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                            १मराठी रंगमंच का विकास
 -मेधा साठे
 
 
							मराठी रंगमंच की ऐतिहासिक परंपरा है। इसका प्रारंभ 
							१८४३ से हुआ। आरंभ काल में ऐतिहासिक विषयों तथा 
							पुराणों के आधार पर नाटकों में स्वदेश प्रेम, 
							स्वतंत्रता के प्रति आस्था से संबंधित विषय रहे। इन 
							नाटकों पर तिलक, चिपलुणकर जैसी विभूतियों के विचारों 
							का प्रभाव था। 
 १८८० में अण्णासाहेब 
							किर्लोस्कर लिखित 'संगीत शाकुंतल' का मंचन हुआ। संगीत 
							नाटक, कीर्तन, ऑपेरा, शास्त्रीय संगीत, महफिल, तमाशा, 
							कर्नाटक संगीत से एकदम अलग नाट्याविष्कार था। १९१० से 
							मराठी रंगमंच ने सुवर्णकाल देखा, जिसमें किर्लोस्कर 
							और गोविंद बल्लाल देवल के बाद कृष्णाजी प्रभाकर 
							खाडिलकर, राम गणेश गडकरी जैसे सिद्धहस्त लेखकों ने 
							'मानापमान', 'स्वयंवर', 'एकच प्याला' जैसे अनेक 
							अजरामर नाटकों को जन्म दिया, जिनका मंचन आज भी हो रहा 
							है। उस ज़माने में महिलाओं को नाटक में काम करना मना 
							था, जिसके कारण किसी मोहक काबिल सुरीली आवाज के आदमी 
							को ही स्त्री की भूमिका निभानी पड़ती थी। स्त्री की 
							भूमिका करने वालों में और उन्हें ज़्यादा अमर बनाने 
							वालों में प्रमुख नाम नारायणराव राजहंस का लिया जाता 
							है, जो 'बालगंधर्व' के नाम से प्रख्यात हैं, 
							जिन्होंने अपने गायन और रूप से सबका मन मोह लिया था। 
							उनकी समकालीन महिलाएं तो उनके किये गए फैशन को अपनाती 
							थीं। मास्टर दीनानाथ मंगेशकर, नानासाहेब फाटक, 
							भालचंद्र पेंढारकर ने अपने गाँवों में रंगमंच पर 
							इतिहास रचा। शुरू-शुरू में इन नाटकों की अवधि पाँच 
							अंकों की रहती थी जो रात में १० बजे शुरू होकर सुबह 
							पाँच बजे तक चलते थे। बदलते समय के अनुसार उसे कम कर 
							दिया गया और धीरे-धीरे नाटक ३ अंकों का बन गया। अब तो 
							२ अंक के नाटक होने लगे हैं, जिनकी अवधि ढाई या तीन 
							घंटे होती है।
 
 'संगीत-नाटक' मराठी 
							रंगमंच की विश्व रंगमंच को एक महत्वपूर्ण देन है। 
							नाट्यानंद, काव्यानंद और स्वरानंद का संगम अर्थात् 
							'नाट्यसंगीत'। संगीत नाटकों की परंपरा इस आधुनिकता और 
							पश्चिमीकरण के भंवर में भी अपना स्थान अक्षुण्ण बनाए 
							हुए है। समय के अनुसार 'संगीत-नाटक' में आविष्कार 
							होते गए और नए-नए प्रयोग किए गए। लोगों की रुचि देखकर 
							उसमें सरलता लाई गई। इसमें पं. जितेन्द्र अभिषेकी का 
							कार्य महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने सुगम नाट्यगीत तैयार 
							कर अपनी अलग पहचान बनाई। १९६० से ८० की अवधि में 
							विद्याधर गोखले और वसंत कानेटकर जैसी विभूतियों ने, 
							सभी दर्शकों को भानेवाले संगीत नाटकों की निर्मिती की। 
							आज के दौर में तो पार्श्वसंगीत के आधार पर रिकार्ड 
							किए गए गाने पेश किए जाते हैं। इस प्रकार नया रूप लेकर 
							पेश किए गए नाटकों को सभी लोगों ने पसंद किया। 
							श्रीकांत मोघे, प्रशांत दामले जैसे अभिनेताओं ने 
							'लेकुरे उदंड जाहली', 'एका लग्नाची गोष्ट', जैसे 
							नाटकों को लोकप्रिय बनाया। अब तो मराठी नाटकों में 
							सामूहिक नृत्य भी होता है।
 
