इतिहास

पत्रकार की डायरी से २६ जनवरी २००१

भुज का भूकंप
ओमप्रकाश तिवारी


बस एक झटके से रुकी तो खिड़की के बाहर एक साथ दर्जनों चिताएँ जलती दिखाई दीं। मेरी आँखों के सामने यह पहला दृश्य था गुजरात के भूकंप की प्रचंडता का, जो २६ जनवरी, २००१ की सुबह गुजरात के कच्छ क्षेत्र में तबाही मचाकर हजारों जानें ले चुका था। इतनी चिताएँ पहली बार एक साथ जलती देखीं। दिल दहल उठा। डरते-डरते सिर घुमाकर दूसरी ओर की खिड़की पर नजर डाली, तो उधर भी वही हाल था। धू-धू कर जलती चिताएँ, और चिताओं की रोशनी में लगभग लेट सा गया गाँव। यह था अहमदाबाद से भुज की ओर आने पर गाँधीधाम से करीब ३५ किलोमीटर पहले पड़ने वाला गाँव वोंद। सड़क पर खड़े लोगों और राहत वाहनों के बीच से रास्ता बनाते हुए बस धीरे-धीरे आगे बढ़ी। कुछ ही मिनट बाद घोर अंधकार के बीच फिर रोशनी जगमगाने लगी। यह रोशनी भी चिताओं की ही थी। भूकंप से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए कस्बों में से एक भचाऊ। हाइवे के बिल्कुल किनारे दोनों ओर जलती पंक्तिबद्ध चिताएँ। कुछ शव लकड़ी की व्यवस्थित चिताओं पर जल रहे थे, तो कुछ गिरे हुए घरों के खिड़की-दरवाजों एवं दूसरे हिस्सों को तोड़कर जलाए जा रहे थे। इस गाँव की हालत वोंद से भी बदतर थी। जैसे गेहूँ की खड़ी फसल को तेज आँधी और पानी की बौछारों ने धराशायी कर दिया हो। अब तक आपस में बातचीत करते आ रहे बस के सहयात्रियों में सन्नाटा छा गया था। मन रुअँधा हो गया। लेकिन बस तब तक आगे बढ़ चुकी थी।

मारी यात्रा शुरू हुए लगभग २४ घंटे बीत चुके थे। प्यास के कारण खोपड़ी चटक रही थी। सुबह से खाने को भी कुछ नहीं मिला था। २६ जनवरी, २००१ की सुबह पौने नौ बजे गुजरात में आए भीषण भूकंप के बाद शाम करीब चार बजे दिल्ली से हमारे तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख (अब राजनीतिक संपादक) प्रशांत मिश्र का फोन आया था। वह पूछ रहे थे कि मुंबई से अहमदाबाद पहुँचने में करीब कितना समय लगेगा ? दैनिक जागरण के मुंबई ब्यूरो में काम करते हुए अब तक मुझे महाराष्ट्र से बाहर जाने का अवसर नहीं मिला था। गुजरात तो बिल्कुल भी नहीं। इसलिए गुजरात के भूकंप की रिपोर्टिंग का ख्याल भी मन में नहीं आया था। प्रशांत जी कह रहे थे कि तुम तुरंत मुंबई से अहमदाबाद निकलने की तैयारी करो और दिल्ली से आडवाणी जी (तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री) के साथ हम किसी और रिपोर्टर को भी भेज रहे हैं।

वास्तव में उस समय तक भी ज्यादातर लोगों को यह अहसास नहीं था कि भूकंप की मार अहमदाबाद से कई गुना ज्यादा कच्छ के भुज जिले में पड़ी है। भुज में संचार के सारे साधन ठप हो गए थे, इसलिए खबरें बाहर आ ही नहीं रही थीं। न बिजली, न टेलीफोन, न सेलफोन। सभी के खंभे और टावर भूकंप ने गिरा दिए थे। तो खबरें बाहर आतीं भी कैसे ? चूँकि अहमदाबाद में स्थिति अपेक्षाकृत ठीक थी, इसलिए टेलीविजन चैनल वहीं के गिरे मकानों एवं मकानों में पड़ी दरारों के दृश्य दिखा रहे थे। जिन्हें देख-देखकर देश अहमदाबाद में आए भूकंप का ही शोक मना रहा था।

प्रशांत जी का आदेश मिलने के बाद मैंने तुरंत अहमदाबाद जानेवाली ट्रेनों एवं बसों की जानकारी लेनी शुरू की। रात से पहले कोई ट्रेन नहीं थी। निजी ट्रेवेल एजेंसियों की जो बसें सामान्य दिनों में अहमदाबाद की ओर जाती भी थीं , आज उन्होंने भी अपनी सेवाएँ निरस्त कर दी थीं। बहाना था, भूकंप के कारण रोड पर पड़ गई दरारों तथा कुछ अन्य ख़तरों का। यह सब पता करते-करते मुझे लगभग ५.३० बज गए। इस बीच मुंबई के कुछ गुजरातीभाषी नेताओं से बात करने पर पता चला कि भूकंप की तीव्रता अहमदाबाद से ज्यादा कच्छ में है। तब मैंने प्रशांत जी को फोन कर दोनों जानकारियाँ दीं। पहली यह कि तुरंत अहमदाबाद के लिए कोई साधन नहीं है। रात को एक ट्रेन गुजरात मेल जाएगी, जो सुबह करीब सात बजे अहमदाबाद पहुँचाएगी। दूसरी जानकारी मैंने यह भी उनको दी कि भूकंप की तीव्रता अहमदाबाद
से ज्यादा कच्छ में है। इसलिए अहमदाबाद के बजाय कच्छ की ओर जाना चाहिए। मेरा विचार था कि गुजरात मेल पकड़कर सुबह तक अहमदाबाद पहुँच जाऊं। फिर वहाँ से किसी अन्य साधन से कच्छ की ओर रवाना हो जाऊं। लेकिन इनमें से किसी भी परिस्थिति में उसी दिन गुजरात के किसी भी हिस्से में पहुँचकर खबर फाइल कर पाना संभव नहीं दिख रहा था। संभवतः इसीलिए मुझे उसी दिन अहमदाबाद के लिए रवाना होने का कोई दूसरा आदेश दिल्ली से नहीं आया।

