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हास्य व्यंग्य

हो के मजबूर मुझे उसने उठाया होगा
-- मनोहर पुरी


हमारे पास वास्तव में कोई विकल्प नहीं था? यह वास्तविकता ही थी कोई गल्प नहीं था। जब किसी देश का प्रधान मंत्री यह कहता है कि किसी विशेष परिस्थिति में उसके पास स्थिति को संभालने के लिए कोई विकल्प नहीं था तो मान लेना चाहिए कि वह सत्य ही कह रहा होगा, वह सत्य के कठोर धरातल पर रह रहा होगा। और यह सत्य कहने में क्या क्या नहीं सह रहा होगा। उसे बहुत ही मजबूर हो कर यह कदम उठाना पड़ा होगा। फिल्मी तर्ज पर यह जहर दवा जान कर खाना पड़ा होगा। अभी तक सारा देश उन्हें कमजोर प्रधान मंत्री ही मानता था अब उन्होंने स्वयं ही बता दिया कि वह कमजोर नहीं मजबूर हैं। अपनी मजबूरी के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं।

इतिहास ऐसी मजबूरियों से अटा पड़ा है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक एक के साथ एक किस्सा सटा पड़ा है। बहुत पुरानी बात न भी करें तो भी हिटलर अभी तक इतिहास के पन्नों में लुप्त नहीं हुआ। जारशाही का भी कोई किस्सा सुप्त नहीं हुआ। अभी तो हिटलर की मजबूरी की घटनाएँ है ताजा-ताजा,एक बार जर्मनी में फिर नव नाजीवाद सिर उठा कर है जागा। इतिहास गवाह है कि कितना मजबूर हो कर उसने लाखों यहूदियों का कत्ले आम किया था। एक एक मजबूरी से अपना चाक सीना सीया था । नहीं तो क्या कभी कोई किसी चींटीं तक को मारता है। कहीं बिना मजबूरी कोई अपनी इंसानियत को हारता है। यहूदियों को जघन्य मौत देने के लिए हिटलर को अपने राष्ट्र के बहुमूल्य संसाधनों का बेकार में ही उपयोग करना पड़ा था। इसके लिए पूरे देश को कितनी मंदी का उपभोग करना पड़ा था। कितने ही गैस चैम्बर उनके लिए बनवाने पड़े थे, इंसान को सस्ते में मारने के नये नये तरीके आजमाने पड़े थे। कितना धन व्यय करके यंत्रणा शिविरों का निर्माण करना पड़ा था, उन में भोजन तो नहीं मौत का सामान भरना पड़ा था। और कितने ही जवानों की शक्ति का प्रयोग करके कीमती गोलियाँ उन पर नष्ट करनी पड़ी थी, उस सुन्दर देश में लाखों लाशें सड़कों पर सड़ी थीं। मुसोलिनी को भी मजबूरी में नाजीवाद की तरह से फासीवाद को जिन्दा रखने के लिए क्या क्या नहीं करना पड़ा,शत्रुओं से ही नहीं अपने ही देशवासियों तक से लड़ना पड़ा।

