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सिंधी लोकनाटक
-अनीता खटवानी
सिंधी लोक नाटक पौराणिक और सिंधी लोक कथाओं पर आधारित
होते थे। इन नाटकों में उस समय के समाज पर धार्मिक
विचारधारा का प्रभाव दिखाई देता है। सिंध में मनोरंजन
के लिए जब कोई साधन नहीं था, तब कुश्ती, बाजों,
मुर्गियों, बाज पक्षी, साँड इत्यादि को शर्त लगा कर
लड़ाया जाता था। उसी को आरंभ का लोक नाटक कह सकते हैं।
उसके बाद के लोक नाटकों में ‘सांग ‘, ‘तमाशे ‘,
’कठपुतली का खेल‘, ‘चौंकी’, ‘भगत’, ‘राम और कृष्ण की
लीला‘ इत्यादि का समावेश हुआ।
साँग–
सांग यानि स्वांग या नकल। होली, दिवाली जन्माष्टमी और
दशहरे के त्यौहार में अलग अलग ढँग का मेक-अप करके अलग
अलग ढँग के परिधान पहन कर अभिनय करने को सांग कहा जाता
है चेट्टी चाँद (चैत की दूज ) के जलूस में, दशहरे पर
होने वाली रामलीला में अलग अलग ढंग के लिबास पहन कर
सांग बनाते हैं किन्तु आज बड़े शहरों में सांग भरने का
रिवाज़ आहिस्ता आहिस्ता लुप्त होता जा रहा है। जूनागढ़
के सिंधी भाइयों ने सांग की कला को जिंदा रखा है।
जूनागढ़ में सांग का खेल दिखाने वालों में गनोमल आणोमल,
शोंडी हिराणी, शोभराज पोहुमल, बन्थाली सौरठ के मुलोमल
आहूजा पोहुमल और चंचल दास तबलावाला इत्यादि जाने माने
हैं।
तमाशे–
जिस तरह महाराष्ट्र राज्य में तमाशे ज्यादा लोकप्रिय
थे उसी तरह सिंध में भी तमाशे होते थे। मुसलमान अमीरों
की शादी या किसी प्रसंग या खुशी के मौके पर गाने वाली
औरतें गाने गाती और नाचती थीं जिसे ‘तमाशा’ कहा जाता
था। मीठू और जीवणीसिंध की लोकप्रिय गायिकाएँ थीं। वे
गाने के साथ नाच भी किया करती थीं आम तमाशों में
कव्वाली और काफी इत्यादि भी गाए जाते थे। वैसे तो सिंध
या भारत में तमाशे का कोई अस्तित्व नहीं है किन्तु आज
भी उच्च सिंधी वर्ग विवाह अथवा शुभ अवसरों पर सिंधी
संगीत जरूर रखते हैं।
पुतलियों का नाच–
इसे कठपुतलियों का नाच भी कहा जाता है। इस प्रकार का
नाच बच्चों में ज्यादा लोकप्रिय बना था। इस प्रकार का
नाच खुले मैदान में लोगों को इकठ्ठा करके संगीत के साथ
दिखाया जाता था।
भगत–
भगत की कला प्राचीन युग की कला है।
भगत
में भी बहुत सारे नाट्य तत्व देखने को मिलते हैं।
’भगत‘ की बड़ी बड़ी टोलियाँ होती हैं जो मुख्य भगत के
नाम से जानी जाती हैं। मुख्य भगत सफ़ेद रंग का कुरता और
लुंगी पहनते हैं और सर पर लाल या पीली पगड़ी बाँधते
हैं। ’भगत’ में भगत काफी, दुहा काव्य के साथ कोई कहानी
भी कहते हैं। जैसे रूप बसंत, राजा हरिश्चंद्र, शाह
साहब की सूर्मियों की कहानी, पूरण भगत, कोयल दपिचंद
इत्यादि। अल्लाह नो लुनाडी व खैरों मीरासी भगतों ने भी
अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। भारत में भी अभी जाने
माने भगत सिठो किशन (बाडेज वाला) भगत घनश्याम (कल्याण
वाला ) इत्यादि हैं। भारत के भगत औरतों की तरह साडी
बाँध कर तरह तरह के नखरे करते देखने को मिलते हैं और
फ़िल्मी संगीत पर गाते भी हैं।
चौंकी (माणभट्ट की कला )-
चौंकी मंदिर और धर्म स्थान तक ही सीमित है। ज्यादातर
सत्संग होता हो या भोग लगाने का हो या किसी की बरसी
होने वाली हो तब चौंकी का आयोजन होता है। आजकल इस
प्रकार की चौंकी का ज्यादा महत्व है। चौंकी प्रस्तुत
करने वाला व्यक्ति मंच पर बैठ कर मिट्टी का घड़ा बजता
हुआ कोई कहानी सुनाता है और साथ साथ उस पर आधारित कोई
दृष्टान्त भी सुनाता है। चौंकी कहने वालो में प्रोफ़ेसर
राम पंजवाणी और दीपक आशा ज्यादा प्रचलित थे। ’’चौंकी‘’
में आज़ाद सूफी, मास्टर मनायल, ढेल शर्मा, मीरंदेवी,
भाई खानुराम इत्यादि ने अपने सिंध की रस्मों को जिंदा
रखने में मदद की है।
१६
जनवरी २०१२ |