वे पत्रिकाएँ जिनमें बच्चों के अनुकूल साहित्य
प्रकाशित होता है, बाल पत्रिकाएँ कही जाती हैं।
मनोरंजन, शिक्षा और बच्चों की भावना – इन तीन बिंदुओं
के इर्द–गिर्द ही बाल पत्रिकाओं के उद्देश्य का
निर्धारण उनके संपादकों द्वारा होता रहा है। बाल
पत्रिकाओं में जो कुछ भी प्रकाशित होता है, वह कमोबेश
इन्हीं तीन दृष्टिकोणों से आप्लावित होता है। यह फिर
एक अलग मुद्दा है
कि प्रकाशकों का व्यावसायिक दृष्टिकोण भी इस निर्धारण
में अपना दखल रखता है।
साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन ही है – यह मानने वालों
की कमी नहीं है। ऐसे लोग यह भी मानते हैं कि बच्चों की
पत्रिकाओं का उद्देश्य मनोरंजन ही होना चाहिए, क्योंकि
बच्चा हर कहीं परिवार में, समाज में, कक्षा में विविध
प्रकार की शिक्षाओं से घिरा होता है तथा उन्हें
शिक्षित करने के असामान्य तरीके उन्हें अन्यमयस्क
बनाते हैं।
दूसरी तरफ़, एक ऐसा वर्ग भी है जो मनोरंजन के साथ–साथ
शिक्षा को भी बाल पत्रिकाओं का उद्देश्य मानता है। इस
वर्ग की नज़र में, ठीक है कि बच्चों का मनोरंजन हो,
लेकिन अंततः बच्चों को शिक्षा की सीख की ज़रूरत है,
ताकि वे समाजानुकूल बन सकें। इस प्रकार यह वर्ग मानता
है कि बाल पत्रिकाओं का मूल उद्देश्य शिक्षा ही है,
मनोरंजन तो उस पर
लिपटा हुआ आकर्षक रैपर मात्र है।
एक तीसरा वर्ग भी है, जो बाल पत्रिकाओं के उद्देश्य का
निर्धारण 'बच्चों की भावनाओं' के इर्द–गिर्द करना
चाहता है। इसके अनुसार बच्चों को मनोरंजन और शिक्षा,
दोनों की ज़रूरत तो है, लेकिन वे उनकी रुचि, परिवेश और
भावना के अनुकूल हों, यह सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। आज के
बच्चों का परिवेश क्या है? वे वैज्ञानिक युग में जी
रहे हैं, लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं तथा उनकी
निष्कलुष भावना सबको समान नज़रिए से देखना चाहती है।
ऐसे में उनके नज़रिए को विकसित करने की आवश्यकता है, न
कि इसे कुंद करके उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत
अलग नज़रिया प्रतिस्थापित करने की।
पूर्वोक्त तीन बिंदुओं के अंतर्गत ही मुझे पिछले पाँच
वर्षों के दौरान प्रकाशित बाल पत्रिकाओं की भूमिका पर
विचार करना उपयुक्त प्रतीत होता है।
मनोरंजन बाल साहित्य में मुख्यतः दो रसों का परिपाक
होता है... हास्य रस और अदभुत रस। इनसे जुड़ी बाल
रचनाएँ हैं– चुटकुले, हास्य से परिपूर्ण कहानियाँ,
कार्टून और चमत्कारिक ह्यभूत–प्रेत, राक्षसों, परियों
और अदभुत घटनाओं वालीहृ कहानियाँ या ऐसी कहानियों पर
चित्रकथाएँ।
हास्य बाल साहित्य कमोबेश सभी बाल पत्रिकाएँ प्रकाशित
करती हैं। यहाँ विशेष रूप से लोटपोट और मधु मुस्कान का
नाम लिया जा सकता है। ये दोनों पत्रिकाएँ लंबे अरसे से
निकल रही हैं। उन्होंने अपने नाम के अनुरूप ही बच्चों
के लिए अधिकाधिक मनोरंजक सामग्री पेश करने का प्रयास
किया है, जो चुटकुलों, हास्यकथाओं और चित्रकथाओं के