 रंगमंच का इतिहास 
							सामाजिक परिवर्तन से भी जुड़ा है क्योंकि अत्रे, 
							रांगणेकर के नाटकों में महिला कलाकारों ने रंगमंच पर 
							काम करना प्रारंभ किया। उस जमाने में ज्योत्सना 
							भोळे, मीनाक्षी, जयमाला शिलेदार जैसी अनेक 
							अभिनेत्रियों ने रंगमंच की सेवा की। आचार्य अत्रे, 
							पु.ल. देशपांडे ने अपने हास्य नाटकों को लोगों के बीच 
							अजर-अमर बनाया है। पु.ल. देशपांडे के 'बटाट्याची चाळ' 
							तो एकपात्री प्रयोग का रिकार्ड है। उन्होंने अपना अलग 
							दर्शकवर्ग तैयार किया।
 
							मराठी दर्शकों का सबसे पसंदीदा नाट्य प्रकार है 
							'फार्स', जिसमें स्वर ऊँचा अभिनय चटकीला होता है। 
							'फार्स' नाट्यकृति को लोकप्रिय बनाने में बबन प्रभु और 
							आत्माराम भेंडे दोनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 
							'दिनूच्या सासूबाई राधाबाई', झोपी गेलेला जागा झाला' 
							ये उनके फार्स तो बहुत ही लोकप्रिय रहे थे और आज भी 
							लोकप्रिय हैं। मराठी नाटकों में अनेक नवीनतम विषयों को 
							स्थान दिया गया। महिलाओं पर आधारित समस्याओं पर 
							नाट्यलेखन हुआ जिसने समाज के जागरण में महत्वपूर्ण 
							योगदान दिया। 'संगीत शारदा', 'एकच प्याला' जैसे नाटक 
							तो कालजयी कृतियों के उदाहरण हैं। 'कुलवधु', 
							'महानंदा', 'चारचौघी', 'आई रिटायर होतेय' स्त्री-जीवन 
							से संबंधित थे जिन्होंने विचारों को प्रेरित किया।
							
 महाराष्ट्र में मराठी 
							नाट्यकला में प्रोत्साहन बच्चों को बचपन से दिया 
							जाता है। यहाँ की बालरंगमंच काफी विकसित है। सुधा 
							करमरकर की 'लिटल थिएटर' संस्था तथा 'कुमार कला 
							केन्द्र' ने अनेक बालकलाकार रंगमंच को दिये। अनेक 
							मराठी नाटकों का हिन्दी, गुजराती में अनुवाद हुआ है। 
							इस रंगमंच के कई कलाकारों ने हिन्दी, गुजराती, 
							अंग्रेजी रंगमंच तथा सिनेमाजगत में नाम कमाया है। डॉ. 
							मोहन आगाशे, रमेश देव, सीमा, नाना पाटेकर, डॉ. श्रीराम 
							लागू, रोहिणी हट्टंगड़ी, रीमा लागू, सदाशिव अमरापूरकर, 
							मोहन जोशी जैसे कई दिग्गजों के नाम इस सूची के चमकते 
							सितारे हैं।
 
 बदलते समय के अनुसार 
							मराठी नाटक भी तकनीकी रूप से बदलता जा रहा है। इसमें 
							नए-नए प्रयोग किये जा रहे हैं। नए-नए स्वरूप में नाटक 
							की प्रस्तुति हो रही है। मराठी नाटकों का सेट नया 
							मोड़ लेता नज़र आ रहा है। पहले रंगीन परदों से सेट 
							बनाए जाते थे फिर घूमते रंगमंच का प्रयोग किया गया 
							जिससे सेट बदलने की अवधि कम हुई। प्रकाश, ध्वनि आदि 
							में भी नयापन आ रहा है और नाटक बदलता जा रहा है।
 
 सिनेमा कलाकारों की तुलना में नाट्य कलाकारों की मेहनत 
							अधिक होती है, किन्तु उन्हें मेहनताना कम मिलता है, 
							मनोरंजन कर ने नाट्य व्यवसाय को पंगु बना दिया है। 
							कला तो कला है, लेकिन राजाश्रय और लोकाश्रय के बिना 
							उसका फलना फूलना मुमकिन नहीं है। मराठी नाटक, 
							नाटककारों, कलाकारों को प्रोत्साहन देने तथा उनकी कला 
							को रंगमंच प्रदान करने के लिए 'मराठी राज्य नाट्य 
							स्पर्धा' का आयोजन होता है, जिसमें अहमदाबाद, इंदौर, 
							भोपाल, दिल्ली जैसे अन्य राज्यों से भी 
							प्रविष्टियाँ आती हैं।
 
 अब तो मराठी नाटककला सात समुंदर पार जा पहुँची है। 
							वहाँ जा कर बसे मराठी लोग वहां पर मराठी नाटक करते 
							हैं, उनका आदर किया जाता है। भारतीय नाट्यकलाकारों को 
							आमंत्रित कर यहां के नाटक वहां नाट्य महोत्सवों में 
							मंचित किये जाते हैं। इस प्रकार नाट्यकला का आदान 
							प्रदान किया जा रहा है। यह मराठी साहित्य और रंगमंच 
							को गौरवान्वित करने वाली घटना है।
 
                            २ मई २०१० |