इसी प्रकार हमारे प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह भी बाबा रामदेव जैसे संत की ‘हिंसक’ गतिविधियों से मजबूर हो गये थे, बाबा रातों रात बिना कोई चुनाव लड़े ही जनता में मशहूर हो गये थे। उन्हें इस बात की पूरी जानकारी थी कि बाबा और उनके भक्त मिल कर प्रतिदिन करोड़ों-अरबों रोगाणुओं का सुबह सुबह ही कत्ले-आम कर देते हैं, कितने ही नशेड़ी गुटखे और तंबाकू के पाऊच उनके कदमों पर धर देते हैं। सबसे अधिक राजस्व देने वाला नशे का उद्योग डूबने लगा था, कैंसर के रोग का अब भारत से मन ऊबने लगा था। लोग दवाइयाँ खरीदना कर रहे थे बंद, दवा उद्योग के आकाओं का हाथ होने लगा था तंग। रोगाणुओं की गिनती के ही अनुरूप वह विदेषों में ले जाए गये काले धन की भी अरबों-खरबों में गिनती करने लगे थे। काले धन की क्या कहें सफेद धन वाले भी उनसे डरने लगे थे। बाबा बड़े नोट बंद करवा रहे थे छोटे नोट कहाँ रखें यह तक नहीं बता रहे थे। इतनी महँगाई में छोटे नोट क्या ट्रकों में भर कर सब्जी खरीदने जाते, सब्जी से अधिक उस पर आयातित पैट्रोल जलाते। पहले ही हम कोयला ढोने के लिए तेल जला रहे हैं, बिजली भी पानी की जगह कोयले से बना रहे हैं। कोई भी सरकार, जिसके अपने ही दल और उसके समर्थक, इस काले धन रूपी रोगाणुओं के जन्मदाता हों, उन्हें कैसे नष्ट होने दे सकती है। कोई भी मां अपने बच्चों की लाश अपने कंधों पर कैसे ढो सकती है। इनकी रक्षा करना उसके लिए मजबूरी नहीं तो और क्या थी। वैसे बाबा के भक्तों पर खुशी से लाठी गोली चलाने की उन्हें कोई चाह नहीं थी।

इतना ही नहीं बाबा सत्याग्रह के नाम पर न जाने कितने ही योग सैनिकों को रामलीला मैदान में इकट्ठा कर रहे थे। ये सैनिक एक एक मिनट में कई कई सौ बढ़ रहे थे। वे सभी लोम-विलोम रूपी बंदूकों और कपालभाति सरीखी तोपों से लैस थे, किसी भी क्षण वे गोले दागने के लिए मुस्तैद थे। कुछ के पास तो भ्रामरी जैसी मिसाइलें भी थीं इसकी खबर भी सरकार को लग चुकी थी, डर के मारे सरकार की घिग्गी बँध चुकी थी। वहाँ बमों के निर्माण की तैयारी की जाने वाली थी नाड़ी शोधन के नाम पर। एक एक सैनिक मर मिटने को तैयार था भ्रष्टाचार की लाम पर। प्रवचनों के राकेट दागे जाने की सूचना तो पूरे विश्व को मिल चुकी थी, सरकार की नैतिकता की पूरी नींव हिल चुकी थी। ऐसे में सरकार चुप कैसे रह
सकती थी, इन आधुनिक हथियारों की मार चुप चाप कैसे सह सकती थी।

इसे गनीमत ही समझा जाना चाहिए कि प्रधान मंत्री ने केवल पुलिस बल का ही प्रयोग किया, अपनी सुरक्षा में तैनात ब्लैक कैट को कोई आदेश नहीं दिया। क्योंकि अभी इन रोगाणुओं पर घातक प्राणलेवा हमला केवल कुछ चंद लोग ही बाबा के बहकावे में आ कर कर रहे थे, देश के एक अरब नागरिक तो अभी भी सरकार से डर रहे थे। कुछ करोड़ अपने अपने घरों को ताजा आक्सीजन से भर रहे थे। यदि कहीं इन रोगाणुओं से संक्रमणित भ्रष्टाचार पर और भी तेज प्रहार होने लगते, जिसका सरकार को पूरा अंदेषा था, तो उन्हें पुलिस की बजाय सेना बुलानी पड़ती, अपनी मजबूरी कुछ और बढ़ा कर बतानी पड़ती। तब तो स्थिति और भी अधिक भयावह हो उठती, देश में कटी सो कटी तब नाक विदेश में भी कटती। मानवाधिकार वाले कुछ अधिक मचाते हल्ला तो बताओ क्या करते उनके प्रणव और कपिल सरीखे लल्ला। इसके लिए देशवासियों को प्रधान मंत्री की विवशता समझते हुए उन्हें क्षमा कर देना चाहिए। अपना समर्थन उनके कदमों में धर देना चाहिए। जैसे बाबा रामदेव ने किया है, भारत तो हमेशा क्षमादान कर करके ही जिया है। शायद इसमें बाबा की भी कोई मजबूरी ही रही होगी। क्षमा करने की बात जरूरी रही होगी। इसी प्रकार महात्मा गांधी भी अंग्रेजों को बार बार क्षमा करते रहते थे,एक गाल पर थप्पड़ पड़ता तो दूसरा सामने धरते थे।

