अनिल मिस्त्री

मैं अपने जीवन में बहुत सी जगहों पर रहा और जीवन को उसके उतार चढ़ाव को देखता रहा। मेरे जीवन पर मेरे मिडिल स्कूल का और अध्यापकों का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ा।

सच कहूँ तो मैंने अपनी आँखों के आगे जमाने को बदलते देखा है। मगर हर वक़्त में, हर ज़माने में साहित्य का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव भी महसूस किया है। इस कारण जब मैं आज के हालात देखता हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है। लगता है चारों ओर आग लगी हुई है और नयी पीढ़ी ना जाने किस नशे में डूबी हुई है ? बचपन के पौधों में हम व्यवसयिकता और पैसा कमाने में पक्के होने का ऐसा पानी और ऐसी खाद डाल रहे है कि, न तो नयी पीढी की ज्यादातर फसल, जीवन के उद्देश्य के विषय में कुछ जान पा रही है और न ही जानने की कोशिश कर रही है। "बस पैसा होना चाहिये, मस्ती होनी चाहिये और क्या चाहिये जीवन में" ऐसी बातें अक्सर सुनने को मिल जाती हैं।

किताबो के नाम पर और साहित्य के नाम पर कैरियर और सामान्य ज्ञान तो सही है मगर हमारे अपने इतिहास, साहित्य, देशप्रेम, समाज और संस्कृति की तरफ जुड़ा साहित्य कम होता जा रहा है। आजकल लोग इन सब बातों को पुराना और ये सब बाते करने वालों को पुरानी सोच का आदमी कहते है। एक घरेलू मासिक पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया गया था कि कैसे कुवारापन सर्जरी से फिर से पाया जा सकता है। साथ ही अगर कोई लड़की बहुत ऊँचे पद पर है तो उसका कौमार्य भंग है या नहीं इससे उसके होने वाले पति को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए और वह पत्रिका भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली घरेलू पत्रिका है। पुरुषों को भी चरित्रवान होना चाहिये वह सोच तो उससे भी पहले समाप्त हो चुकी है। ऐसा पानी पीकर कैसी फसल पैदा होगी ये अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है।
आजकल अँग्रेजी सबको पता है, अँग्रेजी साहित्य, अश्लील साहित्य, टिप्स अमीर बनने के, सुन्दर बनने के, पदार्थवादी सोच पैदा करने के और धन को इन्सनियत से अधिक महत्व देने के सारे साहित्य और किताबें बाज़ार में उपलब्ध हैं, मगर हिन्दी की किताबें, हमारे साहित्य और संस्कृति का ज्ञान कराने वाली किताबें और इस प्रकार के लोग भी गायब होते जा रहे है। क्या करें बाज़ार में भी वो ही आता है जिसकी माँग होती है।

यह देखकर आश्चर्य होता है कि एक इन्जीनियर को ये नही पता की हमारे देश का राष्ट्रपति कौन है, या एक कंपनी सचिव को ये नही पता की भारत में कितने राज्य है। कुछ दिनो पहले मैं एक प्रतिष्ठित कंपनी में था, मेरे साथ एक लडकी कैब में जाया करती थी, वह हर बात के बाद यह जरूर कहती थी "आफ्टर आल आय एम एम. बी. ए." लेकिन जब हम उसे कोई हिन्दी की गिनती कहते तो वह उसका मतलब पूछ्ती थी। उसे इतना भी नहीं पता था की बावन और चौआलीस के मायने क्या है, मगर वह अपने आपको दुनिया का सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा और व्यावसायिक व्यक्ति समझती थी। जब मैं उसे तैमूर, शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के किस्से सुनाता तो वह यों देखती मानो मैं किसी और देश से आया हूँ।

मेरे एक अन्य सहकर्मी को भारत के ५ नाम नहीं पता है मगर अमेरिका के बारे में सब कुछ पता है। किस दुकान में कपड़े की किस ब्राण्ड पर कितना डिस्काउंट है वह भी पता है। मगर न तो उसे मुन्शी प्रेमचन्द का नाम मालूम है और न ही उसे यह पता है कि भारत में कितने राज्य और कितने केन्द्र शासित प्रदेश है। इन सब बातों को वह मिडिल स्कूल की किसी किताब के पन्ने से ज्यादा कुछ नहीं समझता, जिसे याद रखने से कोइ फायदा नही होने वाला। ऐसे लोगो की संख्या भारत में निरंतर बढ़ती ही जा रही है। आज का हमारा सामाजिक वातावरण ही ऐसा होता जा रहा है कि पढ़ो वो जिससे सिर्फ़ नौकरी मिल जाए, प्रमोशन हो जाए, पैसा मिल जाए, परीक्षा में पास हो जाएँ बस, बाकी किसे जरुरत है ?

हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास क्या है? हमारे देश में कितनी भाषाएँ हैं? हिन्दी में नवीनतम क्या लिखा जा रहा है और क्या प्रकाशित हो रहा है ? हमारे छोटे छोटे पर्वों के पीछे कौन से वैज्ञानिक कारण हैं, इस सब को जानने से क्या फायदा? मैं ऐसे बहुत से लोगो से मिला हूँ जो मेरा हिंदी उच्चारण और ये सब बाते जो मैंने ऊपर कही, सुनकर मुझे हिंदी का विशेषज्ञ या स्कूल टीचर या फिर व्यक्तिगत रूप से इन बातो में रुचि रखने वाला समझते हैं, जबकि सच बात तो ये है की ये सब बहुत ही मामूली बातें है जो किसी देश में रहने वाले हर आदमी को जानना चाहिए। अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए और दूसरों से पहले अपने बारे जानकारी रखना चाहिए ।

आजकल अँग्रेजी स्कूलों और महँगे प्रतिष्ठित संस्थानो में भी सिर्फ व्यवसायिक ज्ञान ही दिया जाता है और उसका नतीजा ये निकलता है इंसान कॉरपोरेट जगत का पैसा कमाने वाला पुतला बन के रह जाता है। यह सच है कि धन आज के समय में बहुत जरूरी है, उन्नति करना भी बहुत अच्छा है, मगर अपनी जड़ों को भूलना बिलकुल भी अच्छा नहीं है। हलाँकि ये अपने अपने लगाव और रुचि की बात है, मगर मुझे तो भारत के इतिहास और संस्कृति से ज्यादा भरा पूरा और समृद्ध किसी और देश का इतिहास नहीं लगता। हर त्यौहार, हर पर्व, हर फसल और पौधे से लेकर आजादी के आन्दोलनों और देश प्रेम के सच्चे किस्सों से यह देश भरा पड़ा है।

जहाँ हर २० किलोमीटर के बाद बोली बादल जाती है, संस्कृतियाँ बदल जाती है, खाने पीने व्यंजनों से लेकर कपड़े तक बदल जाते है, जहाँ बर्फ से लेकर रेगिस्तान, समन्दर से लेकर पर्वतीय देवभूमियाँ स्थित है, क्या यों भी यह पढ़ने का, जानने का और खुद पर गर्व करने का विषय नहीं है? क्या यह जरूरी है कि कल को कोई दूसरे देश का नागरिक यहाँ आए और रिसर्च करके एक किताब लिखे, और जब वो महँगे उच्चवर्गीय माल या दुकानों में जाए तब हम उसे खरीद के और पढ़ के अपने बारे में जाने?

मैं भी एक शुद्ध कॉरपोरेट जगत में काम करता हूँ, जहाँ सोच को भी व्यवसायिक होना पड़ता है, मगर सिर्फ वहीं तक, घर आकर मैं पूरा हिन्दुस्तानी बन जाता हूँ, बहुत सी स्थानीय बोलियाँ मैं जानता हूँ, सरकारी स्कूल में पढ़ा, सरकारी संस्थान से इंजीनियरिंग भी की, मगर मैंने कभी खुद को छोटा नहीं माना, बल्कि हमेशा गर्व किया और जो नहीं जानते थे उन्हें ये बताया कि हिंदी और हिन्दुस्तान क्या है? मैं बावन और बयालीस ठीक से समझ सकता हूँ और आज भी मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में और हिंदी की दूसरी कहानियों में जो रस आता है वह किसी और में नहीं आता, क्योंकि जब से मैंने बोलना सीखा तब से हिंदी ही सीखा, पहला अक्षर हिंदी का ही लिखा, यह मुझे मातृभाषा का अर्थ समझाती है और कोई भी दूसरी औरत जिस तरह माँ की जगह नहीं ले सकती, हिंदी की जगह कोई और भाषा मेरे मन जगह नहीं ले सकती। रही बात संस्कृति की तो ज्यादातर लोग इसे दूरदर्शन का कोई पुराना कार्यक्रम या प्रायमरी का कोई विषय समझते है मगर सही मायनो में संस्कृति यह समझाती है की इंसान और जानवर में क्या फर्क है। जिसे हम अंग्रेजो का मैंनर्स कहते है, वो मैंनर्स वो यहीं से सीख के गए हैं क्योंकि जब इंग्लैण्ड में लोग जंगली हुआ करते थे तब भी और उससे पहले भी हमारे यहाँ एक बेहद फलती फूलती सभ्यता और संस्कृति थी। हमारे यहाँ लोगो के काम पहले से तय थे, मौसम की भविष्यवाणी से लेकर इंसान की उन्नति और विज्ञान, गणित हमारे पास विकसित थे।

