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यात्रा एक कलातीर्थ की-
अजंता एवं अलोरा
- कुमार रवींद्र
२८ जनवरी २००८
एलीफैंटा के गुफा–शिल्पों से रू–ब–रू हुए चौबीस घंटे होने को
हैं और हम मुंबई से उत्तर–पूर्व में स्थित मराठवाड़ा क्षेत्र के
मुख्य नगर औरंगाबाद से एलोरा गुफाओं के मार्ग पर हैं।
एलोरा के यात्रापथ में ही औरंगाबाद से लगभग पंद्रह किलोमीटर की
दूरी पर है दौलताबाद का प्रसिद्ध ऐतिहासिक किला। सह्याद्रि
पर्वतमाला की पूर्वी शाखाओं में से एक छः सौ फुट ऊँचे शृंग पर
स्थित है दौलताबाद का किला। सातवाहन और राष्ट्रकूट राजाओं के
समय में संभवतः मूल देवगिरि दुर्ग का निर्माण हुआ होगा, जिसे
बाद में यादवों ने सजा–सँवारकर एशिया का ‘एल डोरेडो’ यानी
स्वर्णनगर बना दिया। अलाउद्दीन खिलजी और उसके सेनापति मलिक
काफूर के हाथों यादवों के पराभव के बाद दिल्ली सल्तनत ने इसे
अपने शासन के दक्खिन में विस्तार की महत्त्वपूर्ण चौकी बनाया।
मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद यानी दौलत के शहर की संज्ञा देकर
इसे केन्द्रीय सत्ता का केन्द्र–बिंदु बनाने की जो असफल कोशिश
की, यह इस बात का सबूत है कि यह क्षेत्र समृद्ध रहा होगा और
इसका कूटनीतिक महत्त्व भी रहा होगा। बाद के मुगल शासन के दौरान
शाहजहाँ और औरंगजेब ने भी इस स्थान के सामरिक महत्त्व को
स्वीकारा और इसे अपने दक्खिन विजय अभियान का केन्द्र बनाया।
किले की संरचना में इस बात के
पर्याप्त संकेत मिलते हैं। एक लंबे समय तक दक्खिन में अपने
प्रवास के कारण औरंगजेब का दिली लगाव इस क्षेत्र से हो गया
होगा, तभी उसने निकटवर्ती खुल्दाबाद के गाँव में स्थित मशहूर
मुस्लिम पीर ख्वाज़ा जैनुद्दीन शिराजी की दरगाह के प्रांगण में
ही अपने को एक मामूली इंसान की भाँति दफनाए जाने की ताक़ीद की
होगी। दौलताबाद के किले के विभिन्न स्थानों को देखते हुए मैं
इतिहास के इन तमाम पृष्ठों को मन–ही–मन पलटता रहा। देवगिरि से
दौलताबाद में तब्दील होने में इस किले और शहर ने क्या–क्या
देखा–सुना, झेला होगा, शाही हम्माम के सामने एक खुले बरामदों
वाले परिसर में बने संग्रहालय में रखी
खंडित हिन्दू देव–प्रतिमाओं को
देखते हुए मैं यही सब सोचता रहा। मनुष्य की आस्था एक ओर तो
अनुपम कलात्मक हो सकती है, तो दूसरी ओर घनघोर विध्वंसक भी।
धार्मिक असहिष्णुता से उपजी हिंसा के तांडव की कितनी ही गाथाएँ
विश्व इतिहास में बिखरी पड़ी हैं। काश, मनुष्य में आसुरी संहारक
वृत्ति इतनी प्रखर न होती और उसका देवत्व एक समान सर्वव्यापी
होता। धर्म की रूढ़ियों और मनुष्य के आध्यात्मिक–कलात्मक बोध के
बीच का यह संघर्ष ही तो मानव समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।
धार्मिक अंधश्रद्धा से कितने–कितने अनाचार हर युग में हुए हैं,
आज भी हो रहे हैं, यही सब
मैं उन खंडित कलाकृतियों के सामने खड़ा सोचता रहा।
दौलताबाद के किले के शीर्ष–बिंदु तक जाना हमारे लिए संभव नहीं
है—बुढ़ायी देह और समय, दोनों की सीमा। मेढ़ा तोप जहाँ रखी है और
जहाँ से किले की भूलभुलैयानुमा सुरंगों का जाल शुरू होता है,
हम वहीं तक जा पाए। अनवर मियाँ एक अच्छे गाइड के रूप में हमारे
साथ रहे और किले के विभिन्न स्थलों के बारे में हमें विस्तार
से बताते रहे। ऊपर तक पहुँचकर शाहजहाँ के वक्.त की बारादरी और
संत एकनाथ के गुरू जनार्दन स्वामी की साधना–स्थली को न देख
पाने का हमें अफ़सोस रहा। किले के बाहर के परिसर में स्थापित है
भारतमाता मंदिर, जिसमें हमें आज के धर्म–निरपेक्ष भारत की
आत्मा के दर्शन होते हैं। वहीं पथ के दूसरी ओर है दूर से ही
ध्यान खींचती ईस्वी सन् १४३५ में बहमनी वंश के शाह अलाउद्दीन