गली सुबह ज्यादातर अखबारों ने एजेंसी की रिपोर्टिंग पर भरोसा किया था। क्योंकि ज्यादातर अखबारों के रिपोर्टर कच्छ में नहीं थे। और जिनके रिपोर्टर थे भी, उनके खबर भेजने के संसाधन काम नहीं कर रहे थे। एक नजर अख़बारों पर घुमाने के बाद तैयार होकर कार्यालय जाने को निकला। इधर-उधर फोन-फान करने पर पता चला था कि मुंबई की कई संस्थाएँ गुजरात के लिए राहत सामग्री भेजने की योजना बना रही हैं। गौरतलब है कि मुंबई की आबादी में २७ प्रतिशत लोग गुजराती हैं और कहा जाता है कि कच्छ की जितनी कुल आबादी है, उससे कहीं ज्यादा कच्छी मुंबई में रहते हैं। इन सभी की भावनाएँ गुजरात के भूकंप पीड़ितों के साथ जुड़ी थीं। लिहाजा मेरे लिए मुंबई से भेजी जानेवाली राहत सामग्री व सहायता के आगे रिपोर्टिंग का कोई स्कोप नजर नहीं आ रहा था। आईआईटी मुंबई द्वारा भूकंप विषय पर प्रकाशित एक पत्रिका से कुछ शोधपरक सामग्री लेकर एक रिपोर्ट मैं भूकंप आने के दिन ही भेज चुका था।

सुबह करीब ११:३० बजे मैं नरीमन प्वाइंट स्थित अपने कार्यालय का दरवाजा खोल ही रहा था कि मेरे सेलफोन की घंटी बजी। फोन था पश्चिम रेलवे के पीआरओ गजानन महतपुरकर का। रेलवे अक्सर नीरस खबर ही देती है , इसलिए बिना मन के फोन उठाया। महतपुरकर ठीक आधे घंटे बाद होने जा रहे उनके महाप्रबंधक के संवाददाता सम्मेलन के लिए आमंत्रित कर रहे थे। किसी संवाददाता सम्मेलन की सूचना आधे घंटे पहले मिलना किसी भी रिपोर्टर के लिए खीझ का
कारण बनता है। लेकिन महतपुरकर से जीएम के संवाददाता सम्मेलन का विषय सुना तो उछल पड़ा। दरअसल, पश्चिम रेलवे ठीक चार घंटे बाद एक विशेष ट्रेन कच्छ के लिए रवाना करने जा रही थी, जिसका उद्देश्य था मुंबई में रह रहे कच्छियों को उनके गाँव-घर तक पहुँचाने की व्यवस्था करना। मैंने तुरंत महतपुरकर से इस ट्रेन के बारे में और ज्यादा जानकारी लेकर इस आश्वासन के साथ संवाददाता सम्मेलन में न आ सकने के लिए क्षमा मांग ली कि खबर वहाँ आए बिना भी बनाऊंगा। क्योंकि अब मुझे संवाददाता सम्मेलन में जाकर ट्रेन की खबर लेने के बजाय चार घंटे बाद छूटने जा रही उसी ट्रेन को पकड़ने की चिंता सताने लगी थी। वैसे भी यह संवाददाता सम्मेलन उन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण था, जो इस खबर को तुरंत मुंबई में रह रहे कच्छियों-गुजरातियों तक पहुँचा सकते हों।

कार्यालय में अपनी डेस्क तक पहुँचते ही सबसे पहला फोन दिल्ली को लगाया। प्रशांत जी से यह पूछने के लिए कि कच्छ के लिए एक ट्रेन चार बजे रवाना हो रही है, क्या आदेश है ? प्रशांत जी ने बिना क्षण गंवाए हरी झंडी दे दी। दूसरा फोन शिवसेना के मुखपत्र दोपहर का सामना के रिपोर्टर शेषनारायण त्रिपाठी को लगाया। क्योंकि कुछ घंटे पहले उनका फोन मेरे पास आ चुका था यह जानने के लिए कि मैं गुजरात जाने की योजना बना रहा हूँ क्या ? मैंने उन्हें भी कच्छ जा रही ट्रेन की सूचना दी और उनकी योजना पूछी। वह बोले अभी अपने कार्यालय से पूछकर बताता हूँ। तीसरा फोन मैंने अपने घर पर लगाया और पत्नी से बाहर जाने के लिए बैग तैयार करने कहा। गरम कपड़े रखने की याद विशेषतौर से दिलाई। क्योंकि मुंबई निवासियों को न तो गरम कपड़े पहनने की आदत होती है, न उनके पास ज्यादा गरम कपड़े होते ही हैं। तब तक शेषनारायण का फोन आ गया कि उन्हें भी कार्यालय से हरी झंडी मिल गई है। मैंने राहत की सांस ली। वास्तव में किसी नई जगह की ओर जाते हुए बडी पेयर (जोड़ा) में जाना ही ज्यादा ठीक रहता है। इससे कई त
ह की सुविधाएँ हो जाती हैं।

