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वह गिलास कोई
साधारण गिलास नहीं था। फिर उसकी कहानी साधारण कैसे होती। किंतु
ऐसी होगी यह किसी ने कहीं जाना था। कई पीढ़ियों की सेवा
करते-करते उस गिलास पर क्या बीती कि हे भगवान! वह गिलास हमारे
परबाबा जी का था। ख़ूब बड़ा सा, पीतल का गिलास बेहद सुंदर
नक्काशीदार। अंदर उसमें कलई रहती थी। चाय का उन दिनों रिवाज़
नहीं था। हमारे परबाबा जी उस गिलास में भरकर जाड़ों में दूध और
गर्मियों में गाढ़ी लस्सी पिया करते थे। ठंडाई बनती तो उसी में,
और पानी तो उसमें पीते ही थे।
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वह गिलास जिसमें लगभग सेर भर दूध आता था सिर्फ परबाबा जी ही
इस्तेमाल करते रहे। उनकी जिंदगी में उसमें कुछ भी पाने की
जुर्रत किसी में भी नहीं थी। जैसा रोब परबाबा जी का था वैसा ही
गिलास का भी था। उसको उठाने की ताव घर के किसी भी बच्चे की
नहीं थी, जो उठाता वही बैठ रहता।
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परबाबा जी की मुझे याद नहीं। मैं दो वर्ष की थी जब वे परलोक
सिधार गए। कई लोगों ने कहा कि यह गिलास दान कर दो उनको बड़ा
प्यारा था। किंतु पुरखों की निशानी को यह कहकर रख लिया गया कि
पुरानी चीज़ें नहीं, नए बर्तन दान किए जाते हैं। अब वह गिलास
किस तरह से मेरे बाबा के पाँच भाइयों में से मेरे ही बाबा को
और उनके स्वर्गवासी होने पर तीन भाइयों में से मेरे पापा को ही
मिला। यह अलग कहानी है। |