द्वारा निर्मित कराई गई २१० फीट ऊँची चाँद मीनार, जो कुतुब
मीनार के बाद भारत की दूसरी सबसे ऊँची मीनार है। फारस की
‘ग्लेज्ड टाइल्स’ से सजी यह मीनार ‘इंडो–सरासेन’ स्थापत्य और
शिल्प का अद्भुत नमूना है और खंडहर होते अतीत–गंध वाले किले से
बिल्कुल अलग दिखती है। इसे देखकर मुझे लगा जैसे कि कोई आधुनिका
किसी पुरानी बोशीदा हवेली के सामने ‘मॉडलिंग पोज़’ देने के लिए
खड़ी हो। इतिहास के एक अत्यन्त प्रभावी अध्याय के
अवलोकन की खुमारी से भरे हम बढ़
चले हैं एलोरा के कलातीर्थ की ओर।
दौलताबाद से एलोरा की दूरी लगभग ११–१२ किलोमीटर है और इस
यात्रा–पथ पर आगे बढते हुए हमें याद आ रही है आज से लगभग सात
सौ वर्ष पूर्व की एक और यात्रा, जिसके दौरान एलोरा के देवमंदिर
के दर्शनार्थ जाती गुजरात की राजकुमारी देवलदेवी का खिलजी
सैनिकों द्वारा अपहरण किया गया था। उन दिनों उसके पिता राजा
रायकरण और उनका परिवार देवगिरि के यादव राजा रामचन्द्रदेव के
आश्रय में थे। इतिहास के पृष्ठों की एक पंक्ति में सिमटी इस
दुर्घटना में उस राजकन्या के मन में कितने भय, कितने आतंक,
कितने रुदन भरे होंगे, कितने अश्रु–प्रवाहों का साक्षी यह
मार्ग रहा होगा, सोच–सोचकर मेरा मन व्यथित–द्रवित हो गया है।
रावण के द्वारा सीता के हरण का प्रसंग न तो पहला था और
न ही अंतिम। आज भी ऐसे अनाचारों
की कोई कमी नहीं है।
खुल्दाबाद के पास से गुज़रते हुए इसकी ऐतिहासिकता के बारे में
अनवर मियाँ ने बताया, किंतु हमारे मन में औरंगजेब की
हिन्दू–विरोधी और मंदिर–भंजक छवि होने के कारण उस आखिरी महान
मुग़ल बादशाह की अंतिम विश्रामस्थली को देखने के लिए कोई उत्साह
नहीं जागा। मुझे याद आया प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि एवं नाटककार
जॉन ड्राइडेन द्वारा लिखा नाटक ‘औरंगजेब’, जिसमें उसने एक
महत्त्वाकांक्षी शहज़ादे के रूप में उसके चरित्र का एक नए ढंग
से निरूपण किया
है।
अपने बेटे शाहज़ादा मुअज्ज़म को लिखे उसके पत्र के वे अंश भी
मुझे याद आए, जिसमें औरंगजेब ने अपने जीवन को एक असफल यात्रा
और ईश्वर के प्रति अपने को ज़वाबदेह माना है। अपनी
महत्त्वाकांक्षाओं, जिनके कारण उसने पता नहीं कितने अनाचार किए
थे, की निरर्थकता का बोध उसे अपने अंतिम समय में अवश्य हुआ
होगा। मुझे याद आ रहा है— उसके जीवन की आखिरी रात पर अरसे पहले
मैंने कोई नाटक भी पढ़ा था। औरंगजेब एक ख़ुदापरस्त व्यक्ति था और
संभवतः उसकी सारी सियासत कहीं–न–कहीं एक गहरी असुरक्षा–ग्रंथि
से ग्रसित थी। खुल्दाबाद पीछे छूट गया है
और उसके साथ ही औरंगजेब और उसके
बहाने मनुष्य की सारी महत्त्वाकांक्षाओं की अंतिम नियति पर
मेरा चिंतन भी।
एलोरा की गुहा–कलावीथी से थोड़ा पहले है कृष्णेश्वर महादेव का
प्राचीन मंदिर। विजयनगर के प्रख्यात राजा कृष्णदेवराय द्वारा
दसवीं शताब्दी में बनवाए गए इस मंदिर की गणना बारह
ज्योतिर्लिंगों में होती है। एक और महत्त्व है इस स्थान का।
यही है शिवाजी के पूर्वजों की भूमि। हाँ, यहीं तो हैं उनके
समाधिस्थल। अठ्ठारहवीं शताब्दी में इन्दौर की महारानी
अहिल्याबाई होल्कर ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कर के इसे
वर्तमान स्वरूप दिया। लाल बलुहे पत्थर और प्लास्टर से बना यह
मंदिर भव्य है। मंदिर–परिसर में प्रवेश और निकासी के लिए कोई
विशाल मंडप–द्वार न होकर दो छोटी–छोटी खिड़कियाँ हैं। ऐसा
संभवतः मंदिर की सुरक्षा की दृष्टि से किया गया होगा। अंदर का
परिसर खूब खुला–खुला और स्वच्छ है। दर्शन के लिये पुरूषों को
नंगे बदन जाना होता है। दोपहर का समय होने से भीड़ कम है, किंतु