अब तक घड़ी दोपहर के एक बजाने लगी थी। घर से सामान लेकर ट्रेन पकड़ने के लिए मुंबई सेंट्रल पहुँच पाना कतई संभव नहीं था। चूँकि ट्रेन बोरीवली भी रुकनेवाली थी, इसलिए मैंने इसे बोरीवली से ही पकड़ने की योजना बनाई और ठाणे निवासी शेष को तीन बजे तक मेरे पवई स्थित घर पहुँचने को कहा। तब तक प्रशांत जी के निर्देश पर मुंबई कार्यालय से मेरी यात्रा के लिए आवश्यक धनराशि का प्रबंध हो चुका था। पश्चिम रेलवे की एक छोटी सी खबर बनाकर मैंने नोटपैड एवं कलम इत्यादि संभाली और रवाना हो गया घर के लिए। करीब पौने तीन बजे घर पहुँचा। शेष के आने तक चाय तैयार हो चुकी थी। दोनों ने मुश्किल से चाय के साथ कुछ बिस्कुट खाए। अब तक घड़ी ३:३० बजाने लगी थी। ऑटो रिक्शा से मेरे घर से बोरीवली स्टेशन का रास्ता करीब ५० मिनट का है। जबकि चार बजे मुंबई सेंट्रल से निकलनेवाली विशेष ट्रेन को बोरीवली पहुँचने में मुश्किल से आधे घंटे लगनेवाले थे। हमारे रास्ते में तीन मुंबइया सिग्नल भी पड़ गए तो गाड़ी छूट जाएगी, यह डर बराबर सता रहा था। इसलिए ऑटोचालक को अतिरिक्त टोल-टैक्स वाले आरे कॉलोनी के रास्ते से चलने को कहा। ऑटोचालक ने ठीक ४:१५ बजे हमें बोरीवली स्टेशन पहुँचा दिया। उसके जितने पैसे बनते थे, उससे १० रुपए ज्यादा देकर उसे धन्यवाद कहा और जा पहुँचे विशेष ट्रेन के प्लेटफॉर्म पर। पता चला ट्रेन अभी एक घंटा देर से आएगी। अब क्या किया जाए ? समय काटने के लिए फिर स्टेशन से बाहर जाकर यात्रा के दौरान काम आनेवाली कुछ चीजें खरीदीं। मसलन् दाढ़ी बनाने की मशीन, साबुन, दो-तीन पैकेट नमकीन इत्यादि, और पुनः प्लेटफॉर्म पर आ गए। अब तक ट्रेन एक घंटे और लेट हो चुकी थी। प्लेटफॉर्म पर तिल रखने की जगह नहीं थी। इलेक्ट्रॉनिक स
माचार माध्यमों से सूचना पाकर विशेष ट्रेन से कच्छ की ओर जानेवाले लोग तो स्टेशन पर जमा होते ही जा रहे थे, शाम हो जाने के कारण मुंबई की लोकल ट्रेनों के यात्रियों का भी आवागमन बढ़ता जा रहा था।

इंतजार करते-करते हमारे ट्रेन आई लगभग ७:३० बजे। भीड़ ऐसी कि घुसना मुश्किल। चूँकि यह ट्रेन आपातकाल परिस्थिति में चलाई गई थी, इसलिए किसी भी श्रेणी का कोई स्लीपर कोच नहीं लगाया गया था। सारे कोच लकड़ी की बर्थ वाले और भीड़ भेड़ियाधसान। लंबी यात्रा के लिए कम से कम बैठने की जगह तो चाहिए ही थी। यहाँ काम आई पत्रकारिता। लोगों से बातचीत शुरू की। नाम, गाँव, गाँव में कौन-कौन है, कुछ खबर मिली या नहीं। ये और इसके जैसे तमाम प्रश्न। लोग उत्तर देने लगे। खड़े-खड़े लिखने में दिक्कत होती देख उन्हीं लोगों ने बैठने की जगह भी दे दी। जैसे मुंह तक भरी बोरी को हिला दो तो दो-चार किलो अनाज और आ जाता है, वैसे ही ठसाठस भरे रेल के डिब्बे में दो
पत्रकारों के लिए जगह बन गई।

बातचीत जारी ही थी कि गाड़ी के विरार पहुँचते-पहुँचते चंदा जमा करनेवालों का एक समूह गाड़ी में चढ़ा। चंदा जमा किया जा रहा था – भूकंपपीड़ितों के लिए। भूकंपपीड़ितों के ही परिजनों से। बात कुछ हजम नहीं हुई। चंदा जमा करनेवालों को लताड़ मिलने लगी तो अगले स्टेशन पर ही उनका समूह उतर गया। मुंबई से निकलकर वापी पार करने के बाद ट्रेन ने गति पकड़ी। यात्री भी बातचीत करते-करते बैठे-बैठे ही झपकियाँ लेने लगे।

सुबह १० बजे गुजरात के ध्रांगधरा रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर गाड़ी थम गई। आगे नहीं जा सकती थी। क्योंकि भूकंप के कारण रेल पटरियाँ टेढ़ी हो गई थीं या जमीन में धंस गई थीं। ध्रांगधरा स्टेशन के अगल-बगल स्थित घरों पर भी भूकंप का
असर साफ दिख रहा था। वहाँ घर गिरे तो नहीं थे, लेकिन मोटी-मोटी दरारें पड़ गई थीं। लोग ट्रेन से बाहर आकर प्लेटफॉर्म पर लगे नलों पर दातून-कुल्ला कर रहे थे। उसी विशेष ट्रेन से मुंबई से चले कुछ राहत दल अपना सामान उतारने में लगे। कच्छ युवक संघ अपने साथ लाई खाने-पीने की सामग्री ट्रेन से उतरे यात्रियों में भी बाँट रहा था। क्योंकि सभी यात्री करीब २० घंटा पहले अपने घरों से निकले थे और मुंह में कुछ भी गया नहीं था। पूड़ियों के एक-एक पैकेट हमने भी लिए। खाते-खाते ही स्टेशन से बाहर आ गए।

ध्रांगधरा एक छोटा सा कस्बा है। गुजरात सरकार की ओर से यहाँ से गाँधीधाम और भुज की ओर जाने के लिए बसों की व्यवस्था निशुल्क की गई थी। बस अड्डे तक जाने के लिए कोई साधन तलाश रहा था, तभी एक आटोरिक्शा बगल में आकर रुका।
- साहब कहाँ जाएँगे ?
- बस स्टेशन।
- बैठिए।
- कितना लोगे ?
- अरे साहब पैसा कमाने के लिए तो ज़िंदगी पड़ी है। आज तो सेवा का मौका है।
यह थे दिलावर। जो अपने आटोरिक्शा पर लगातार लोगों को रेलवे स्टेशन से बस स्टेशन पहुँचाने का काम कर रहे थे, वह भी बिना पैसे
लिये।

