रचनाकार
सच्चिदानंद चतुर्वेदी
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प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन,
१- बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली- ११० ००२
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पृष्ठ - २७२
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मूल्य :
विदेश में- $ २९.९५
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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह
वेब पर
दुनिया के हर कोने में
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'अधबुनी
रस्सी : एक परिकथा' (उपन्यास)
सच्चिदानंद चतुर्वेदी का
उपन्यास `अधबुनी रस्सी : एक परिकथा' आंचलिक उपन्यासों और
ग्राम कथाओं की परंपरा का विकास करने वाला अद्यतन प्रयास
है। वस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से इसके नयेपन को
निरखा परखा जा सकता है। सौ साल पहले `हिंद स्वराज' के रूप
में महात्मा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र की जिस रस्सी को
बुनना शुरू किया था वह आज भी अधबुनी ही है! उपन्यास की
कथाभूमि डमरुआ गाँव है लेकिन उसका ध्वन्यर्थ है भारतवर्ष।
इसी कारण भारतीय लोकतंत्र के स्वप्न और उनके टूटने की
त्रासदी इसके पृष्ठ पृष्ठ पर अंकित जान पड़ती है। डॉ.
वेणुगोपाल ने 'अधबुनी रस्सी' को `मैला आँचल' और `अलग अलग
वैतरणी' की परंपरा में रखा है, मैं इस सूची में `राग
दरबारी' को भी जोड़ना चाहूँगा क्योंकि अत्यंत महीन व्यंग्य
भी रस्सी की बुनावट में आद्यंत शामिल है जो गाहे बगाहे
पाठक की संवेदना को चीरता चलता है।
`अधबुनी रस्सी' ने मुझे अपनी कथा शैली के कारण खास तौर से
आकर्षित किया। यहाँ लेखक को कोई जल्दबाजी नहीं है वह आराम
से ठेठ ग्रामीण भारतीय शैली में किस्सा बयान करता हुआ सा
लगता है। कहीं कहीं कथावाचन का भी मजा है। विवरण तो बेजोड़
हैं। संवादों में लोकभाषा और नाटकीयता के कारण मारकता का
समावेश हुआ है। किस्सा गढने के शैलीय उपकरणों का डा।
चतुर्वेदी ने इतनी सहजता से प्रयोग किया है कि पाठक
गहराई से जुड़ता चला जाता है। मेरी दृष्टि में यह किसी भी
कथाकृति की सफलता की कसौटी है।
एक सामान्य से विवरण को संस्कृत शब्दावली के प्रयोग द्वारा
व्यंग्य की ध्वनि प्रदान करना तो कोई सच्चिदानंद चतुर्वेदी
से सीखे – "जिह्वा के घंटे की वृत्ताकार भित्ति से टकराते
ही तन-मन को पुलकित कर देने वाला तीव्र नाद उत्पन्न होता
था। नाद उत्पन्न कर, घंटे की वह जिह्वा, तृषित श्वान की
जिह्वा की भाँति काँपती हुई, किसी अन्य दर्शनार्थी के
हस्त-स्पर्श की प्रतीक्षा में, पुनः घंटे के मध्य झूलने
लगती थी।" (पृ.१०)।
राजनैतिक दलों की एक जैसी
भीतरी रंगत को उजागर करने के लिए वे एक साधारण सी
हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न करते हैं और पार्टी लोकतंत्र के
चरित्र को पाठक सहज ही भाँप जाता है – "गाँव के पुरुष
कर्मा से टोपी भी माँग लाते।
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टोपी ला रात भर के लिए पानी
में डुबो देते। टोपी का पीला रंग उतर जाता, सफेद निकल आती। रात भर में जनसंघी टोपी कांग्रेसी टोपी बन जाती। टोपी के
अनुभव के आधार पर डमरुआ के लोगों को यह रहस्य पता चल गया
था कि भीतर से दोनों पार्टियाँ एक हैं, ऊपर से रंग अलग-अलग
हैं। कर्मा यह रहस्य कभी नहीं जान पाया कि गाँव के चाचा
उसकी पीली टोपी धोकर अपनी सफेद टोपी बना लेते हैं।" (पृ.
