इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
शशि पाधा,
वीनस केसरी, अशोक कुमार पाण्डेय, रामदरश मिश्र और
सुकीर्ति गुप्ता की रचनाएँ। |
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साहित्य और संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में भारत से
इंदिरा दांगी की कहानी-
करिश्मा ब्यूटी पार्लर
बड़ी चर्चा
है, कॉलोनी में नया ब्यूटी पार्लर खुला है।
पिछले एक दशक से आसपास की चार कॉलोनियों सहित इस कॉलोनी पर
एकछत्र राज करने वाले भव्य ब्यूटी पार्लर की गर्वीली संचालिका
राजेश्वरी इन दिनों अपनी पुरानी ग्राहकों के मुँह से भी बस उसी
पार्लर की चर्चाएँ सुन रही हैं। भव्य ब्यूटी पार्लर को
ग्राहकों की कमी नहीं थी,
पर यों ग्राहकों का घटना राजेश्वरी को ईर्ष्या और चिड़चिड़ाहट से
भर रहा था।
राजेश्वरी के पति व्यवसायी थे। आमदनी कम न थी और राजेश्वरी को
घर में करने को कोई काम भी न था सो लगभग दस साल पहले मकान के
निचले, खाली पड़े हिस्से में ब्यूटी पार्लर खोला लिया और अब
इतने वर्षों बाद उनका ब्यूटी पार्लर इतना प्रतिष्ठित हो चुका
था कि काम सम्हालने के लिये उन्होनें दो सहायिकाएँ रख लीं थीं। वे संचालन
भर करतीं, पार्लर सहायिकाएँ चलातीं। राजेश्वरी इन दिनों
उखड़ी-उखड़ी-सी रहती हैं। एक दिन पति ने प्यार से पूछा, क्या बात
है राजो, इन दिनों कुछ उदास-सी दिखती हो ?
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रतनचंद जैन का प्रेरक प्रसंग
स्वर्ग - नर्क
की पात्रता
*
मेधा सेठ के शब्दों में
मराठी
रंगमंच का विकास
*
डॉ. मनोज मिश्र की दृष्टि से
भारत का स्वास्थ्य पर्यटन और
ओबामा की चिंता
*
पुनर्पाठ में दो पल के अंतर्गत
अश्विन
गांधी का आलेख पहली रात |
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पिछले
सप्ताह- |
1
गिरीश बिल्लौरे मुकुल का व्यंग्य
उफ़ ये चुगलखोरियाँ
*
डॉ चैत्यन्य सक्सेना का आलेख
ऐतिहासिक बूँदी की
सांस्कृतिक यात्रा
*
पुनर्पाठ में अर्बुदा ओहरी की कलम से
एक दिन माँ के लिये
*
समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ
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समकालीन कहानियों में भारत से
अभिज्ञात की कहानी-
सोने की आरामकुर्सी
रोज़ की तरह
सुरेश आठ घंटे की क्लर्की की ड्यूटी बजाने के बाद घर लौटा था।
वह एक निज़ी जूट मिल में कार्यरत था, जहाँ मज़दूरों और बाबुओं के
वेतन में कोई खास फर्क नहीं था। प्रबंधन के लिए सभी नौकर एक
जैसे थे और वेतन भी एक जैसा। भले वे अलग-अलग काम जानते और करते
हों। इसलिए मज़दूर, झाड़ूदार, दरबान और क्लर्क सबके वेतन में
लगभग समानता थी। सुरेश का जीवन-स्तर भी मजदूरों से कुछ भिन्न
नहीं था। उसके पिता को अफसोस था कि बेमतलब ही उन्होंने बेटे को
एमए तक पढ़ाया। यदि मैट्रिक के बाद ही दरबानी के काम पर लगा
दिया होता आज उसका वेतन कुछ ज्यादा ही होता। खैर पिता तो अब
रहे नहीं, सुरेश एक बेटी, एक बेटे और पत्नी के साथ एक
झोपड़पट्टीनुमा मकान में अपना जीवन बसर कर रहा था। यह डेढ़ कट्ठा
जमीन भी उसके पिता ने जैसे-तैसे खरीदी थी।
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