बस अड्डे पर यात्रियों की कम से कम ४०० मीटर लंबी कतार लगी थी। एक बस आती तो कतार से ही यात्रियों को बैठाया जाता। देखकर पसीने छूट गए। इस कतार में तो नंबर पता नहीं कब आएगा। लिहाजा बस डिपो के इंचार्ज के पास जाकर अपना परिचय दिया और जल्दी छूटनेवाली बस में जगह दिलवाने की गुजारिश की। बताया गया कि कतार से अलग होकर बैठना है तो १०० रुपए का टिकट लेना होना। तब पहले आपको बैठा दिया जाएगा, फिर कतार में लगे निशुल्क
यात्रियों को बैठाया जाएगा। हमने दो टिकट ले लिए। हमारे जैसे कुछ और लोग भी सौ-सौ रुपए के टिकट ले रहे थे।

अगली बस में कंडक्टर वाली ही सीट पर बैठने की जगह मिल गई। क्योंकि टिकट पहले से दे दिए जाने एवं ज्यादातर निशुल्क सेवा वाले यात्री होने के कारण बस में कंडक्टर की जरूरत नहीं थी। घड़ी ११ बजा रही थी। मैंने बस के नीचे खड़े सुपरवाइजर से पूछा - गाँधीधाम का रास्ता कितनी देर का है ? उसने बताया साढ़े तीन घंटे लगते हैं। मन में हिसाब लगाया कि ढाई-तीन बजे तक पहुँच जाएँगे। दिन ही दिन में भूकंप का एक नजारा कर दो-तीन स्टीरो भेज देंगे। बस भी ठसाठस भर गई थी। ट्रेन की तरह यहाँ भी लोगों की प्रतिक्रियाएँ मिलनी शुरू हो गई थीं। अपना काम होता जा रहा था। सहयात्रियों में से ही एक मनोज नामक युवक से दोस्ती जैसी हो गई। दरअसल हमें जरूरत थी एक ऐसे दोस्त की, जो स्थानीय भाषा जानता हो। स्थानीय भूगोल एवं संसाधनों से परिचित हो। भायंदर में अपना व्यवसाय करनेवाले मनोज का गाँव भुज से करीब ३० किलोमीटर दूर था। उन्हें भी अभी पता नहीं था कि गाँव में उनके परिजनों का क्या हालचाल है। गाँधीधाम में रुकने ठहरने की चर्चा चली, तो मनोज ने ही बताया कि बस अड्डे के ठीक सामने एक मुकेश लॉज है , जहाँ रुका जा सकता है। वहाँ जगह न मिले तो रेलवे स्टेशन के ठीक सामने कच्छी सेनेटरी है, वहाँ भी रुका जा सकता है।

बात
करते-करते तीन बजने को आ गए। सुपरवाइजर के कहे अनुसार तो अब गाँधीधाम नजदीक ही होना चाहिए था। बस भी लगातार चलती जा रही थी। गाँधीधाम तक पहुँचने का अपना सवाल एक सहयात्री से दोहराया तो पता चला कि अभी तो कम से कम इतना ही समय और लगेगा गाँधीधाम पहुँचने में। क्योंकि सूरजबाड़ी का पुल भूकंप में टूट जाने के कारण बस दूसरे रास्ते से कच्छ की ओर बढ़ रही थी। यह सुनकर दिमाग झनझना उठा। यात्री भूख और प्यास से बेहाल होने लगे थे। बस रास्ते में जहाँ भी किसी ढाबे पर रुकी, या तो वहाँ खाना समाप्त हो चुका था, या फिर वह ढाबा ही बंद था। खाना और चाय तो दूर की बात, गला सींचने के लिए पानी तक लोगों के पास खत्म हो चुका था। बस में बच्चों के रोने की आवाजें आने लगी थीं। इस कष्ट की भयावहता और बढ़ा रहा था बाहर का दृश्य। भूकंप की तीव्रता के कारण हाइवे पर बड़ी मोटी-मोटी दरारों को देखकर लगता था कि कहीं बस का पहिया न अंदर घुस जाए। कच्छ का क्षेत्र जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा था, वैसे-वैसे गिरे हुए घरों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अंधेरा पसरने के साथ ये दृश्य दिखने बंद ही हुए थे कि हम वोंद कस्बे से गुजरे, जहाँ पहली बार चिताओं की रोशनी में पूरा गाँव लेटा हुआ सा दिखाई दिया। पहले वोंद, फिर भचाऊ।

अब गाँधीधाम ज्यादा दूर नहीं रह गया था। मुश्किल से ४५ मिनट बाद बस गाँधीधाम बस अड्डे पर खड़ी थी। घड़ी के कांटे शाम के आठ बजा रहे थे। गाँधीधाम - कांडला पोर्ट से बिल्कुल लगा हुआ छोटा से सुव्यवस्थित शहर। आजादी के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए सिंधियों और पंजाबियों द्वारा बसाया गया शहर। बाहर इतना घुप्प अंधेरा कि हाथ को हाथ न दिखाई दे। भूकंप के बाद से ही शहर में बिजली और टेलीफोन के खंभे गिर गए थे। इसलिए न तो पूरे शहर में कहीं रोशनी थी, न ही टेलीफोन काम कर रहे थे। मोबाइल फोन भी काम नहीं कर रहा था। क्योंकि उसके टावर भी गिर गए थे। बस से नीचे उतरते ही हमारे सहयात्री मनोज की निगाह उस मुकेश लॉज की ओर गई, जिसमें रुकवाने का आश्वासन वह हमें रास्ते भर देते आए थे। लॉज की तीन मंजिली इमारत धूल चाट रही थी। कोई बात नहीं। कच्छी सेनेटरी चलते हैं। मुश्किल से तीन सौ मीटर दूर थी। लेकिन सामान ज्यादा होने के कारण पैदल चलने की हिम्मत नहीं थी। पास खड़े एक आटोरिक्शा चालक से वहाँ पहुँचाने को कहा तो किराया बोला ३० रुपए। ३०० मीटर की दूरी और
किराया ३० रुपए। मुझे तुरंत ध्रांगधरा वाले दिलावर भाई याद आ गए। दुनिया में हर तरह के लोग हैं।

