इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
राम अधीर, मदन वात्सायायन,
आशीष श्रीवास्त, प्रियंकर पालीवाल और सुभाष नीरव की रचनाएँ। |
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साहित्य व संस्कृति में-
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1
समकालीन कहानियों में भारत से
शीला इंद्र की कहानी-
गिलास
वह
गिलास कोई साधारण गिलास नहीं था। फिर उसकी कहानी साधारण कैसे
होती। किंतु ऐसी होगी यह किसी ने कहीं जाना था। कई पीढ़ियों की
सेवा करते-करते उस गिलास पर क्या बीती कि हे भगवान! वह गिलास
हमारे परबाबा जी का था। ख़ूब बड़ा सा, पीतल का गिलास बेहद सुंदर
नक्काशीदार। अंदर उसमें कलई रहती थी। चाय का उन दिनों रिवाज़
नहीं था। हमारे परबाबा जी उस गिलास में भरकर जाड़ों में दूध और
गर्मियों में गाढ़ी लस्सी पिया करते थे। ठंडाई बनती तो उसी में,
और पानी तो उसमें पीते ही थे। वह गिलास जिसमें लगभग सेर भर दूध
आता था सिर्फ परबाबा जी ही इस्तेमाल करते रहे। उनकी जिंदगी में
उसमें कुछ भी पाने की जुर्रत किसी में भी नहीं थी। जैसा रोब
परबाबा जी का था वैसा ही गिलास का भी था। उसको उठाने की ताव घर
के किसी भी बच्चे की नहीं थी, जो उठाता वही बैठ रहता। परबाबा
जी की मुझे याद नहीं। मैं दो वर्ष की थी जब वे परलोक सिधार गए।
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रतनचंद जैन का प्रेरक प्रसंग
प्रगति और अभिमान
*
ऋषभ
देव शर्मा की कलम से
सच्चिदानंद चतुर्वेदी का उपन्यास `अधबुनी रस्सी'
*
डा .सुरेशचन्द्र शुक्ल "शरद आलोक" का संस्मरण
भारतीय संस्कृति के आख्याता हजारी प्रसाद द्विवेदी
*
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पिछले
सप्ताह- |
1
मनोहर पुरी का व्यंग्य
हो के मजबूर मुझे उसने उठाया होगा
*
कुमार रवीन्द्र के साथ
यात्रा एक कलातीर्थ की
*
शेर सिंह का संस्मरण
धारा के विपरीत
*
पुनर्पाठ में प्रेम जनमेजय का आलेख
व्यंग्य का सही दृष्टिकोण- हरिशंकर
परसाईं
*
समकालीन कहानियों में यू.के. से
कादंबरी मेहरा की कहानी-
जीटा जीत गया
सरकारी
स्कूलों में शिक्षा का स्तर मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में
बँटा हुआ था। उच्च श्रेणी में 'ओ' लेवल- ऑर्डिनरी लेवल, मध्य
में सी. एस. ई. सर्टिफिकेट ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन और निम्न
श्रेणी में रेमेडिअल यानि कमजोर जिन्हें सुधार की जरूरत हो।
मुझे तीसरे दर्जे के छात्रों से निपटना था। क्लासरूम क्या
था--- कबाडखाना! जितने शरारती, लफंगे, कम दिमाग छोकरे थे सब
जमा थे। न उन्होंने कभी पढाई की थी, न उन्हें पढ़ना था। मर्जी
से आते थे और मर्जी से उठ कर चले जाते थे। न समझ आये तो केवल
शोर मचा कर, समय काट कर चले जाते थे। इनको इम्तिहान तो देना
नहीं था। काम किया तो किया वरना परवाह नहीं। ऐसा नहीं था कि
उनमे कोई काबिलियत नहीं थी। अगर थी तो स्कूल के लिए नहीं थी।
फल तरकारी बेचने से लेकर जहाज पेंट करने तक, जमाने भर के धंधे
वह गिना देते थे।
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