दक्षिणी अफ्रीका में जब एक बार वह बुरी तरह से अंग्रेजों द्वारा घेर लिए गये थे तो सत्याग्रह करने की अपेक्षा ऐसे ही भेष बदल कर घर के पिछवाड़े से निकल भागे थे। पुलिस के संरक्षण के बावजूद वे भागने में सबसे आगे थे। बाद में उन्होंने इसके लिए अंग्रेजों को क्षमा भी कर दिया था। क्षमा के बदले गोरों से कोई आश्वासन भी नहीं लिया था। बाबा ने अवश्य ही उनके जीवन से कुछ तो है पकड़ा, लाठी भले ही नहीं थामी हो थाम़ लिया सीधा सा धोती वाला कपड़ा। ठीक भी है यदि सरकार अंग्रेजों की तरह से अत्याचार करने के लिए मजबूर है तो बाबा भी गांधी की तरह सत्याग्रह करने के लिए मशहूर है। तभी तो इतिहास अपने आपको दोहराएगा। जो बोया है वही तो लौट कर आयेगा। इतिहास की भी यह मजबूरी है कि वह अपने आपको दोहराता रहता है, गया वक्त भले ही लौट कर न आये, पर घटनाक्रम अवश्य ही लौट कर आता है।

वास्तव में आतंकवादी और दमनकारी शासन की यह मजबूरी होती है कि उसे पुराने हिंसक और दमनकारी कदमों से कुछ अधिक कठोर कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ता है, तभी उसका नेतृत्व आगे बढ़ता है। यदि दमनकारी ऐसा नहीं करता तो उसके नेतृत्व की क्षमता पर सन्देह होने लगता है। दमनकारी दल स्वयं अपने नेता के रवैये पर रोने लगता है। अपने देश अथवा विदेश में इस समय चलने वाले जितने भी आतंकवादी अभियान हैं उन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किसी भी आतंकवादी नेता अथवा दमनकारी शासक को मजबूर हो कर ऐसा करना ही पड़ता है। अथवा कहीं गुप्त स्थान की गुप्त गुफा में चुपचाप पड़े सड़ना पड़ता है। जिंदा रहना है तो अत्याचार की अगली सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता है। जो सत्ता में बने रहने के लिए यह रास्ता अपनाते हैं, वही दमनकारी शासक इतिहास में अपने लिए जगह बनाते हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है जब पंजाब में उग्रवाद अपना सिर उठा रहा था तो उसका नेतृत्व संत भिंडरावाला के हाथ में इसी लिए आया कि वह अन्य गुटों के मुकाबले अधिक अतिवादी कदम उठाने का पक्षधर था। उसका हर नया कदम पहले से अधिक कठोर और अतिकर था। नक्सली, बोड़ो, नागा, लिट्टे अथवा अलकायदा के इतिहास से भी यह सब सहज रूप से जाना जा सकता है, कौन सा आन्दोलन कहाँ जा रहा है यह उनके अत्याचारों से पहचाना जा सकता है।