सामान पीठ पर लादा। १० मिनट में कच्छी सेनेटरी के सामने थे। लोहे का गेट बंद था। गेट खोलने के लिए हाथ आगे बढ़ाया ही था कि अंदर से टार्च की रोशनी हमारे चेहरों पर फेंकी गई।
कौन है ? सवाल कच्छी भाषा में पूछा गया था।
जवाब भी मनोज ने कच्छी में ही दिया। उसने बताया कि पत्रकार हैं। मुंबई से आए हैं। रुकने की जगह चाहिए।
सवाल पूछनेवाला सेनेटरी का चौकीदार था। उसने साफ मना कर दिया। बोला – सेनेटरी में कोई नहीं है। कोई अंदर सो नहीं सकता। लगातार भूकंप के झटके आ रहे हैं। बिल्डिंग कभी भी गिर सकती थी। चौकीदार स्वयं भी खुले आसमान के नी
चे कुर्सी पर कंबल लपेटकर बैठा था।

गाँधीधाम में दो तरह की इमारतें थीं। एक या दो मंजिला बंगले। अथवा तीन व चार मंजिला इमारतें। बंगले ज्यादातर सुरक्षित थे और इमारतें ज्यादातर गिर गई थीं। सेनेटरी भी दो मंजिला होने के कारण सलामत थी। लेकिन दरारें उसमें भी आ गई थीं। यहाँ तक कि चौकीदार हमारा सामान तक रखने को राजी नहीं हुआ। समस्या गंभीर थी। सामान लेकर घूमा नहीं जा सकता था। और खबर एक लाइन भी अब तक नहीं जा सकी थी। सेनेटरी से आगे शहर के अंदर की तरफ बढ़े तो एक दुकान में कुछ रोशनी दिखाई थी। कुछ मिलने की उम्मीद जगी। दुकान के सामने पहुँचे तो कुछ लोग चाय सुड़कते दिखाई दिए। चाय की जरूरत हमें भी बुरी तरह महसूस हो रही थी। दुकान पर सिर्फ काली चाय मिल रही थी। तीन चाय का आर्डर दिया। छोटे से गिलास में मिली चाय दो घूंट में ही खत्म हो गई। लेकिन कुछ राहत मिली। पानी की बोतल भी दुकान पर मिल गई थी। भूख-प्यास के कारण सिरदर्द हो रहा था। पानी मिला तो दवा खाई। चाय का आर्डर फिर से दिया। शायद बिस्कुट के दो-चार पैकेट भी खरीदे (इसके अलावा उस दुकान पर कुछ था भी नहीं)। ये वस्तुएँ उस समय हमारी जरूरत भी थीं, और इसलिए भी खरीद रहे थे, ताकि दुकानदार किसी तरह कुछ समय के लिए हमारा सामान रखने को राजी हो जाए। लेकिन काफी खुशामद के बावजूद वह तैयार नहीं हो रहा था।

तब तक कुछ लोग हाथ में टार्च लिए आते दिखाई दिए। मेरी आँखों में उम्मीद की चमक जाग उठी। घुटनों तक ख़ाकी नेकर, बाहें मुड़ी हुई सफेद शर्ट, सिर पर काली टोपी और पैरों में काले जूते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे ये। भूकंप राहत में लगे हुए। जरूर इनका कोई कैंप होगा आसपास। वहाँ हमें भी राहत मिल सकती है। इस उम्मीद के साथ निकट जाकर उन्हीं की शैली में दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार बोला। यह तो बताया ही कि दैनिक जागरण से आया हूँ, विशेष जोर देकर अपने पूर्व समाचार पत्र पांचजन्य का भी परिचय दे डाला और अपनी समस्या भी उन्हें बता दी। जैसी कि उम्मीद थी। राहत मिल गई। उन्होंने कहा – आइये मेरे साथ।

अंधकार में डूबे गाँधीधाम में स्वयंसेवकों के साथ टार्च की रोशनी में चलते हुए करीब १० मिनट में ही हम उनके राहत शिविर के सामने थे। दो मंजिला इमारत में बने कार्यालय को जनरेटर चलाकर रोशन किया गया था। लेकिन इमारत के अंदर कोई भी नहीं बैठा था। वही डर, कि कहीं फिर से भूकंप अपना कहर न बरपा दे। बाहर खुले आसमान के नीचे कुर्सी-मेज लगाकर काम चल रहा था। एक रजिस्टर पर कोई सज्जन भूकंपग्रस्त गाँवों – कस्बों के नाम लिखकर बैठे थे। इन गाँवों में राहत सामग्री पहुँचाने का काम चल रहा था। लगभग हर १५ मिनट पर एक ट्रक राहत शिविर के सामने आकर रुकता। यह पता किया जाता कि ट्रक में क्या है ? जो सामान अधिक मात्रा में होता, उसे उतरवाकर उसमें आवश्यकता की दूसरी वस्तुएँ लादी जातीं, और ट्रक के साथ एक स्वयंसेवक को मार्ग दिखाने के लिए बैठाकर आगे रवाना कर दिया जाता। ये ट्रक देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आ रहे थे। जिन्हें सही गंतव्य पर भेजने का काम संघ की स्थानीय इकाई कर रही थी।

हमें सिर्फ सामान रखने भर के लिए हॉल में जाने की अनुमति दी गई। हम सामान झट से रखकर बाहर आ गए। जो सज्जन हमें लेकर आए थे , उन्होंने हमें मुंह हाथ धोकर कुछ खा लेने का आग्रह किया। किसी गुरुद्वारे से खिचड़ी के पैकेट बनकर आए थे। मुंह-हाथ धोकर खिचड़ी का एक पैकेट खाया और पानी पिया तो शरीर में जान आई। वैसे स्वाद की खिचड़ी उसके बाद कभी खाई हो, मुझे याद नहीं आता।