रूप में हैं।
बालहंस पत्रिका ने भी समय–समय पर हास्य रचनाओं का
विशेष रूप से समायोजन किया है।
दूसरी तरफ़, कुछ इनी–गिनी पत्रिकाओं को छोड़कर प्रायः
सभी बाल पत्रिकाएँ चमत्कारपूर्ण मनोरंजक बाल साहित्य
का प्रकाशन नियमित रूप से करती हैं। इस संदर्भ में
विशेष रूप से चंदामामा, गुड़िया, नव मधुवन, नन्हे
सम्राट, दोस्त और दोस्ती तथा नंदन पत्रिकाएँ उल्लेखनीय
हैं। इन पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में भूत–प्रेत,
राक्षस और परियों से जुड़ी रचनाएँ प्रकाशित की हैं,
जिनमें जादुई और चमत्कारपूर्ण घटनाओं का आधार लिया गया
है। इस बीच नंदन और बालहंस ने परी कथा विशेषांक भी
प्रस्तुत किए हैं।
शैक्षिक बाल साहित्य के मुख्यतः तीन रूप हैं –
सूचनात्मक, विचारात्मक और भावनात्मक। सूचनात्मक रचनाएँ
वे हैं, जिनमें सीधे–सीधे सूचनाएँ दी जाती हैं। ऐसी
रचनाएँ 'क्या आप जानते हैं?' 'इसे भी जानों' जैसे
शीर्षकों के अंतर्गत चित्ररहित या चित्रसहित प्रकाशित
होती हैं। विचारात्मक शैक्षिक साहित्य के अंतर्गत
विविध संदर्भों से जुड़े जानकारीपूर्ण आलेख आते हैं।
जबकि भावात्मक शैक्षिक बाल साहित्य वे रचनाएँ हैं,
जिनके द्वारा बच्चों की मनोभावना को कुरेद कर उन्हें
मनोवांछित शिक्षा या सीख देने का प्रयास किया जाता
है।
सूचनात्मक शैक्षिक साहित्य प्रायः सभी बाल पत्रिकाएँ
प्रकाशित करती हैं। जबकि विचारात्मक बाल साहित्य
प्रकाशित करने वाली कुछेक पत्रिकाएँ ही हैं। इस संदर्भ
में प्रमुखतः सुमन सौरभ, बालहंस, बाल भारती, समझ
झरोखा, बालवाणी, शिशु सौरभ और चकमक का नाम लिया जा
सकता है। इस मायने में चकमक विशिष्ट है। यह बच्चों के
लिए संभवतः एकमात्र विज्ञान पत्रिका है। यह एक
महत्वपूर्ण शैक्षिक पत्रिका है, जिसमें सरल ढंग से
विज्ञान संबंधी
जानकारियाँ दी जाती हैं, जो सहज ही बच्चों
तक संप्रेषित हो जाती हैं।
भावात्मक शैक्षिक साहित्य सभी बाल पत्रिकाओं में
प्रकाशित होता है, हालाँकि व्यक्ति सर्वदा सीखता ही
रहता है। परंतु बच्चों के बारे में ख़ास कर यह धारणा
रूढ़–सी हो गई है कि उन्हें तो बस सीखना ही सीखना है।
इसलिए इस तरह का साहित्य कमोबेश सभी पत्रिकाएँ
प्रकाशित करती हैं, जिनमें कविता, कहानी या एकांकी के
ज़रिए कहीं न कहीं किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रदान
किए जाने का उद्देश्य होता है। यह ज़रूर है कि इस तरह
की साहित्य–रचना में सर्वदा यह सावधानी बरती जाती है
कि जो भी शिक्षा हो वह सहज, सरल और रोचक ढंग से रचना
में पिरोई जाए, ताकि बच्चों को वह बोझिल न करें। फिर
भी ज्ञान–विज्ञान की जानकारियों से बोझिल कुछेक रचनाएँ
आ ही जाती हैं।
बच्चों की भावनाओं से जुड़ा बाल साहित्य बहुत ही कम
प्रकाशित हो रहा है। यहाँ उल्लेखनीय है कि बच्चों की
भावनाओं जुड़ा बाल साहित्य से मेरा मतलब ऐसे बाल
साहित्य से है जो बड़ों की आरोपित इच्छाओं और मान्यताओं
से मुक्त और बच्चों की नैसर्गिक मनोभावना से संपृक्त