आज सोमवार होने से दर्शनार्थियों की एक लंबी कतार तो है ही। हम
दोनों पति–पत्नी इस महातीर्थ के दर्शन कर अपने को कृतार्थ समझ
रहे हैं। अवचेतन में बचपन से समाए जातीय संस्कार। शिव वैसे भी
आदिदेव माने जाते हैं। एक अनूठी पवित्रता के एहसास से भरे हम
आगे बढ़ चले हैं।
भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की
एक विशिष्टता है उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति। प्राचीन यूनान और
रोम की भाँति ही प्राचीन भारत की सांस्कृतिक चेतना भी मुखर हुई
उसके स्थापत्य एवं शिल्प में। प्राचीन काल में इस कलात्मक
संचेतना को गति मिली मनुष्य की आध्यात्मिक–धार्मिक आस्था से।
भारत में इस आस्था के तीन केन्द्र–बिंदु रहे- एक थी सनातन
हिन्दू धर्म की बहुदैवीय आस्तिकता, दूसरी थी शाक्यमुनि गौतम
बुद्ध द्वारा प्रचारित आत्मबोध–परक बोधि–दृष्टि और तीसरी थी
जिन तीर्थंकरों द्वारा पोषित–प्रसारित प्रज्ञा–दृष्टि। इन
तीनों के समुच्चय से ही बनी प्राचीन भारत की समन्वयवादी
सांस्कृतिक चेतना। एलोरा के कलातीर्थ में हमें इसी समन्वित
संस्कृति के दर्शन हुए। यहाँ के शिला–शिल्पों को हिन्दू, बौद्ध
और जैन खंडों में विभाजित कर प्रचारित किया जाता है, किंतु
वस्तुतः इन तीनों खंडों में कलात्मक अभिव्यक्ति एवं सांस्कृतिक
धरातल एवं आयाम एक ही हैं। मुझे तो कम–से–कम इन कलावीथियों में
भ्रमण करते हुए यही लगा। कमल पुष्प, स्वस्तिक, मंगल–कलश,
यक्ष–गंधर्व एवं गणेश–लक्ष्मी आदि की सांस्कृतिक आकृतियाँ इन
तीनों ही खंडों में किसी–न–किसी रूप में प्रस्तुत मिलती हैं।
राष्ट्रकूट वंश की सात सौ ईस्वी सन् से नौ सौ ईस्वी सन् तक
राजधानी रहा एलापुरा नगर
ही आज का एलोरा है। अजन्ता की गुफाओं से प्रारंभ हुई बौद्ध कला
का समापन एलोरा की बौद्ध गुफाओं की प्रतिमाओं में हुआ। उसके
साथ ही बुद्ध के हिन्दू देव–संप्रदाय में समन्वयन के बाद
हिन्दू गुफाओं का निर्माण हुआ और अंत में जैन धर्म के दक्षिण
तक प्रचार–प्रसार के कारण जैन धर्मावलम्बी राजा अमोघवर्ष के
शासनकाल में नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन गुफाओं का
निर्माण हुआ। किसी भी समाज या समुदाय के सांस्कृतिक विकास की
एक महत्त्वपूर्ण कसौटी होती है उसकी कलात्मक समृद्धि। इस
दृष्टि से एलोरा के इस कलातीर्थ का ऐतिहासिक महत्त्व है। एलोरा
की गुफावीथियों में भ्रमण करते हुए मुझे बार–बार एक ललित
आध्यात्मिक अनुभूति होती रही- आज से डेढ़
सहस्राब्दी पूर्व के समाज की
सौन्दर्यानुभूति की, उससे जुड़ने की।
गुफा नं० १६ के कैलास मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं एलोरा की
आदिम चट्टानों पर छेनी–हथौड़ों की पीढ़ी–दर–पीढ़ी चली चोटों की
गूँजों को सुन रहा हूँ। ये गूँजें कहीं मेरे भीतर व्याप रहीं
हैं। मैं खोज रहा हूँ उन गूँजों–अनुगूँजों को अपने किसी लगभग
चौदह सदी पूर्व के जन्म में। हाँ, उस शिव–साधना को भी, जिनसे
उपजी होंगी ये प्रस्तर–आकृतियाँ। अचानक जाग्रत हो उठा है उस
शिखर–मंदिर में स्थापित महादेव शिव का लिंग–विग्रह और एक
अतीन्द्रिय मौन में डूब गया है मेरा मन। सरला भी मौन शांतमन
निहार रहीं हैं उस अनिर्वचनीय आस्था के प्रतीक को। हमारी थकी
देह को इस रहस्यानुभूति से अतिरिक्त ऊर्जा मिल रही है।
प्रस्तरीय आवरण में सौन्दर्य खोजती वह आँख किस अद्भुत शिल्पी
की रही होगी, मैं सोच–सोचकर विभ्रमित हो रहा हूँ। उस पूर्वज की
कलादृष्टि के प्रति मेरा सारा अन्तरमन नतमस्तक हो रहा है। कैसे
तराशी गई होगी इस पर्वतीय शिखर में यह दोमंजिला रम्यता। काश,
इस राशि–राशि सौन्दर्य को मन के किसी एकांत कोने में सँजो पाना
संभव हो पाता। जीवन की अनन्त–अनन्त यात्रा में ऐसे पड़ाव विरल