१५८)। उपन्यास का त्रासद व्यंग्य अपने चरम को पहुँचता है
तब जब ग्राम प्रधान के मुहर और पैड को बरगद की शाखाओं से
बाँधकर लटकाया जाता है और बरगदिया ठलुआ उसके नीचे लेटकर
कहता रहता है – "भारतीय प्रजातंत्र की डमरुआ शाखा का
इंचार्ज हूँ मैं। जिसे मुहर मरवानी हो मेरे पास चला आये।
प्रजातंत्र उस वेश्या के समान है जिसे चाहते तो सब हैं, पर
उसके बच्चों को कोई अपना नाम नहीं देना चाहता।" (पृ. २७२)।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के असफल होने की इस
व्यंग्यात्मक परिकथा में लेखक ने बड़े करीने से कई सारे
आधुनिक विमर्श भी बुन दिए हैं। आद्योपांत उपन्यासकार
हाशियाकृत समुदायों के प्रति चिंतित दिखाई देता है।
स्त्रियाँ हो या दलित, उपेक्षित गाँव हो या पर्यावरण सब के
प्रति लेखक की गहरी संवेदना इस उपन्यास में अभिव्यंजित हुई
है। जितना गुस्सा उन्हें लोकतंत्र की हत्या करनेवाले
राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र पर आता है, उतने ही नाराज वे
उस सामाजिक तंत्र के प्रति भी दिखाई देते हैं जिसने न तो
कभी औरतों को मनुष्य होने का अधिकार दिया और न ही निम्न
वर्ण के लोगों को अपने जैसा जीवित प्राणी तक माना। किसुना
की सारी कहानी इसी सामाजिक भेदभाव की करुण गाथा है। ऐसे
अवसरों पर लेखक ने अपनी ओर से भी टिप्पणी की है और पात्रों
के माध्यम से भी व्यापक सामाजिक परिवर्तन की जरूरत को
दर्शाया है – "खुशी कहाँ है? कितने छूँछे हैं ये शब्द।
चलते-चलते एक सुनसान गली में रुक गया, जमीन पर अपनी उँगली
से तीन-चार आडी-तिरछी लकीरें खींचीं, मान लिया लिखा है
`खुश रहो'। पेशाब में बहा दिया उन लकीरों को, कहा – ''लो
चौबे जी! बह गए तुम और तुम्हारा 'खुश रहो'।'' गाँव में आगे
जाने की जरूरत नहीं समझी उसने, घर लौटने लगा।" (पृ. १९२)।
इसी प्रकार 'पेटीकोट राज' के बहाने देशवासियों की
पुरुषवर्चस्ववादी और स्त्रीविरोधी मानसिकता का
व्यंग्यात्मक खुलासा भी विभिन्न कथायुक्तियों के सार्थक
इस्तेमाल का प्रमाण है। 'आपद्काल' में तो तमाम सभ्यता और
संस्कृति की कलई ही खोल दी गयी है। लोकतंत्र यहाँ तक आते
आते शोक तंत्र में तब्दील हो चुका है - "इमरजेंसी के दौरान
डमरुआ में हुई गिरफ्तारियों तथा बंगालिन ताई के अब तक
डमरुआ न लौटने से पडियाइन चाची इतने डर गयी थीं कि
उन्होंने रास्ते में लोगों को टोक-टोक कर बात करने की अपनी
पुरानी आदत लगभग छोड़ दी थी।" (पृ. २३१)।
`अधबुनी रस्सी : एक परिकथा' की एक बड़ी ताकत है इसका लोक
पक्ष। भूमंडलीकरण और बाजारवाद के विकट घटाटोप के बीच
स्थानीयता और लोक से जुड़ाव ठंडी बयार जैसा सुख देता है।
लेखक के जीवनानुभवों के लोक-सम्पृक्ति से संबलित होने के
कारण यह कथाकृति कहीं भी अपनी जमीन नहीं छोड़ती। लोक की
विपन्नता और दुर्दशा के जितने प्रामाणिक चित्र इस कृति में
है, उसकी सरलता, सहजता और मानसिक सुंदरता भी उतने ही
प्रामाणिक रूप में उभरी है। लोकविश्वास और अंधविश्वास
दोनों ही को उपन्यासकार ने खास अंदाज में उकेरा है। यह लोक
आज भी धरती को अपनी मानता है। "हे, धरती मैया! तुम कभी
बूढ़ी मत होना। हम तुम्हारे बच्चे हैं, तुम्हारे जियाए
जीते हैं। तुम दे देती हो तो दे कौर खा लेता हूँ, वरना वह
भी नसीब न होता। तुम्हारे अलावा हमारा कोई और सहारा नहीं
है।" (पृ. ७८)।
अभिप्राय यह है कि डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने 'अधबुनी
रस्सी' खूब बुनी है और पूरी बुनी है। इसकी बुनावट में
भारतीय लोकतंत्र के अनुभव के रेशे पीड़ा, आक्रोश, व्यंग्य,
विमर्श और लेखकीय विवेक के रेशों के साथ इस तरह गुँथे हुए
है कि पाठक का आंदोलित हो उठना अपरिहार्य है। पिछडेपन,
दरिद्रता और चौतरफा शोषण से ग्रस्त डमरुआ आमूलचूल परिवर्तन
के लिए छटपटा रहा है। डमरुआ की यह छटपटाहट केवल एक पिछड़े
से गाँव की छटपटाहट नहीं है बल्कि रूढियों में जकड़े इस
देश के आम जन की छटपटाहट है!
-
ऋषभ देव
शर्मा
२९ अगस्त २०११ |