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प्रेरक-प्रसंग

स्‍वर्ग-नरक की पात्रता
-रचनचंद जैन

एक बार एक आदमी ने सपने में देखा कि उसके शहर का दानवीर सेठ स्‍वर्ग में सुख भोग रहा है। उसके बाद सपने में नरक की यात्रा करते हुए उसने पाया कि एक धर्म का प्रसिद्ध धर्माचार्य नरक में झाड़ू लगा रहा है। इसके बाद उसकी नींद टूट गयी, लेकिन उसका मन बेचैन रहा।

सुबह वह एक ज्ञानी आदमी के पास पहुँचा और सपने की बात सुनाई। फिर पूछा - 'ऐसा कैसे हो सकता है? सेठ तो यहाँ सांसारिक जीवन जीते हुए गृहस्‍थी रूप में रहता था, उसे स्‍वर्ग कैसे मिल गया? और घर-गृहस्‍थी को त्‍याग कर ज्ञान और धर्म का उपदेश देने वाले धर्माचार्य को नरक कैसे मिल गया?

ज्ञानी ने समझाया - 'सांसारिक जीवन में रहते हुए भी सेठ निरपेक्ष भाव से गरीबों, रोगियों और जरूरतमंदों की सेवा में मोह-माया से मुक्‍त रहकर धन खर्च करता रहा। पाठशालाएँ, कुएँ, धर्मशालाएँ बना-बना कर भगवान की सेवा करते हुए उसने अपने मन के विकारों का त्‍याग किया। प्रशंसा, प्रदर्शन और प्रचार से अपने को बहुत दूर रखा। इसलिए वह स्‍वर्ग का पात्र बना।

जबकि धर्माचार्य सांसारिक मोह-माया के त्‍याग की बातें तो करता रहा लेकिन अपने मन के विकारों में संलिप्‍त रहते हुए प्रशंसा और प्रदर्शन की भूख से पीडि़त रहा। अपने वेश और ज्ञान का प्रभाव जमा कर राजनीतिज्ञों तथा प्रभावशाली लोगों से अपनी वाह-वाही करवाता रहा। सन्‍यासवृत्ति का भाव वह अपने मन में पैदा ही नहीं कर पाया, उल्‍टे सन्‍यासी वेश में सुख-भोग में लगा रहा। इसलिए उसे नरक का पात्र बनना पड़ा।'

यह उत्तर सुनकर वह व्यक्ति समझ गया कि स्वर्ग और नर्क की पात्रता व्यवसाय से नहीं बल्कि कर्म और मन से होती है।

२ मई २०११

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