हो। ऐसा साहित्य अधिकाधिक रचा जाए और वह प्रकाशित होकर
बच्चों तक पहुँचे। यह एक लंबे समय से बाल
साहित्य–समालोचकों के बीच गंभीर चर्चा का विषय रहा है।
इस चर्चा से जुड़े समालोचकों ने अपने द्वारा संपादित
बाल पत्रिकाओं में ऐसे बाल साहित्य को प्रमुखता से
सामने लाने के प्रयास भी किए हैं। कुल मिलाकर इन
चर्चाओं और प्रयासों का यही प्रभाव रहा है कि किसी
अन्य बाल पत्रिका के लिए ऐसा साहित्य संपूर्णतः या
अंशतः प्राथमिकता तो नहीं बना, परंतु बिल्कुल हाशिए पर
भी नहीं गया। ऐसे साहित्य से संपादकों को विरोध नहीं है। यह
साहित्य प्रायः बाल पत्रिकाओं में छिटपुट रूप से छपता
रहता है।
'बच्चों की भावना' का आधार लेकर ही पिछले दशक में एक
रचनात्मक आंदोलन भी बाल साहित्य–जगत में चर्चा का विषय
रहा है। यह आंदोलन है... बच्चों की भावना से जुड़ा
बाल–साहित्य अधिकाधिक रचा जाए, इसके लिए बाल किशोरों
को रचना–क्रम से जोड़ा जाए। उनकी रचनात्मकता को
प्राथमिकता और महत्ता के साथ सामने लाया जाए। पिछले
दशक में इस आंदोलन का वैचारिक आधार तैयार करने का
श्रेय 'किशोर लेखनी' पत्रिका को जाता है। 'किशोर
लेखनी' ने इस संदर्भ में अपने अंक निकाले हैं और इस
वैचारिक चर्चा में साहित्य के महत्त्वपूर्ण
हस्ताक्षरों को भी शामिल किया है। विभिन्न
आरोपों–प्रत्यारोपों के बीच इसने बाल किशोरों की
रचनात्मकता की महत्ता के लिए संघर्ष किए हैं। इसकी
वैचारिक अवधारणा के अनुसार 'बाल–किशोर' अपनी भावनाओं
और समस्याओं के सबसे ज़्यादा क़रीब होते हैं, इसलिए उनसे
जुड़ा श्रेष्ठ बाल साहित्य उनकी लेखनी में निश्चय ही
पाया जाता है।'
यों बाल पत्रिकाओं या बाल परिशिष्टों में बाल किशोरों
की घुसपैठ प्रतियोगिताओं के माध्यम से होती रही है,
परंतु 'किशोर लेखनी' ने यह सवाल उठाया कि
प्रतियोगिताओं के माध्यम से बच्चों की रचनात्मकता का
उचित प्रस्तुतीकरण नहीं हो पाता है, क्योंकि उनकी
अधिकांश अच्छी रचनाएँ इस आधार पर प्रतियोगिताओं से हटा
दी जाती हैं कि ये रचनाएँ हो ही नहीं सकतीं, जबकि
प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए बच्चे अपनी
रचनात्मकता की बेहतर से बेहतर प्रस्तुति करने के
प्रयास करते हैं, ताकि वे सर्वश्रेष्ठ घोषित किए जाएँ।
दूसरी तरफ़, यदि उनकी बेहतर रचनात्मकता प्रतियोगिताओं
के माध्यम से स्थान पा जाती है तो वह प्रतियोगिताओं के
अंतर्गत प्रकाशित होने के कारण समुचित महत्ता प्राप्त
नहीं कर पातीं। यही कारण है कि 'किशोर लेखनी' ने बाल
किशोरों की रचनात्मकता को प्रतियोगिताओं से इतर भी
स्थान दिए जाने
पर बल दिया।
व्यावहारिक रूप से बाल–किशोरों की रचनात्मकता को
अधिकाधिक सामने लाने का श्रेय चकमक, बालहंस और समझ
झरोखा को जाता है। इन पत्रिकाओं में छपी अधिकांश
रचनाएँ बाल–किशोर वय के रचनाकारों द्वारा रचित होती
हैं, हालाँकि प्रायः रचनाओं पर बड़ों की
इच्छाओं, मान्यताओं के प्रभाव स्पष्ट नज़र आते हैं। फिर
