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रोज़ की तरह
सुरेश आठ घंटे की क्लर्की की ड्यूटी बजाने के बाद घर लौटा था।
वह एक निजी जूट मिल में कार्यरत था, जहाँ मज़दूरों और बाबुओं के
वेतन में कोई खास फर्क नहीं था। प्रबंधन के लिए सभी नौकर एक
जैसे थे और वेतन भी एक जैसा। भले वे अलग-अलग काम जानते और करते
हों। इसलिए मजदूर, झाड़ूदार, दरबान और क्लर्क सबके वेतन में
लगभग समानता थी।
सुरेश का जीवन-स्तर भी मज़दूरों से कुछ भिन्न नहीं था। उसके
पिता को अफसोस था कि बेमतलब ही उन्होंने बेटे को एमए तक पढ़ाया।
यदि मैट्रिक के बाद ही दरबानी के काम पर लगा दिया होता आज उसका
वेतन कुछ ज्यादा ही होता। खैर पिता तो अब रहे नहीं, सुरेश एक
बेटी, एक बेटे और पत्नी के साथ एक झोपड़पट्टी नुमा मकान में
अपना जीवन बसर कर रहा था। यह डेढ़ कट्ठा ज़मीन भी उसके पिता ने
जैसे-तैसे खरीदी थी और उस पर एक कामचलाऊ मकान यह सोचकर बनाया
था कि जब कभी आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो ठीक करा लेंगे, लेकिन न
उनकी स्थिति सुधरी न बेटे सुरेश की और मकान और जीर्ण-शीर्ण
होता गया।
अन्ततः वहाँ
एक आलीशान मकान बनाने का ख्वाब लेकर ही वे दुनिया से सिधार
गये। मरने के कुछ दिन पहले बुरे स्वास्थ्य की वज़ह से उनका
चलना-फिरना बंद हो गया था। |