हास्य व्यंग्य | |
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टीवी में गरीबी
कहाँ |
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अहा ! दूरदर्शन या टीवी का नायाब तोहफा इंसान की जिंदगी में क्या आया कि दुनिया धीरे-धीरे श्वेत-श्याम से रंगीन होती चली गई। दो-चार सप्ताह की सब्र हो तो अब थिएटर में जाकर फिल्म देखने के लिए धक्के खाने नहीं पड़ते। स्टेडियम में मैच न देख पाने के गम को घर में बैठकर खुशी में बदला जा सकता है। जो है, सो --केबल ने दिलोदिमाग के साथ ऐसे तार जोड़े कि जो सुख लूटना चाहें, रिमोट दबाकर लूट सकते हैं। किसी को बाबाओं के प्रवचन से मुक्ति और शांति मिल रही है तो कोई सास-बहुओं के झगड़े में परनिंदा का असीम आनंद उठा रहा है। वे दिन लद गए जब गाँव की चौपाल में महफिल जमा करती थी। अब वहाँ भी कुत्तों का साम्राज्य है। आपसी बातचीत में सुख-दुःख बाँटने, दूसरों के घर जाकर उनका कुशलक्षेम पूछने में झिझक महसूस होती है। प्राइम टाइम में कभी भूले से किसी के घर चले जाएं, अपने आप को उपेक्षित महसूस करेंगे। यह समय टीवी के पात्रों के आवभगत का होता है। सारी मोहमाया, संवेदना, प्रेम, स्नेह व तिरस्कार धारावाहिकों के निर्जीव पात्रों में समाती चली जा रही है। कई इन पात्रों के समस्याओं और समाधानों से इतने अभिभूत हो उठते हैं कि उन्हें उचित सलाह देने से भी नहीं चुकते हालाँकि उनकी सलाह गंधहीन कपूर की तरह हवा में उड़ जाती है। कुछेक घरों में उनकी समस्याएँ विचार-विमर्ष का सबब तक बन जाती हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि धारावाहिकों का यह निरंतर प्रसारण देखनेवालों को मानसिक रूप से बीमार कर रहा है। लोगों के पास खाने को न हो पर टीवी खरीदना जरूरी है। खाना आजकल मिलावटी हो चला है। उससे शरीर और दिमाग को शक्ति नहीं मिलती लेकिन टीवी में जो कुछ दिखाई देता है वह सब खालिस है। उससे हर समस्या से मुक्ति मिलती है। जो बंदा सारे दिन टीवी देखेगा उसे भला कोई समस्या क्यों कर होगी। समस्या उन लोगों को होती है जो दर दर रोजी रोटी की तलाश में भटकते हैं। भई अगर दो रोटी का जुगाड़ हो तो रोजी के लिये भटकने जैसे अपमानजनक काम की अपेक्षा टीवी के सामने शान से जिंदगी गुजारना कहीं अधिक सम्मान जनक है। चाहे सुबह देखो या दोपहर या रात। टीवी के तीन सौ चालीस चैनल हमेशा आपकी सेवा में चालू रहते हैं। कई टीवी चैनल प्राइम टाइम को विषेष अहमियत देते हैं जो कि लगभग रात आठ से दस बजे तक का होता है। उनका मानना है कि थके-मांदे लोगों को इस समय मूर्ख बनाना अधिक आसान है। इसी के चलते उनकी टीआरपी भी बढ़ती है। टीआरपी भी भविष्यवाणी की तरह अंधेरे में फेंका गया भोथरा भाला है। अनुमानों का खेल। इसी तरह जब रात का अंधेरा आप को सुलाने के लिए लोरी सुनाने लगता है तो भूत-प्रेत, डाकिनी-शाकिनी, अघोरी-तांत्रिक डराने और आतंकित करने चले आते हैं। आदमी की आदम सोच जो ठहरी। दीदें फाड़कर देखी जाती हैं ये धारावाहिक क्योंकि डर में भी एक रस है। इसका मजा क्यों न लिया जाय। हद तो अब यह है कि समाचार चैनलों
में भी समाचार सत्यकथा की चाशनी में डुबोकर परोसे जा रहे हैं और इसकी होड़ लगी हुई
है। आपराधिक पृष्ठभूमि की खबर हो तो ये खबरिया चैनल इनमें कल्पना की खेती कर उसे
नाटकीय रूप में इस तरह पेश करते हैं कि षेक्सपीयर का सिंहासन भी डोल जाय। मानो खबर
न हुई, कोई मेलोड्रामा हुआ। तभी तो इन्हें खबरिया चैनल कहा जाने लगा है। टीवी पर
चलते धारावाहिकों और अन्य कार्यक्रमों में लाखों-करोड़ों की बातों से कहीं भी नहीं
लगता कि इस देष में गरीबी या भुखमरी है। टीवी की चमक में सब कुछ चमकता है। कहीं कोई
धुंध नहीं, गुबार नहीं दरिद्रता का संसार नहीं। |
१६ जनवरी २०१२ |