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अगस्त के जन्मदिन पर विशेष
व्यंग्य का सही दृष्टिकोण – हरिशंकर परसाई
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डॉ प्रेम जनमेजय
हिन्दी साहित्य के आधुनिक
काल को एक रेखा साफ साफ विभाजित कर रही है और वह रेखा है
देश की आजादी की। आजादी के कारण परिस्थितियाँ बदलीं तो
रचनाकार के सोचने का तरीका भी बदला। आजादी से पहले की सोच
तथा आजादी के दस साल बाद की सोच में पर्याप्त अंतर आया।
जिस आजादी के प्रति मोह था। वह भंग होने की स्थिति में आ
पहुँचा। वैचारिक दृष्टि से ही नहीं अन्य अनेक दृष्टियों से
भारतीय परिवेश में परिवर्तन लक्षित हुए।
साहित्यिक विधाओं में भी एक अंतर दिखाई देता है। आधुनिक
काल के आरम्भिक समय में जहाँ कविता का एकछत्र राज्य करती
थी, वहीं गद्य के प्रवेश ने धीरे–धीरे स्वयं को बराबरी के
स्तर तक पहुँचाया। प्रेमचंद के माध्यम से हिंदी कथा
साहित्य का आरम्भ और विकास, भारतेंदु और प्रसाद के द्वारा
नाटक का आरम्भ और विकास, रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद
द्विवेदी आदि के माध्यम से आलोचना का आरम्भ तथा विकास हुआ।
इस तरह के विकास गद्य की
अन्य विधाओं में भी हुए और
यह इन्हीं विकासों का परिणाम है कि आलोचकों ने आधुनिक युग
को गद्य–युग भी कहा।
गद्य को कवियों की कसौटी माना जाता है। यदि गद्य कविता की
कसौटी है तो व्यंग्य गद्य की कसौटी है। कविता को अपना रूप
निखारने के लिए वर्षों का समय मिला है। इसके मुकाबले गद्य
ने अल्पकाल में ही बहुमुखी विकास किया है। व्यंग्य का सही
स्वरूप तो स्वतंत्रता के बाद ही उभर कर आया है। स्वतंत्रता
से पहले जो व्यंग्य रचना में ध्वनित मात्र होता था, आजादी
के बाद वही रचना के रूप में विकसित दृष्टिगत होता है।
हरिशंकर परसाई के शब्दों में कहें तो शूद्र व्यंग्य को
ब्राह्मण का दर्जा मिला। इससे पहले कविता कहानी नाटक आदि
में व्यंग्य आ जाता था। तथा व्यंग्य की पहचान हास्य के
सहयोगी के रूप में अधिक की जाती थी। परन्तु इस सहयोग ने
व्यंग्य को पर्याप्त हानि भी पहुँचाई। मंच के मोह में फूहड़
तथा हास्यास्पद रचनाओं के उत्पादन ने आलोचकों को यह धारणा
बनाने के लिए विवश किया कि
हास्य दोयम दर्जे का साहित्य
होता है। यही धारणा सम्पूर्ण हास्य–व्यंग्य साहित्य के लिए
बन गई।
हिंदी में सार्थक तथा गंभीर व्यंग्य की शुरूआत गद्य में
हुई। कबीर और भारतेन्दु ने सामाजिक विसंगतियों पर
दिशायुक्त प्रहार करने की जो परम्परा आरम्भ की थी उसे
हरिशंकर परसोई ने अपने लेखन द्वारा और अधिक सशक्त किया।
परसाई ने पहली बार व्यंग्य को उसके सही रूप में पहचान
दिलाई। अपने आरंभिक व्यक्तव्यों में परसाई ने निरंतर इस
बात पर बल दिया कि व्यंग्य और हास्य दोनों अलग अलग हैं।
परसाई ने व्यंग्य के नाम पर हास्य के भौंड़े रूप की
रचनात्मक अभिव्यक्ति का
निरंतर विरोध किया।
व्यंग्य के प्रति हिंदी के आलोचकों की उपेक्षा पर भी
उन्होंने व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ कीं। परसाई का मूल विरोध
ऐसे आलोचकों से था जो व्यंग्य को हास्य के साथ जोड़ते हैं
तथा उसे दूसरे दर्जे का साहित्य मानते हैं। परसाई एक
दृष्टि सम्पन्न रचनाकार थे, इसलिए वह इस संदर्भ में सतर्क
थे कि किस पर व्यंग्य किया जाए और किस पर नहीं। उनकी
मान्यता थी कि अच्छा
व्यंग्य करूणा उपजाता है। अतः व्यंग्य में आवश्यक नहीं है
कि हँसी आए।
यह हरिशंकर परसाई की चेतना सम्पन्न दृष्टि का परिणाम था कि
हिंदी गद्य में सार्थक व्यंग्य लेखन की शुरूआत हुई। बाद
में श्रीलाल शुक्ल शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, मनोहर
श्याम जोशी, नरेन्द्र कोहली, शंकर पुणताम्बेकर गोपाल
चतुर्वेदी लतीफ घोघी आदि ने इसे और अधिक सुदृढ किया और
स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी गद्य व्यंग्य निरंतर ऊँचाइयों
की ओर बढाता गया।
हरिशंकर परसाई के लेखन ने एक पूरे युग को प्रभावित किया
है। परसाई का जीवन को देखने का एक अलग दृष्टिकोण था, एक
ऐसा दृष्टिकोण जो कबीर की तरह मुराडा लिए हर तरह के पाखंड
का पर्दाफाश करने को तत्पर था। परसाई ने एक ऐसी शैली का
निर्माण किया जो अपनी अभिव्यक्ति में प्रखर बिना लाग लपेट