ही आ पाते हैं, जब कालचक्र थम जाए और समूचा अस्तित्त्व एहसास
के एक मीठे पल में समा जाए। स्व के सर्व हो जाने की वह स्थिति
आज हमारी है, यह सोचकर ही मन एक अनिर्वचनीय से भर उठा है। समय
का अंतराल, सच में, विलीन हो गया है। काश, इस पल का जाग्रत
जिज्ञासा का अनोखा धरातल हमसे कभी न छूटे और हम इसी में समाहित
हो जाएँ। किंतु यह आत्मानुभूति कुछ पल को ही रही और हम लौटने
को विवश हो गए अपनी वर्तमान स्थूल देह और उसके सीमित संदर्भों
की परिधि में। हाँ, यह सच है हम बहुत देर नहीं रह पाते इस
परिधि से बाहर। पिछली कई गुफाओं के शिल्प–सौन्दर्य को
निरखते–परखते हम पहुँचे हैं यहाँ। लग रहा है हमारी सारी
सौन्दर्यानुभूति की अंतिम नियति यह शिव–मंदिर ही था। तभी यहाँ
आकर हमारे सारे एहसास ठिठक गए थे कुछ क्षणों के लिए। हम इसी
दुर्लभ भाव से भरे हुए बेबस मन अपनी शिथिल हुई देह को घसीटते
हुए किसी तरह बाहर ले आए हैं। बाहर आधुनिक समय है, सैलानियों
के समूह हैं, उनकी बातें
हैं और हम हैं अपनी क्षुद्रताओं में सिमटे–बँधे।
भारतीय
देव–परिवार में शिव सबसे सरल देवता हैं और सबसे विचित्र भी।
पार्थिव लिंग–विग्रह के रूप में सर्व–सुलभ हैं और सभी जगह
उपस्थित भी। वे आशुतोष हैं, वैसे ही प्रलयंकर भी। भारतीय
त्रिमूर्ति में वे एकमात्र देव हैं, जिनका स्थान कैलास इस धरती
पर ही है, कहीं किसी काल्पनिक लोक में नहीं। उनका संपूर्ण
व्यक्तित्व पारिवारिक–सामाजिक है। वे एक सृष्टि के मूल कारक
तत्त्व हैं, तो दूसरी ओर उसके संहारक भी। वे एकमात्र प्रभु
हैं, जिनका तीसरा नेत्र यानी मानसिक–आध्यात्मिक नेत्र उनकी देह
में जाग्रत उपस्थित है। वे सहज पूजनीय हैं। कहीं भी, किसी भी
दैहिक अवस्था में उनकी पूजा संभव है। झाड़–झंखाड़ में उपजे
धतूरे, बेर, बिल्वपत्र आदि, जो आसानी से सुलभ हो सकते हैं, से
उनकी पूजा का विधान है। देह पर सर्प और व्याघ्रचर्म धारे, शरीर
पर श्मशान–राख सुशोभित किए, माथे पर त्रिधा सृष्टि का प्रतीक
धारे, चन्द्र एवं गंगा को अपनी जटाओं में समेटे हिमशिला पर
निर्द्वंद्व विराजा यह देव, सच में, संपूर्ण भारतीय मनीषा का
अनुपमेय प्रतीक–बिंब है। विश्व के संपूर्ण विष को अपने कंठ में
धारण कर लेने की क्षमता रखने वाला यह महादेव सिद्धों का आदिनाथ
है, नृत्य और नाट्य कला का प्रणेता और आदिगुरू है। विचित्र और
भयंकर साधना करने वाले अघोरियों का सिद्धिदाता भी यही महादेव
है। अपनी तांडव मुद्रा में वे समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को ही
जैसे रूपायित करते हैं। कैलास मंदिर वाली गुफा से जैन गुफाओं
तक पहुँचने के एक किलोमीटर के मार्ग में मेरा मन इसी
शिव–तत्त्व के ध्यान में डूबा
रहा।
एलोरा में कुल चौंतीस
गुफाएँ हैं, जिनमें से पहली बारह गुफाएँ बौद्ध, तेरह से उन्तीस
संख्या की गुफाएँ हिन्दू और तीस से चौंतीस नं० की गुफाएँ जैन
सम्प्रदाय पर केन्द्रित हैं। चैत्य और विहार, बौद्ध गुफाएँ दो
प्रकार की हैं, जिनमें भगवान बुद्ध के जीवन के विविध प्रसंगों
को प्रमुखता से आँका गया है। बौद्ध देवी–देवताओं की जो
आकृतियाँ इनमें उकेरी गई हैं, उनमें बोधिसत्त्व स्वरूपों के
अलावा महामयूरी यानी देवी सरस्वती, कुबेर, महिषमर्दिनी, गणेश
आदि हिन्दू देवी–देवताओं की शिल्पाकृतियाँ भी देखने को मिलती
हैं। ये इनके निर्माण काल के हिन्दू–बौद्ध धर्मों की
समन्वयवादी दृष्टि की परिचायक हैं। हिन्दू गुफाएँ अधिसंख्य और
अधिक चित्रमय भी हैं। गुफा नं० सोलह का शैलगृह ‘कैलास’ तो है
ही अप्रतिम, अन्य गुफाओं का शिल्प भी कम भव्य नहीं है। शिव और
उनके परिवार से संबंधित शिल्पों के साथ–साथ रामायण और महाभारत