रात के १०.३० बज रहे थे। गाँधीधाम पुलिस थाना पांच मिनट की ही दूरी पर था। खबरों का बेहतरीन स्रोत इस समय वही नजर आ रहा था। हम चल पड़े थाने की ओर। थाना भी खुले आसमान के नीचे ही काम कर रहा था। थाने पहुँचकर अभी परिचय ही दे रहा था कि लोग उठकर अचानक भागने लगे। पता चला, फिर से भूकंप का झटका महसूस किया गया है। हालांकि मुझे यह झटका महसूस नहीं हुआ था। शायद, ट्रेन और बस में लंबी यात्रा करके आने के कारण पहले से घूम रहा मेरा शरीर इस झटके को महसूस न कर पाया हो। जल्दी ही फिर सब सामान्य हो गया। थानेदार ने काफी जानकारियाँ दीं। खबरों के कई कोण मिले। लेकिन समस्या थी खबर भेजने की। न फोन काम कर रहा था, न मोबाइल। बिजली पूरे कच्छ से गुल थी। अचानक थानेदार को याद आया कि आज शाम से गाँधीधाम के टेलीफोन एक्सचेंज से सैटेलाइट (उपग्रह) संचालित टेलीफोन की एक लाइन शुरू की गई है। आप चाहें तो जाकर वहाँ से फोन कर सकते हैं। थानेदार ने वहाँ तक पहुँचने का साधन भी मुहैया करवा दिया। वहाँ बैठे एक स्थानीय भाजपा नेता अपनी कार से उधर ही जा रहे थे। थानेदार ने हमारा परिचय करवाया तो वह हमें एक्सचेंज तक छोड़ने को राजी हो गए। एक्सचेंज करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था। जल्दी ही पहुँच गए। लेकिन वहाँ फोन करनेवालों की कतार देख पैरों तले की जमीन खिसकने लगी।

गाँधीधाम दरअसल कांडला पोर्ट से सटा हुआ शहर है। कांडला पोर्ट पर समुद्र के रास्ते बड़े पैमाने पर लकड़ी के लट्ठों का आयात होता है। इन लट्ठों की कटाई-चिराई और उससे पटरे बनाने या प्लाईवुड और बीनियर बनाने का काम गाँधीधाम और उसके इर्द-गिर्द काफी फैला हुआ है। मेहनत के इस काम में ज्यादातर बिहार, उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ से आए लोग लगे हुए हैं। कच्छ के नमक उद्योग में भी इन्हीं मेहनतकशों की संख्या ज्यादा है। लिहाजा उस दिन फोन करने के लिए लगी कतार में भी यही लोग अधिक थे, जो अपने गाँव-घर या परिचितों को सिर्फ यह बताने के लिए फोन कर रहे थे कि वे ज़िंदा और सही सलामत हैं। किसी को भी एक बार से ज्यादा फोन मिलाने की अनुमति नहीं मिल रही थी। लोग अपने आप भी दूसरों का कष्ट समझकर एक बार में फोन न मिलने पर दूसरे को मौका देते जा रहे थे।

मुझे अपनी बात अपने परिजनों तक नहीं बल्कि देश तक पहुँचानी थी। लेकिन कतार में लगकर फोन तक पहुँचने तक तो अख़बार की डेडलाइन भी निकल जाने का ख़तरा था। टेलीफोन की मेज के दूसरी ओर एक कुर्सी तो रखी थी, लेकिन उस पर कोई अधिकारी नहीं था, जिससे अपना प्रेस का परिचय बताकर सहयोग मांगा जा सके। अचानक एक विचार मन में कौंधा। क्यों न खुद ही अधिकारी बन जाया जाए। अधिकारियों वाले रौब के साथ पूरी कतार के दो चक्कर लगाए, फिर जाकर बिना झिझक खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ फोन का मुंह अपनी तरफ घुमा लिया। इसके अलावा कोई चारा नहीं था। नंबर डायल करते ही नोएडा कार्यालय की घंटी घनघनाई। जल्दी ही उधर से समाचार संपादक विनोद शील की आवाज सुनाई थी। मेरे आग्रह पर उन्होंने फोन संपादकीय विभाग के एक साथी को दिया। जिसे कुछ मिनट पहले थानेदार से मिली सारी सूचनाएँ एवं रास्ते के अनुभव मैंने १० मिनट में लिखवा दिए और खबर स्वयं बना लेने का आग्रह किया। चूँकि में कुर्सी पर बैठकर फोन कर रहा था, और बातें भी पारिवारिक के बजाय भूकंप में हुई तबाही की कर रहा था, इसलिए कतार में खड़े लोगों ने कोई बाधा नहीं डाली। मेरी बात समाप्त हुई तो तुरंत ही दूसरा फोन घर को लगा दिया। सिर्फ दो लाइन की सूचना दी, कि मैं ठीकठाक पहुँच गया हूँ। यहाँ भी ठीकठाक हूँ। और यही सूचना हमारे साथ आए पत्रकार शेषनारायण के घर भी पहुँचाने का आग्रह कर फोन काटा और टेलीफोन अधिकारी की कुर्सी छोड़ दी। मेरा काम हो चुका था।

