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जेठ की उजली
दुपहरी थी। पत्ता तक नहीं हिल रहा था। लू के थपेड़े, घने पेडों
के बावजूद, बदन पर आग की लपटों की तरह लपलपा रहे थे। इस खौफनाक
मौसम में बस एक ही राहत थी, गौरैया की मधुर आवाज़। दोपहर के इस
घनघोर सन्नाटे में उसकी
आवाज़ पेड़–पौधों के ऊपर तितली की तरह थिरक रही थी।
इस आवाज़ के सम्मोहन में
ही मैं बाहर बगिया में निकल आया था और पेड़ के नीचे पड़ी खटिया
पर पसर गया था। गौरैया चुप हो जाती तो लगता, पूरी कायनात धू–धू
जल रही है, अभी सब कुछ जल कर राख हो जाएगा। गौरैया बोलती तो
लगता, अभी प्रलय बहुत दूर है। पृथ्वी पर जीवन के चिह्न बाकी
हैं।
लगातार एक जिज्ञासा हो रही थी कि क्या कह रही है यह गौरैया?
पृथ्वी के अन्य प्राणियों की तरह थोड़ी देर सुस्ता क्यों नहीं
लेती? मैं उसकी आवाज़ को लिपिबद्ध भी करना चाहता था, मगर
वर्णमाला में उपयुक्त वर्ण नहीं मिल रहे थे। काफी देर तक इस
उधेड़बुन में लगा रहा, जब कोई नतीजा नहीं निकला तो मैंने यह
कोशिश छोड़ दी और एक सीधा–सादा सरलीकरण स्वीकार कर लिया कि
गौरैया 'हर हर महादेव' कह रही है, गायत्री मंत्र का पाठ कर रही
है! वेद की किसी ऋचा को याद कर रही है। नहीं, यह सरासर बकवास
है! यह तुम्हारे
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