आज जो देश की हालत हो रही है और लोगो में नैतिक मूल्यों में कमी हो रही है, सब जगह अपराध बढ़ रहे है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण ये भी है की आज बहुत कम लोग और बहुत कम किताबें हैं जो हमें सही या गलत बताती हैं। दुनिया के बहुत से ऐसे सर्वेक्षण हो चुके है जो यह बतलाते है कि किसी गरीब इंसान की तुलना में बहुत अमीर लोग सिर्फ ५% ही ज्यादा खुश रहते है। मन की संतुष्टि, अपनी जमीन से जुड़े रहने की भावना और अपने पर गर्व करने की मानसिकता बहुत ज्यादा व्यवासायिक होने से कहीं बड़ा सुख और आनंद प्रदान करते है। यों तो बहुत सी बातें अपने अपने व्यक्तिगत आदर्शों पर भी आधारित होती हैं लेकिन सही व्यक्तिगत आदर्श भी तभी बनते है जब हमें बचपन से अपने देश, इतिहास और भाषा को ठीक से सिखाया जाता है। अपने बारे में जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि जब तक हम खुद के बारे में नहीं जानेंगे तब तक हमें ये नहीं पता चलेगा कि हम क्या है और कहाँ हमारी मंजिल है।

शायद तब इस देश का और हमारे जीवन का भला होगा। क्योंकि एक तरफ तो बरबादी का आलम है और जिन पर राष्ट्र को बदलने का उसे सुधारने का और परिवर्तन लाने का जिम्मा होता है, उन्हें पता ही नहीं की वक्त की आँधी हमें किस गर्त में ले जा रही है। जो पीढ़ी सदा अपने देश, इसकी संस्कृति और इसके तंत्र की बुराई करती है, क्या वह कभी यह भी सोचती है कि उसने इसे सुधारने का कौन सा काम जिम्मेदारी से अपने कंधों पर लिया है। इस स्थिति को देख कर मुझे इतिहास का एक किस्सा याद आता है। जब अँग्रेज चीन पहुँचे तो इतना बड़ा देश देख कर उनकी आँखें फट गईं, क्योंकि जितनी इंग्लैण्ड की जनसंख्या थी उतनी तो चीन की सेना में जवान थे, या शायद उससे भी ज्यादा। उनसे लड़ा कैसे जाए? इसके लिए उन्होंने चीन में अफीम का व्यापार करना शुरू कर दिया और चीनी जानता को नशेड़ी बना दिया। बरसों बाद चीन में अफीम युद्ध हुआ, तब तक अफीम और अंग्रेजों की जड़े चीन में गहरी जम चुकी थी। क्या ऊपर लिखे उदाहरण से हमें आज के हालातों पर और अपनी भूमिका के बारे में समानता नहीं लगती? क्या हम भी विदेशी के नशे में अपनी स्वतंत्रता से हाथ धो बैठने की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

शायद इसीलिये कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था की "वेदों की और लौटो।" क्योंकि सब कुछ हमारे पास है, हमारी मिट्टी में गड़ा है उसे निकालने और उसका महत्व समझने की जरुरत है अन्यथा केवल यही कहना काफी है कि यह लेख लिखने वाला कोई पुरानी सोच का आदमी है।

२३ जनवरी २०१२

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