के प्रसंगों का अंकन इन गुफाओं को शैल्पिक दृष्टि से अधिक
समृद्ध बनाता है। जैन गुफाओं का प्रमुख आकर्षण हैं उनके महीन
शिल्पकारीयुक्त सभामंडप और उनमें स्थापित बृहदाकार एवं सौम्य
जिन प्रतिमाएँ। हर तीर्थंकर को अलग पहचान देता उनका अपना–अपना
प्रतीक–चिह्न है, यथा— आदिनाथ ऋषभदेव के साथ वृषभ यानी बैल,
पार्श्वनाथ के साथ सर्प, नेमिनाथ के साथ शंख और अंतिम यानी
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के साथ सिंह की आकृतियाँ हैं।
यक्ष–यक्षी, गणेश–लक्ष्मी आदि का अंकन इन गुफाओं में भी किया
गया है। सभी तीर्थंकरों की हस्तमुद्रा पारम्परिक कायोत्सर्ग की
दर्शाई गई है। बाहुबली गोमटेश्वर की प्रतिमा भी दो गुफाओं में
है। कमल पुष्प, फलों से लदे आम्रवृक्ष,व टवृक्ष एवं देवी
मातंगा के वाहन हस्ति की मांगलिक आकृतियों का प्रयोग इन गुफाओं
में बहुलता से किया गया
है, जो इन गुफाओं की भी मूल भारतीय संचेतना को दर्शाता है।
एलोरा के इन गुफा–सभागारों में कलानुभूति की जो समृद्धि हमें
मिली है, उसकी भावनात्मक ऊर्जा से भरे हुए हम लौटे अपने गंतव्य
यानी औरंगाबाद में पीयूष के घर। औद्योगिक क्षेत्र स्थित उसके
कोल्ड स्टोरेज परिसर को देखते हुए हम घर गए हैं। पीयूष के
अध्यवसाय एवं उसकी व्यवसायिक दक्षता देखकर हम दोनों पति–पत्नी
को एक आंतरिक संतुष्टि मिली है। रात होने को है। कुछ देर
पारिवारिक वार्ता और फिर रात्रि–विश्राम यानी इति आज के दिन की
और अथ एक आन्तरिक
कलायात्रा का, जो स्वप्न में रात भर होती रही।
२९ जनवरी २००८
अजन्ता के गुहा–चित्रों को देखने की मेरी ललक पचासेक साल से
अधिक पुरानी है। स्मृतियाँ धुँधलाने की उम्र आ गई है, किंतु
मुझे स्पष्ट याद है कि हाथरस के मि० टालीवाल की चित्रशाला में
मैंने अजन्ता के प्रसिद्ध बोधिसत्त्व पद्मपाणि के उनके द्वारा
अनुकृत चित्र को देखा था। उस चित्र ने मुझे ऐसा सम्मोहित किया
था कि बाद में मैंने भी उसकी जलरंग अनुकृति बनाई थी। डी०सी०एम
ग्रुप ऑफ मिल्स ने १९७२ में एक वस्त्र–कैलेण्डर बाँटा था,
जिसमें उसी चित्र की अनुकृति थी। मेरा बनाया चित्र तो कहीं
इधर–उधर हो गया, किंतु वह कैलेण्डर–अनुकृति आज भी मेरे बेडरूम
की शोभा बनी हुई है। लगभग एक पूरे जन्म की प्रतीक्षा के बाद
मैं अजिंठा ग्राम स्थित विश्व–ख्यात अजंता गुफाओं के यात्रापथ
पर हूँ। मन में छिपी बचपन की ललक उमग–उमग कर बाहर आने को आतुर
हो रही है। सरला साथ हैं, पर हम दोनों ही मौन हैं। अनवर मियाँ
बीच–बीच में कुछ बताते जा रहे हैं, पर हमारा मन उनकी बातों में
नहीं है। मन तो उड़ रहा है कॉर की गति से बहुत आगे औरंगाबाद से
लगभग सौ किलोमीटर दूर उस कलातीर्थ की ओर, जो मेरी उम्र भर की
कला–काव्य यात्रा का गंतव्य रहा है। हाँ, आज पूरा होने जा रहा
है एक चित्रकार के रूप में मेरा वह महास्वप्न, जिसे मैंने
बरसों–बरसों अपने किशोर अवचेतन मन में सँजोकर रखा था।
बोधिसत्त्व पद्मपाणि का मूल भित्ति–चित्र मेरे पता नहीं किस
पूर्वजन्म की स्मृति को
जगा रहा है, आतुर टेर रहा है। रास्ते में सुबह की धूप में
नहाती सह्याद्रि की खंड–खंड शैलाकृतियाँ सुंदर हैं, पर मेरा मन
उनके आकर्षण में बँध नहीं पा रहा है। अधिकांश पर्वत इन दिनों
एकदम सूखे हैं और उनका बंजर चट्टानी सौन्दर्य धरती की आदिम
आकृतियों को क्षितिज पर उकेर रहा है। बाहर की आँख उस सौन्दर्य
को देख रही है, किंतु भीतर तो एक और ही उत्कण्ठा अनवरत सक्रिय
है।
अचानक अनवर मियाँ ने कार रोक दी है
और हम चौंक पड़े हैं। उन्होंने बताया कि वह स्थान था ‘व्यू
प्वांइट’, जहाँ से अजंता की गुफाओं का ऊपर से विहंगम अवलोकन