आपात काल से पहले जब कांग्रेस सरकार ने गो हत्या बंदी के लिए चलाये जाने वाले आन्दोलन के दौरान संतों पर लाठी प्रहार किया था तो लोग अंग्रेजों के अत्याचारों से उसकी तुलना करने लगे थे और यह सिद्ध हो गया था कि कांग्रेस को अंग्रेजों की तरह केवल फूट डालो की नीति के अनुसार राज करना ही नहीं आता लाठी गोली चलानी भी आती है। उनके पास सुरक्षित अंग्रेजों की पूरी थाती है। यह दीगर बात है कि जब जब ऐसे दमनकाराी कदम उठाये जाते हैं,निर्दोश लोग नाहक ही सताये जाते हैं। जनता उनका मुँह तोड़ जवाब देती है, जमी जमाई कुर्सी से उतार देती है। विशेष रूप से भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में जहाँ की जनता को शासक आज तक निपट गंवार और अनपढ़ मानते हैं। वे नागरिक भी अपने वोट की कीमत जानते हैं। स्वयं कांग्रेस ने भी अंग्रेजों को ऐसा ही मुँह तोड़ उत्तर दिया था, उसी के बल पर इतने वर्षों इस देश पर अकेले ही राज किया था।

यदि सरकार इतिहास से सबक ले तो उसे ज्ञात होगा कि गो भक्तों पर किए गये अत्याचारों का फल पहली बार कांग्रेस को १९६७ में चखना पड़ा था। कहाँ कहाँ राज गद्दी से हटना पड़ा था। जब कांग्रेस ने सिखों के अत्यंत पवित्र स्थान हरमन्दिर साहब को सैनिक बूटों के तले रौंदा था तब भी उन्हें अपनी सबसे बड़ी नेता को खोना पड़ा था। श्रीलंका में पहले लिट्टे को प्राश्रय देने और बाद में उन्हें समाप्त करने के लिए सेना भेजने का मूल्य उसें युवा नेता के प्राणों से चुकाना पड़ा था। शान्ति सैनिकों को भी बड़ी संख्या में मरवाना पड़ा था। राम भक्तों पर किये गये गोली कांड के परिणाम भी कांग्रेस के लिए सुखद नहीं रहे थे, चुनावों में उसने कितने ही थपेड़े सहे थे। आपात काल में गरीबी हटाने के नाम पर गरीबों को हटाने की वजह से कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया था। जल्दी ही उसके अत्याचारों का हिसाब हो गया था। इन सब बातों से यदि हमारे इतने बुद्धिमान प्रधान मंत्री ने कोई सबक सीखना नहीं चाहा तो यह निश्चित है कि वे बहुत ही मजबूर रहे होगें।

इतने मजबूर कि उन्होंने रात्रि के समय महिलाओं और दूध पीते बच्चों पर लाठी और आँसू के गोले छोड़ने में कोई परहेज नहीं किया। जो डॉयर ने जलियाँवाला बाग में नहीं किया वह उन्होंने रामलीला मैदान में किया। उन्होंने अपने संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी कोई लिहाज नहीं किया। वास्तव में उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति में सहिष्णुता नाम की कोई चीज होती है यह जाना ही नहीं। गांधी जी की अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत को माना ही नहीं। बुद्धिजीवी होते हुए भी उन्होंने अपने आपको भिंडरावाला और डॉयर की श्रेणी में क्यों रखा मैं जानता नहीं, उन्होंने स्वविवेक से यह सब किया होगा मन मानता नहीं। शायद उन्हें उन लोगों से आदेश अथवा प्रेरणा मिली होगी जिनके संस्कार भारतीय न हो कर इटली अथवा यूरोप की मिट्टी से आये होगें, या फिर उनके सलाहकार कोई ओसामा-बिन-लादेन के हमसाये होगें। अपने देश की संस्कृति को विस्मृत करके किसी दूसरे देश की संस्कृति को सिर माथे पर बिठाने में उनकी क्या मजबूरी थी यह उन्होंने देश को बताया नहीं, संतों पर लाठी गोली चलाना क्यों जरूरी था यह भी बताया नहीं। भले ही आज जनता ने यह बात नहीं पूछी पर भविष्य में पूछेगी जरूर, यह निश्चित है कि आगे वह आपको गद्दी पर बैठने नहीं देगी हजूर।

२२ अगस्त २०११

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