आते समय तो कार से आ गए थे। लौटना पैदल था। रात के १२.३० बज रहे थे। सर्दियों के दिन में वैसे भी रात में सन्नाटा छा जाता है, यहाँ तो भूकंप की भयावहता भी अपना असर दिखा रही थी। जैसे हम श्मशान में टहल रहे हों। संघ के राहतशिविर या पुलिस स्टेशन तक पहुँचने के लिए रास्ता बतानेवाला भी कोई नहीं दिख रहा था। कई जगह इमारतें इस प्रकार एक-एक मंजिल धंस गई थीं कि दुकानों में ऊपर लगाए जानेवाले साइनबोर्ड जमीन के समानांतर नजर आ रहे थे। कुछ गिरी इमारतों के ऊपर कुत्ते कुछ सूंघते नजर आ रहे थे। अनुमान के आधार पर हम पुलिस स्टेशन की दिशा में चलते जा रहे थे। चलते-चलते लघुशंका की जरूरत महसूस हुई। लेकिन हिम्मत नहीं पड़ रही थी इस जरूरत को पूरा करने की। न जाने कहाँ, कौन दफन हो गया हो। चलते-चलते करीब आधे घंटे में हम राहत शिविर पहुँच गए। वहाँ ट्रकों का आना-जाना और तेज हो गया था। बरामदे में एक तरफ रजाई-गद्दों के ढेर लगे थे। संघ के एक अधिकारी से हमने विश्राम करने के लिए जगह सुझाने को कहा तो उसने उन्हीं रजाई-गद्दों की ओर इशारा करते हुए उन्हें बाहर फुटपाथ पर बिस्तर लगाने का सुझाव दिया। क्योंकि भूकंप आने की स्थिति में वही सबसे सुरक्षित जगह थी। वास्तव में, भूकंप के कहर से सुरक्षित बच गया पूरा गाँधीधाम फुटपाथ पर ही सो रहा था। घर में ताला लगाकर अपनी ही बाउंड्रीवाल के किनारे तंबू तानकर या ओस और शीत से बचने के लिए कोई मोटी चादर तानकर सभी लोग फुटपाथ पर ही सो रहे थे। हमने भी संघ कार्यालय के बाहर स्थित एक सेप्टिक टैंक के ऊपर दो गद्दे डालकर कमर सीधी करने की जगह बना ली। लगातार आते-जाते ट्रकों एवं स्वयंसेवकों की बोलचाल के बीच नींद तो मुश्किल से ही आनी थी। सर्दी की ठिठुरन भी अपना रंग दिखा रही थी। बड़ी मुश्किल से रात कटी।

सुबह होते ही एक नई परेशानी। नित्यक्रिया के लिए कोई जगह ढूंढनी थी। संघ कार्यालय में बने भूमिगत टैंक में पानी खत्म होने को आ रहा था। तीन दिन से बिजली न होने के कारण पानी की आपूर्ति ही नहीं हुई थी। सोचा रेलवे स्टेशन की ओर चला जाए। वहीं कुछ व्यवस्था हो सकती है। अब तक मिले सहयोग के लिए संघ के कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देकर यह कहते हुए बाहर निकले कि यदि कहीं और जगह न मिली तो रात में फिर लौटकर यहीं आऊंगा। चूँकि सबेरा हो चुका था, इसलिए रेलवे स्टेशन की ओर चलते-चलते अगल-बगल की इमारतों का मुआयना भी करते जा रहे थे। ऐसे ही मुआयने के दौरान निगाह एक गुरुदारे पर गई। गुरुद्वारे के भी ऊपरी हिस्से पर कुछ दरारें नजर आ रही थीं। वहाँ की स्थिति जानने के लिए गुरुद्वारे के द्वार पर खड़े लोगों से कुछ बातें करके हम आगे बढ़ने लगे। तभी किसी ने पूछा – चाय पिएँगे ? अंधा क्या चाहे , दो आँखें। हमने तुरंत हाँ कह दी। वह व्यक्ति अंदर जाकर हम तीनों के लिए चाय लेकर आया। चाय पीकर आगे बढ़ने से पहले हमने गुरुद्वारे के ही लोगों से बड़े संकोच के साथ पूछ लिया –
हम स्नान करना चाहते हैं, आपके यहाँ बाथरूम है क्या ?
सरदार जी का जवाब तुरंत हाँ में मिला। उन्होंने हमें ले जाकर एक कमरे में रुकवाया। और बाथरूम दिखा दिया। अब हमने उन्हीं से भुज जाने के लिए किसी साधन के इंतजाम की बात की तो उन्होंने कहा कि आप स्नान आदि करके नाश्ता कीजिए, तब तक गुरुद्वारे के महासचिव सरदार मोहिंदर सिंह जी आ जाएँगे। वह आपकी हर तरह से मदद करेंगे।

और ऐसा ही हुआ। सरदार मोहिंदर सिंह के रूप में मानो कोई देवदूत मिल गया हो हमें। उनके आने तक हम पूरी तरह फ्रेश हो चुके थे। मोहिंदर सिंह ने पहले तो हमारे लिए नाश्ते का प्रबंध किया। फिर हमें अपनी ही गाड़ी पर बैठाकर हमारी भुज यात्रा के लिए दूसरी गाड़ी तलाश करने निकल पड़े। मोहिंदर सिंह जी व्यवसाय से ट्रांसपोर्टर हैं। समाजसेवा उनकी रगों में बहती है। बहुत कोशिश के बाद भी जब वह हमारे लिए कोई टैक्सी नहीं खोज पाए तो अपने ही घर में खड़ी एक मारुति-८०० का उपयोग करने की ठान ली। ड्राइवर की सीट पर उन्होंने अपनी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करनेवाले एक ६५ वर्षीय बुजुर्ग मैकेनिक को बैठा दिया। सामान गुरुद्वारे में ही छोड़कर हम भुज की ओर चल पड़े, जिस पर इस भूकंप की मार सबसे ज्यादा पड़ी थी।

गाँधीधाम से निकलने के बाद सबसे पहले हमें अंजार से गुजरना पड़ा। जिंसों की रिपोर्टिंग करनेवाले अपने एक पत्रकार मित्र से अंजार की चांदी की ख्याति बहुत सुन रखी थी। लेकिन आज अंजार का दयनीय स्वरूप सामने था। सेना और पुलिस के लोग मशीनों से मलबे उठाने का काम कर रहे थे। मलबे के नीचे दबे लोगों में से कुछ के बचे रहने की उम्मीद थी। ऐसे कई मामले सामने भी आ रहे थे , जहाँ तीन दिन से दबे रहने के बावजूद लोगों को जिंदा निकालने में सफलता मिली थी। अंजार में ही नगर निगम के एक ऐसे अधिकारी के बारे में सुनने को मिला, जिसका पूरा परिवार भूकंप निगल गया था। इसके बावजूद वह अधिकारी पूरी कर्तव्यनिष्ठा से लोगों की मदद में जुटा हुआ था। आज यह रिपोर्ताज लिखते हुए उस अधिकारी में ताज होटल के उस मैनेजर कर्मवीर सिंह कांग का चेहरा दिखाई देता है, जो २६/११ के हमले में अपने परिवार की शहादत के बावजूद होटल के अतिथियों की मदद करते रहे थे। इसी अंजार में जैसल-तोरल की समाधि का भी पता चला , जो अतीत में किसी डाकू और एक राजकुमारी की प्रेमकथा से जुड़ी हैं। लोगों का कहना था कि अगल – बगल बनी ये दो समाधियाँ हर साल एक-एक सूत नजदीक आती जा रही हैं। लोगों का यह भी मानना है कि जिस दिन ये समाधियाँ एक दूसरे से मिल जाएँगी , उस दिन दुनिया में प्रलय आ जाएगी। वास्तव में प्रलय तो मैं प्रत्यक्ष देख रहा था। जबकि जैसल-तोरल की समाधियाँ आज भी दूर-दूर दिख रही थीं।