किया जा सकता है। हाँ, यही वह ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ से खड़े
होकर सन् १८१९ में जॉन स्मिथ नाम को एक ब्रिटिश सेना अधिकारी
ने नीचे घाटी में बहती पहाड़ी नदी और उसके
किनारे
घोड़े की नाल की आकृति में दिखती अजिंठा की इन गुफाओं को दूर से
अवलोका होगा और फिर सम्मोहित उतर गया होगा इस पर्वतीय गह्वर की
कोख में, जहाँ लगभग सात सौ वर्षों तक मानव दृष्टि से ओझल रही
इस अनूठी गुहा–चित्रवीथी को उसने खोज निकाला होगा और फिर पहली
बार जाना होगा विश्व ने भारत की प्राचीन साँस्कृतिक–कलात्मक
गरिमा को। यहाँ से एक ‘शार्टकट’ पथ सीधे नीचे की ओर जाता है,
जो सम्मोहित कर रहा है हमें, किंतु उस कुछेक किलोमीटर के पथ को
अपने बुढ़ा–गए शरीरों से नापना हमें संभव नहीं लगा। दूसरा कार
वाला रास्ता लगभग ग्यारह किलोमीटर लंबा है, किंतु हमें वही
अपनी देह की सीमाओं के रहते सही लगा। अस्तु, उस सुन्दर पर्वतीय
पथ पर अवरोहण का विचार
छोड़कर हम कार से चल पड़े हैं घुमाव–दर–घुमाव नीचे उतरती सड़क पर।
अजिंठा या अजंता की गुहावीथियों के चित्रों को और अधिक क्षरण
से बचाने के लिए पुरातत्त्व विभाग ने कई पाबंदियाँ लगा दी हैं,
जैसे कि पेट्रोल–डीजल–गैस से चलने वाले किसी भी वाहन के
गुफा–परिसर के निकट तक प्रवेश की पूरी मनाही, कुछ भी खाने–पीने
की सामग्री वहाँ न ले जाने की भी मनाही, फ्लैश कैमरे का गुफाओं
के भीतर इस्तेमाल न करने की पाबंदी आदि। गुफा–परिसर से तीन–चार
किलोमीटर पहले ही ‘शापिंग–ईटिंग कॉम्पलेक्स’ है। वहीं से
बैटरी–चालित बसें हमें मुख्य गुफा–परिसर तक ले गईं। यहाँ से
जीना–दर–जीना चढ़ाई–उतराई के बाद हम पहुँच गए हैं उस कलातीर्थ
में अपने चिर–प्रतीक्षित
कला–बोध को खोजने।
गुफा नं० एक ही सबसे अधिक दर्शनीय है और उसी में है मेरा
चिर–प्रतीक्षित पद्मपाणि बुद्ध का चित्र। किंतु उसे देखने के
लिए काफी भीड़ है। इसीलिए उसे तुरन्त देख लेने के उम्र भर के
औत्सुक्य के बावजूद हमने क्यू में खड़े होकर अपने को थकाने की
बजाय आगे बढ़ना ही उचित समझा। अजन्ता की कुल उन्तीस गुफाओं में
से केवल पाँच गुफाएँ ही चैत्य गुफाएँ हैं। इन चैत्य या
पूजास्थल गुफाओं के आयताकार क्षेत्र में बीच में स्तूप और छत
एवं दीवारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं की मनोरम
चित्रकारी देखकर मेरा मन पीढ़ियों तक चली कला–उपासना के प्रति
श्रद्धावनत होता रहा। गुफा नं० उन्नीस और छब्बीस की भगवान
बुद्ध की आकृतियों और क्रमशः बुद्ध के यशोधरा एवं राहुल से
भिक्षाटन के एवं उनके द्वारा मार–पराभव के और उनके परिनिर्वाण
के दृश्यों ने मुझे ऐसा अभिभूत किया कि अनन्त काल तक उन्हें
निहारते रहने, उन्हीं में समा जाने का, उन्हें पूरी तरह अपने
में समो लेने का मन होता रहा। गुफा नं० छब्बीस में ही बुद्ध की
लेटी हुई मुद्रा में विशाल प्रतिमा है, जिसकी छवि अपनी आँखों
में सँजोए जब मैं उससे बाहर आया, तो मुझे
लगा कि जैसे मैं अपना कोई जीवंत
अंश भीतर ही छोड़ आया हूँ।
अन्य चौबीस गुफाओं में, जिनका उपयोग विहार अथवा निवास के रूप
में होता होगा, विशिष्ट हैं गुफा नं० एक, दो, चार, छः, सोलह,
सत्रह एवं सत्ताइस। इनमें ही वे चित्रांकन हैं, जिनकी चर्चा
कला–समीक्षकों द्वारा अधिकांशतः की जाती है और जिन्हें अजन्ता
चित्र–शैली के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में अक्सर प्रस्तुत किया
जाता है। गुफा नं० एक की चर्चा सबसे आखिर में, क्योंकि उसे
हमने सबसे बाद में देखा। गुफा नं० दो में बुद्ध के जन्म और
उनकी किशोरावस्था से संबंधित घटनाओं का अंकन किया गया है। गुफा
नं० चार सबसे बड़ी है। उसके गर्भगृह में भगवान बुद्ध की अष्टभय