के सीधे बात कहने वाली तथा सार्थक दिशापूर्ण चिंतन से
युक्त थी। इस प्रहार में कोई मैल नहीं था अपितु पाश्चात्य
आलोचक मेरीडेथ के शब्दों में कहें तो एक सामाजिक ठेकेदार
का रूप था जो सामाािजक सफाई में विश्वास करता है। एक
साक्षात्कार के दौरान परसाई जी ने
मुझसे कहा भी था –
व्यंग्यकार के अंदर मैल नहीं होना चाहिए।
हरिशंकर परसाई के लेखन में व्यंग्य ऋणात्मक नहीं है। अपने
समय की राजनीतिक, शैक्षिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक
विसंगतियों पर परसाई नें जो व्यंग्य किए हैं उनमें एक
ईमानदार व्यक्ति द्वारा बिना किसी लाग लपेट के ऐसी
विसंगतियों पर प्रहार है, जो मानव विरोधी हैं। एक झोंक में
हर किसी पर आक्रमण करते चले जाना परसाई की प्रवृत्ति नहीं
है। उनके लेखन में एक गहरी करूणा छिपी है जो पाठक को सही
चिंतन की ओर मोड़ती है। परसाई की एक रचना है "अकाल –
उत्सव", मैं जब भी इस रचना को पढ़ता हूँ रौंगटे खड़े हो
जाते हैं। रचना का शीर्षक ही व्यंग्य की सृष्टि करता है।
प्रस्तुत व्यंग्य के द्वारा परसाई की रचनात्मक शक्ति तथा
उनकी वैचारिक सोच की झलक मिल जाती है।
इस रचना में स्पष्टतः परसाई दबे तथा साधनहीन सबके के साथ
खड़े दिखाई देते हैं। वह लिखते हैं ––
"हड्डी – ही – हड्डी। पता नहीं किस गोंद से इन हड्डियों को
जोड़कर आदमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिए गए हैं। यह जीवित
रहने की इच्छा ही गोंद है। यह हड्डी जोड़ देती है। सिर मील
भर दूर पड़ा हो तो जुड़ जाता है। जीने की इच्छा की गोंद बड़ी
ताकतवर होती है। पर सोचता हूँ यह जीवित क्यों हैं? ये मरने
की इच्छा खाकर जीवित हैं। ये रोज कहते हैं –
इससे तो मौत आ जाए अच्छा
है।"
इस पीड़ा को बिना अपने जीवन का हिस्सा बनाए अभिव्यक्त कर
पाना कठिन है। व्यंग्य को हास्य से जोड़ने वाले आलोचक यदि
इस रचना में हास्य ढूंढने का प्रयास करेंगें, तो उन्हें
निराशा ही होगी। व्यंग्य की करूणा में परिणति कैसे होती
है, यदि इसकी तलाश किसी स्वनामधन्य आलोचक को करनी हो तो वह
इस रचना का पाठ करे।
हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य के लिए हास्य की बैसाखी को कभी
स्वीकार नहीं किया। यही कारण है कि उनके साहित्य में फूहड़
हास्य का कोई स्थान नहीं है। उन्होंने व्यंग्यकार के रूप
में स्वयं को फनीथिंग मानने से भी इंकार किया। ऐसे समय में
जब हास्य – व्यंग्य रचनाकार के नाम पर मंच के आकर्षण ये
बंधे अनेक रचनाकार, जनता से सीधे जुड़ने का दंभ पाल
व्यावसायिक हो रहे थे, परसाई ने इस मोह को पलने नहीं दिया।
जिन लोगों ने परसाई के मौखिक व्यंग्य को
सुना है, उनसे बातचीत की है,
वे परसाई की वाक – शक्ति को अच्छी तरह से जानते हैं।
परसाई ने स्तम्भ लेखन
को भी एक नई दिशा दी। अपनी आर्थिक विवशताओं के कारण परसाई
ने स्तम्भ लेखन की राह पकड़ी और इससे शुरू हुआ हिंदी
पत्रकारिकता का एक नया दौर। धीरे धीरे व्यंग्य से परिपूर्ण
व्यंग्य स्तम्भ पत्र पत्रिकाओं की आवश्यक बन गए। अपने समय
की विसंगतियों को समझने का इससे बढिया कोई माध्यम नहीं था।
इस कार्य को अत्यधिक गति दी शरद जोशी ने। यह परम्परा आज
इतनी 'गतिवान' हो गयी है कि आज इसे थामने की आवश्यकता
महसूस की जा रही है। इस गति का शिकार हमारे यह दोनों अग्रज
रचनाकार भी हुए। 'क्षण–भंगुर' रचनाओं के इस लेखन मोह ने
इन्हें किसी बड़ी रचना के लेखन से दूर कर दिया। इसे मैं
हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति मानता हूँ।
आज इन दोनो रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत किया गया यह मायाजाल
अनेक नये रचनाकारों को अपनी गिरफ्त में बाँधे हुए हैं।
परसाई और जोशी इस लेखन के खतरों से वाकिफ थे और एक परिपक्व
रचनाकार की दृष्टि से सामयिक घटनाओं को देख परख रहे थे।
परन्तु आज के नये रचनाकारें में ऐसे लेखन के लिए आवश्यक
चिंतन और विचारधारा गायब है। हरशिंकर परसाई ने हिंदी गद्य
को एक नया रूप प्रदान किया है, एक ऐसी विधा से उसका परिचय
कराया है जो अपने तेवर में प्रखर तथा पाठकों से सीधे जुड़ने
वाली हैं। वह हिंदी साहित्य की गद्य परम्परा के एक
महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनकी चर्चा किए बिना गद्य
साहित्य की ताकत का सही अंदाजा नहीं लगाया सकता है। |