अंजार में जगह-जगह लोग मलबों में अपनों को ढूंढते नजर आ रहे थे। गाँधीधाम से करीब ५० किलोमीटर दूर है कच्छ का सबसे पुराना शहर भुज। भूकंप में १२,००० लोग इस शहर में ही मारे गए। जबकि पूरे गुजरात में मरनेवालों की संख्या करीब २०,००० थी।

भुज शहर में प्रवेश करने से पहले सड़क के किनारे बैठे एक लंबे-तगड़े बुजुर्ग से जानना चाहा कि शहर के किस हिस्से में सर्वाधिक नुकसान हुआ है। उन्होंने बड़े विस्तार से पूरे शहर की जानकारी दे दी। गाड़ी आगे बढ़ने से पहले मैंने उनसे पूछा कि आपके परिवार में तो सब ठीकठाक है ना ?
जवाब मिला – दो बेटे , तीन बहुएँ और पांच पोते-पोतियाँ हमारे भी नहीं रहे। जैसे सबके गए हैं, वैसे ही मेरे भी गए हैं। क्या कर सकते हैं। ऊपर वाले की मर्जी।
सुनकर हम ठगे से रह गए।

आगे बढ़े। पुराने भुज की ओर। भुज वास्तव में दो हिस्सों में बंटा है। पुराना भुज और नया भुज। भूकंप का ज्यादा नुकसान पुराने भुज को उठाना पड़ा था। क्योंकि यह बहुत घनी बस्तियोंवाला शहर था। जो घर गिर गए, वहाँ तक राहत टीम का पहुँचना भी आसान नहीं था। इस क्षेत्र में चांदी की कसीदाकारी करनेवाले हुनरमंद कारीगरों के घर ज्यादा थे। उन्हें जन और धन दोनों का नुकसान उठाना पड़ा। भुज में भूकंप के चौथे दिन भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आ पाई थी। सेना के जवान मलबों को हटाने और लाशें जलाने में लगे थे। इस भूकंप में कई स्कूल और दो अस्पताल ढह गए थे। एक स्कूल में तो गणतंत्र दिवस से पहले निकल रही बच्चों की यात्रा पर उनके स्कूल की बाउंड्रीवाल गिर जाने से दर्जनों बच्चे मारे गए थे। एक सरकारी अस्पताल ढह जाने से सौ से ज्यादा मरीज और उनके रिश्तेदार मारे गए थे। शाम को गाँधीधाम लौटने पर पता चला कि गाँधीधाम में दो की संख्या से शुरू होनेवाले सारे टेलीफोन नंबरों में सैटेलाइट फोन की वह सेवा सक्रिय कर दी गई थी, जो एक दिन पहले सिर्फ टेलीफोन एक्सचेंज में चालू की गई थी। यह हमारे लिए एक खुशखबरी थी। क्योंकि गुरुद्वारे का भी एक नंबर दो की संख्या से शुरू होता था। वैसे तो गुरुद्वारे के इस नंबर पर भी फोन करनेवालों की भीड़ लगी थी। लेकिन सरदार मोहिंदर सिंह ने अपने ट्रांसपोर्ट कार्यालय का फैक्स मंगाकर कुछ समय के लिए इस नंबर से जोड़ दिया और हमारी खबरें नोएडा कार्यालय में लैंड कर गईं। भुज के संचार संकट के बीच हम संभवतः पहले पत्रकार थे, जिसे फैक्स की सुविधा मिल पाई थी। मैं देखकर आया था, भुज में रहकर रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों की खबरें आज भी जाने की स्थिति नहीं बन पा रही थी। क्योंकि वहाँ न तो लैंडलाइन फोन काम कर रहे थे, न मोबाइल। रात को गुरुद्वारे की बाउंड्रीवाल से सटाकर खड़े किए गए तंबू में अन्य लोगों के साथ हमें भी जगह मिली। दो दिन व दो रातों की थकान के कारण उस तंबू में भी अच्छी नींद आई।

अगले दिन सरदार मोहिंदर सिंग भचाऊ की ओर जा रहे थे। ये कस्बा हमें कच्छ में प्रवेश करते समय दिखाई दिया था। लेकिन तब बस से उतरना संभव नहीं था। अवसर का लाभ लेते हुए उनके साथ हो लिए। आज भूकंप का पांचवां दिन था। लाशें सड़ने लगी थीं। सड़ांध की दुर्गंध गाड़ी के चारों कांच बंद होने के बावजूद गाड़ी में घुसती जा रही थी। इस दुर्गंध में भी स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं मिलिट्री के जवान लाशें खोजने, निकालने एवं उनकी अंतिम क्रिया में लगे थे। भुज हो या भचाऊ, अंजार हो या रापर, कहानी सब जगह एक सी ही थी। कुछ मौसम की मार, कुछ थकान और कुछ तीन दिन से देखते आ रहे वातावरण का असर। अगली सुबह फुटपाथ के तंबू में नींद खुली तो हल्की हरारत महसूस हो रही थी। लिहाजा मुंबई लौटने का फैसला करना पड़ा। आँखों में बसे भूकंप के कई भयावह दृश्यों और सड़ी हुई लाशों की दुर्गंध के साथ।

२३ जनवरी २०१२