से त्राण देती मुद्रा में छः भव्य खड़ी शिल्पाकृतियाँ हैं। गुफा
नं० छः दोमंजिला है। पूजागृह में पद्मासन में बुद्ध की विशाल
प्रतिमा भावाभिभूत करती है। गुफा नं० सोलह में कई दर्शनीय और
महत्त्वपूर्ण चित्र हैं, मसलन बुद्ध के सौतेले भाई नन्द के
प्रव्रज्या–ग्रहण का चित्र, कथकली नृत्य का चित्र आदि। गुफा
नं० सत्रह में बुद्ध के पूर्वजन्मों से संबंधित कई जातक
कथा–प्रसंगों का अंकन हुआ है। एक चित्र में बुद्ध यशोधरा एवं
राहुल से भिक्षा माँगते हुए दिखाए गए हैं। यह चित्र अजन्ता के
बहुचर्चित चित्रों में से एक है। इस गुफा की छत पर की गई
चित्रकारी अद्भुत है। लगता है किसी चित्रित कपडे. के चंदोवा को
छत पर टाँक दिया गया हो। गुफा नं .सत्ताइस में मार–विजय और
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के प्रसंगों
का चित्रांकन है।
और अंत में लौट आए हैं हम इस कलातीर्थ के प्रवेश–मंडप यानी
गुफा नं० एक की ओर। ढलती दोपहर में पूर्वाह्न की भीड़ छँट चुकी
थी और हम पूरे मनोयोग से अजंता–कलापर्व के इस श्रेष्ठतम उत्सव
का अवलोकन कर सके। इस गुफा–मंडप में पूजास्थल में स्थापित
बुद्ध की विशाल प्रतिमा इस दृष्टि से अनूठी है कि इसमें भिन्न
कोणों से बुद्ध के चेहरे पर भिन्न–भिन्न भाव दृष्टिगोचर होते
हैं, यथा– दाहिनी दिशा से प्रकाशित किए जाने पर बुद्ध की आकृति
में गंभीर चिंतन के भाव व्यक्त होते हैं और सामने एवं बाँई ओर
से प्रकाश डालने पर वही आकृति शांत और ध्यानस्थ मुद्रा में
परिवर्तित हो जाती है। लियोनार्डो दा विंची की अद्भुत कलाकृति
‘मोनालिसा’ से कम प्रभावशाली और चमत्कृत–करती नहीं है बुद्ध की
यह प्रतिमाकृति। पौराणिक राजा शिवि की शरणागत कपोत की रक्षा
हेतु अपने शरीर को उत्सर्ग करने की कथा का चित्रांकन देखकर हम
चमत्कृत रह गए। और अब हूँ मैं अपने अति–प्रतीक्षित अभीप्सित
पद्मपाणि बुद्ध के चित्र के सामने। अभिभूत खड़ा हूँ मैं अपने
किशोर वय में देखे महास्वप्न को साकार सामने पाकर। यही तो है
वह प्रणम्य आकृति, जिसे मैंने बरसों–बरसों अपने अंतर्मन में
उपासा है।
गर्भगृह
के बाहर की दाहिनी दीवार पर अंकित यह चित्र गर्भगृह
के आलोक में झिलमिला रहा है। गुफा में प्रवेश करते ही इस पर
दृष्टि पड़ी थी, फिर पूजास्थल में बुद्ध–विग्रह के दर्शन के साथ
भी, अन्य कई कोणों से भी। किन्तु बार–बार देखकर भी तृप्ति नहीं
हो रही है । लग रहा है जैसे मेरा संपूर्ण व्यक्तित्व सिमटकर
आँखों में आ गया है और आँखें हैं कि इसी छवि में समा गईं हैं।
स्व के तिरोहित हो जाने की यह स्थिति कुछ क्षणों तक ही रह पाई।
अपने समय में लौटना जो है। कालातीत इस महाछवि को आत्मसात किए
मैं तेजी से गुफा से बाहर आ गया हूँ। किंतु सम्मोहन शेष है।
बाहर का प्रकाश, सारी आकृतियाँ परछाईं–सी अपरिचित लग रही हैं।
और मैं भी तो परछाईं हो गया हूँ.। सरला साथ हैं। यही है जो
मुझे वर्तमान का सत्याभास दे रहा है। और देह के आभास को खोजता
मैं उतर रहा हूँ इस कलातीर्थ से बाहर ले जाती सीढ़ियों पर।
सम्मोहन समाप्त होने को है। अंतिम सीढ़ी और फिर हमारा फ़िलवक्त।
स्वप्न टूट चुका है। एक अधेड़ आयु महिला पूछ रही है सरला से—
‘कितनी सीढ़ियाँ हैं, ऊपर क्या कुछ देखने वाला है ?’ सरला ने
उसे उत्तर दिया है— ‘देखने को बहुत कुछ, न देखने को कुछ भी
नहीं।’ सरला के सारगर्भित शब्दों ने मुझे चिंतन का एक नया आयाम
दे दिया है। प्रसिद्ध अमरीकी कवि राबर्ट फ्रॉस्ट की
बहुचर्चित कविता ‘दि रोड नॉट
टेकेन’ की पंक्तियाँ मेरे जेहन में घूम गई हैं, जिनमें कवि
मानव–जीवन की इस विडंबना को परिभाषित करता है कि हमें अक्सर
द्विधा स्थितियों में से गुज़रना पड़ता है और तब हम उस राह के