भी, बच्चों की निष्कलुष भावनाओं से जुड़ी रचनाएँ भी
अवश्य आई हैं। चकमक द्वारा बच्चों की रचनाओं की संकलन
पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित की गई हैं। ये पत्रिकाएँ
बच्चों की तमाम सृजनात्मकता को सामने लाने के प्रयास
में निरंतर सक्रिय हैं।
उक्त आंदोलन से प्रायः बाल पत्रिकाएँ प्रभावित रही
हैं। इस दौरान अख़बारों के परिशिष्टों पर भी बच्चों की
रचनाओं ने प्रमुखता से स्थान पाया है। उक्त पत्रिकाओं
के अलावा कुछ अन्य पत्रिकाओं ने भी बच्चों की रचनाओं
के विशेषांक प्रकाशित किए हैं और सामान्य अंकों में भी
उनकी रचनात्मकता को भी प्राथमिकता से स्थान दिया है।
इस संदर्भ में बाल दर्शन, चमाचम और चौथी दुनिया
साप्ताहिक अख़बारों के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने
प्रायः बच्चों की रचनात्मकता को सामने लाने के प्रयास
किए हैं और उन्हें प्रेरित, मार्गदर्शित करना चाहा है।
बाल दर्शन और चौथी दुनिया ने अपने बाल परिशिष्टों के संपादन तक
बाल–किशोर वय के रचनाकारों से इसे कराने के सफल प्रयोग
किए हैं।
इस दौरान पत्र–पत्रिकाओं ने प्रतियोगिताओं की विविधता
पर भी ध्यान दिया है। यों तो 'चित्र बनाओ', 'रंग भरो',
'शीर्षक बताओ', 'कहानी लिखो', 'कविता लिखो', 'सामान्य
ज्ञान प्रतियोगिता', 'पहेली प्रतियोगिता' जैसी
प्रतियोगिता एक–दो की संख्या में प्रायः बाल पत्रिकाओं
द्वारा आयोजित होती रही हैं, परंतु कुछेक पत्रिकाओं ने
नये–नये ढंग से प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं, ताकि बच्चों
की रचनात्मकता का कोई भी पक्ष किसी भी रूप में सामने
आने से वंचित न रह जाए। इस संदर्भ में बाल हंस, चकमक,
समझ झरोखा और बालदर्शन के नाम लिए जा सकते हैं।
लेकिन खेद का विषय है कि शिशु वर्ग के बच्चों की कोई
प्रतिनिधि पत्रिका नहीं है। चंपक की कुछेक रचनाएँ इस
वर्ग के अनुकूल होने के बावजूद वह इस रूप से स्वीकार्य
नहीं हैं। हालाँकि इस वर्ग के बच्चों के लिए प्रायः
पत्रिकाएँ कुछ न कुछ छिटपुट रूप में प्रकाशित करती रही
हैं। पराग पत्रिका अपने प्रकाशन के दौरान 'नन्हे
मुन्नों के लिए' शीर्षक के अंतर्गत इस वर्ग के बच्चों
का साहित्य प्रकाशित किया करती थी जिसे पाठकों से अपने
नन्हें भाई–बहनों को सुनाने का आग्रह भी होता था। परंतु इधर की
पत्रिकाओं में इस तरह की प्रवृत्ति नज़र ही नहीं आती।
किशोर बच्चों के लिए एकमात्र नियमित पत्रिका 'सुमन
सौरभ' है। 'पराग' पत्रिका का स्तर भी किशोर बच्चों के
अनुकूल था, परंतु वर्तमान में इसका प्रकाशन स्थगित है।
किशोरों की पत्रिका के रूप में 'किशोर लेखनी' पत्रिका
के भी कुछ अंक आए हैं। इसमें प्रकाशित रचनाएँ किशोर
मानसिकता के अनुकूल तो है, परंतु इसका प्रकाशन नियमित
नहीं है, और दूसरी तरफ़ इसमें बाल किशोर साहित्य के
वैचारिक पक्ष पर अधिक ध्यान रहता है। किशोरों की
पत्रिका के रूप में 'कच्ची धूप' के कुछेक अंक भी
प्रकाशित हुए हैं।
दृश्य मीडिया के प्रसार के समानांतर बाल साहित्य में