सम्मोहन से ग्रस्त हो जाते हैं, जिसे हम नहीं ले पाए। यह
स्थिति भी तो कुछ वैसी ही है।
हाँ, इन गुफाओं के प्रभामण्डल में
प्रवेश करने और उससे बाहर आने की मनस्थितियों में कितना अंतर
है। वापस होते अब मैं देख पा रहा हूँ इस गुहातीर्थ के चित्रों
के धुँधलाए रंगों को, खंडित होती, बिखरती आकृतियों को। सभी
गुफाओं के प्रवेशद्वार पर जाली के दरवाजे लगा दिए गए हैं,
जिससे गुफा की प्राकृतिक संरचना ही खंडित हो गई है और जो हमारे
सहज सौन्दर्य–बोध को बुरी तरह आहत करती है। अंदर चित्र–वीथी के
निकट जाना, चित्रों के आकर्षण को निकट से निरखना–परखना, उनसे
एकात्म होना संभव नहीं रह गया है। सभामंडपों में चारों ओर
रस्सियों के बंधन के पार अंदर के धुँधले प्रकाश में चित्र
स्पष्ट नहीं दीखते। कई गुफाओं में मरम्मत का काम चल रहा था।
उससे भी कलाकृतियों से पूरा तादात्म्य खंडित हो रहा था। किंतु
यह सब तो अब सोच पा रहा हूँ, जब हमारी कार हमारे मन को गुफाओं
के सम्मोहन से पल–पल दूर ले जा रही है। हम बढ़ते जा रहे हैं
अपने समय के आधुनिक सुविधाओं के सम्मोहनों की ओर, गुफाओं की
कला–साधना से नितांत भिन्न भौतिक–पदार्थिक ऊहापोह की ओर। काश,
हम दोनों के बीच संतुलन रख पाते। कला
के व्यवसायीकरण से, काश, हम बच
पाते।
लौटते में हमने औरंगाबाद के दो ऐतिहासिक स्थल देखे— बीबी का
मक़बरा और पनचक्की। पनचक्की का निर्माण सत्रहवीं सदी में सूफी
पीर बाबाशाह मुसाफिर और उनके शागिर्द हज़रत बाबाशाह मुहम्मद की
प्रेरणा से और उनकी देखरेख में हुआ था। वह प्रतीक है दो फ़कीरों
के आठ किलोमीटर दूर के पहाड़ से पानी लाकर इस बस्ती में जल और
ऊर्जा उपलब्ध कराने के दैवी संकल्प का। यही उनका अंतिम
विश्रामस्थल भी है। उनकी दरगाहें एक ही छत के नीचे अगल–बगल बनी
हैं। पूरा परिसर साफ़–सुथरा और पवित्रता का एहसास देता। हमें
अच्छा लगा उस पवित्र वातावरण में थोड़ी देर साँस लेना। बीबी के
मक़बरे का निर्माण कराया था एक मुग़ल शहज़ादे ने अपनी माँ की
स्मृति को अमरत्व प्रदान करने की इच्छा से। ताज़महल की नक़ल में
बना वह मक़बरा न तो वैसा भव्य है और न ही वैसा नियोजित। औरंगजेब
के बेटे शहज़ादा आज़मशाह ने ईस्वी सन् १६७९ में इस मक़बरे की
तामील करके अपनी माँ मलिका रबिया दुर्रानी के प्रति अपनी
मातृभक्ति एवं श्रद्धा को जो अभिव्यक्ति दी, वह भी तो वंदनीय
है। औरंगजेब और मलिका द्वारा उपयोग में लाए गए
चटाई,बर्तन,फर्नीचर आदि वहाँ के छोटे–से म्यूजियम में रखे हुए
हैं, जो उन दोनों की सादगी की गवाही देते हैं। औरंगजेब के जटिल
व्यक्तित्व का यह भी एक पक्ष था, जिसके प्रति हमारै दृष्टि आम
तौर पर नहीं जाती। एक शहंशाह और अपने व्यक्तिगत जीवन में इतना
सादा। आश्चर्य होता है सोचकर। मुख्य दरवाजे पर जड़े पीतल पर
उकेरे अनार का दाना खाते एक तोते की आकृति देखकर मुझे औपनिषदिक
‘द्वा सुपर्णा‘ के जीव–तोते की याद आ गई। एक मुस्लिम
मक़बरे में इस प्रकार का अंकन
विस्मयकारी और रहस्यमय भी लगा।
कलायात्रा का समापन हुआ और हम लौट आए हैं पीयूष के घर। देर रात
तक हम बतियाते रहे। मीना के साथ इतनी देर बैठना पहली बार हुआ
था। अस्तु, तमाम संदर्भ थे पारिवारिक और व्यक्तिगत बतियाने को।
कल सुबह जल्दी ही निकलना है। पीयूष मुंबई जा रहे हैं, हमें
पुणे छोड़ देंगे। वहाँ खड़कवासला में हमें एक दिन रहना है सपना
के घर। उसके पति कर्नल अम्जन सूर वहाँ स्थित ‘डिफेंस
इंस्टीट्यूट ऑफ ऐडवांस टेक्नॉलजी’ में आर्मी विंग के डायरेक्टर
हैं। देर रात सोए, सुबह जल्दी उठना भी है, किंतु स्वप्न में
वही अजन्ता–एलोरा के कलातीर्थ की छवियाँ। यही तो है इस यात्रा
की उपलब्धि। |