चित्र कथाओं का महत्व विशेष रूप से बढ़ा है। यही कारण
है कि भिन्न–भिन्न प्रकाशकों द्वारा चित्र कथाओं के
विविध प्रस्तुतीकरण विभिन्न सीरीज़ों के अंतर्गत निरंतर
हो रहे हैं। यह चित्रकथा साहित्य बच्चों के एक बड़े
वर्ग के बीच लोकप्रिय है। परंतु चित्रकथाओं की कोई
विशिष्ट बाल पत्रिका नहीं है। टिंकल नाम की एक पत्रिका
अवश्य निकला करती थी, जिसमें बच्चों के लिए बच्चों के
पसंद की कहानियों के आधार पर भी चित्रकथाएँ छपा करती
थीं, लेकिन वर्तमान में इसका प्रकाशन स्थगित है। यह
अलग बात है कि अंग्रेज़ी में उसका प्रकाशन नियमित रूप से
हो रहा है।
हाँ, यह अवश्य है कि प्रायः बाल पत्रिकाओं में कुछेक
चित्रकथाएँ नियमित रूप से छपा करती हैं। बाल हंस,
नंदन, बाल भारती, चंपक, सुमन सौरभ, नन्हे सम्राट,
लोटपोट, मधु मुस्कान, शिशु सौरभ आदि पत्रिकाओं में
चित्रकथाओं के कुछ नियमित स्तंभ हैं। बाल हंस और चंपक
के चित्रकथा विशेषांक भी निकलने शुरू हुए हैं।
इधर इतर भाषाओं के बाल साहित्य से बच्चों को परिचित
कराने के प्रयास बहुत ही कम हुए हैं। पराग पत्रिका
अपने प्रकाशन के दौरान विदेशी तथा अन्य भारतीय भाषाओं
से अनूदित बाल कहानियाँ प्रायः छापा करती थीं। परंतु
वर्तमान में कोई पत्रिका इस परंपरा को आगे बढ़ाती नहीं
दीख पड़ती है। एकमात्र नंदन पत्रिका ही लंबे अरसे से
अपने हर अंक में किसी न किसी विदेशी कृति का
सार–संक्षेप प्रस्तुत किया करती है। विदेशी लोक
साहित्य पर आधारित रचनाएँ भी इसमें प्रायः छापी जाती
हैं। वस्तुतः इस दिशा में बाल पत्रिकाओं की उदासीनता
खटकती है।
बाल किशोर साहित्य की परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए
उसके विकास क्रम को समझा जा सके और उसमें निरंतर
गुणात्मक परिवर्धन लाया जा सके, इसके लिए आवश्यक है कि
इस साहित्य का समालोचनात्मक पक्ष भी सामने लाएँ। परंतु
देखने में आया है कि हिंदी की स्तरीय पत्र–पत्रिकाएँ
तो इस संदर्भ में लगभग उदासीन हैं ही, बाल पत्रिकाएँ
भी कुछ विशेष
करती नज़र नहीं आतीं।
प्रतिनिधि कही जाने वाली पत्रिकाएँ कुछेक बाल साहित्य
पुस्तकों की केवल सूचनात्मक जानकारियाँ ही उपलब्ध
कराती हैं। परंतु कुछ लघु बाल पत्रिकाओं ने बेहतर ढंग
से समालोचनात्मक रूप में बाल साहित्य पुस्तकों की
समीक्षाएँ अवश्य छापी हैं। इस संदर्भ में देवपुत्र,
बालवाणी, बालदर्शन, लल्लू–जगधर बाल वाटिका और बाल
साहित्य समीक्षा के नाम उल्लेख्य हैं। बाल साहित्य
समीक्षा इनमें सर्वाधिक विशिष्ट है। यह पत्रिका नियमित
रूप से बाल साहित्य की रचनाओं का प्रकाशन तो कराती ही
है, बाल साहित्य पुस्तकों की बेहतर समीक्षाएँ भी छापती
है। समय–समय पर यह पत्रिका महत्वपूर्ण बाल
साहित्यकारों पर केंद्रित विशेषांक भी प्रकाशित करती
है जिसमें उस बाल साहित्यकार के संपूर्ण साहित्यिक
अवदान पर समालोचनात्मक निबंध प्रकाशित किए हैं। बाल
साहित्य समीक्षा के अलावा किशोर लेखनी पत्रिका का
योगदान भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। इसके कुछ अंक
ही प्रकाशित हुए हैं, परंतु उनमें बाल किशोर साहित्य
की रचनात्मक चेतना को समझने, परखने और दिशा देने का
प्रयास करते निबंध प्राथमिकता से प्रकाशित हुए हैं।
बाल साहित्यिक समीक्षा के लिए एक समय में चर्चित रही
पत्रिका परिकल्पना का प्रकाशन भी इस बीच आरंभ हुआ है।
बाल साहित्य लोचना के लिए इससे
निश्चय ही उम्मीद की जा सकती है।
हिंदी के महत्वपूर्ण दैनिक समाचार–पत्रों में बाल
साहित्य के लिए परिशिष्ट तो हैं ही, वे प्रायः बाल
साहित्य के विविध पहलुओं पर समालोचनात्मक निबंध भी
प्रकाशित किया करते हैं, परंतु ये चर्चाएँ राष्ट्रीय
फलक पर नहीं आ पातीं, क्योंकि प्रत्येक समाचार–पत्र के
अपने अलग–अलग व्यावसायिक क्षेत्र हैं, जहाँ वे बिकते
हैं और इसलिए उनमें प्रकाशित रचनाएँ भी उस
क्षेत्र–विशेष के पाठकों तक ही सीमित रह जाती हैं।
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाएँ तो इस दिशा में लगभग मौन
हैं। 'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में बाल
साहित्य के परिशिष्ट प्रकाशित होते थे। परंतु आजकल
'साप्ताहिक हिंदुस्तान' तो बंद है ही, 'धर्मयुग' का
परिशिष्टि भी अनियमित हो गया है। आजकल पत्रिका साल भर
में दो–तीन लेख प्रकाशित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री
समझ लेती है। अन्य स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं . .
.हंस, वागर्थ, पहल, कादंबिनी आदि को इस संदर्भ में
मानों कोई रुचि ही नहीं।
ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि इतनी सारी बाल
पत्रिकाओं के रहते बाल साहित्य की परंपरा और स्थिति को
समझने, परखने तथा विकास की दिशा तय करने के लिए बाल
साहित्यकारों को किसी और का मुंह जोहने की क्या ज़रूरत
है? हालाँकि कुछ समालोचक पूर्वोक्त वर्णित बाल
पत्रिकाओं में से चार–पाँच को छोड़कर अन्य किसी को
महत्व नहीं देते। लेकिन यह बात भी शोचनीय है कि ये
चार–पाँच इनी–गिनी पत्रिकाएँ, जो राष्ट्रीय स्तर की
होने का दावा करती हैं और विश्व मंच पर भारतीय हिंदी
बाल साहित्य का प्रतिनिधित्व करने में भी आगे–आगे हैं,
किसी तरह की वैचारिक चर्चा में शामिल होने से पीछे
रहना चाहती हैं तो आख़िर क्यों?
मुझे लगता है कि हिंदी की बाल पत्रिकाओं को बाल
साहित्यालोचना का दायित्व गंभीरतापूर्वक स्वीकार करना
होगा . . .भले ही इस वैचारिक चर्चा में उनके द्वारा
प्रकाशित किया जाने वाला बाल साहित्य और उससे जुड़ी
उनकी भूमिका ही क्यों न ख़ारिज हो जाए। यह वैचारिक
चर्चा न केवल बाल साहित्य के दिशा–निर्धारण के लिए
आवश्यक है, वरन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस तरह की
चर्चाओं में शामिल होने का पाठकीय हक बाल किशोर वर्ग
को निश्चय ही है, जिससे उन्हें अब तक लगभग वंचित रखा
गया है।
१६
नवंबर २००६
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