इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
1
कीर्ति काले, विनोद तिवारी, प्रेमचंद गांधी, आचार्य संजीव सलिल और
दिनेश चमोला शैलेष की रचनाएँ। |
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साहित्य और संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में यू.एस.ए. से
सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी
निःशंक
वह घर पहुँचकर अनमनी और उदास तो
थी ही, एक नि:संग सी व्यर्थता और खालीपन का बोझ भी उसे अन्दर
ही अन्दर शिथिल किये था। अच्छा होता, वह घर से जाती ही नहीं।
फिर एक प्रतिरोध उठा- क्यों नहीं जाती। नकाबों को ढोते-ढोते कब
तक जीना होगा। पर नकाब उतर जाने से भी क्या बेचैनी मिट जाती है
? वह अपने आप में बड़ी अव्यवस्थित थी। दो बार बाहर यूँ ही
बरामदे में जाकर देख आयी कि दरवाज़ा ठीक से बंद तो है।
दरवाज़ों के पल्लों पर अन्यथा मिट्टी की परतें दिखाई देने लगी
थीं। परदों का चितकबरापन मुँह चिढ़ा रहा था। धूप की वजह से
उनका रंग उड़ा-उड़ासा लगने लगा था। आज तो वे नितांत बेरंग लग
रहे थे। ध्यान नहीं जाता तो सब ठीक लगता है पर एक बार कहीं मन
के कोने में खटका हो गया तो बात उतरती ही नहीं। रोज़
डाइनिंग टेबल पर चिड़िया फुदकती रहती हैं और आज तो बड़ी ढीठता
से बीट कर गई थीं। उसे लगा यह भी उन्हें न झटकने का ही कारण
है।
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धीरेन्द्र शुक्ला का व्यंग्य
खेल घोटालों का
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टीम अभिव्यक्ति की
श्रद्धांजलि
चाचा अनंत पई को
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फुलवारी में बच्चों के लिये-
आविष्कारों की कहानी
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पिछले
सप्ताह- |
सुरेन्द्र गुप्त की लघुकथा
रजाई
*
प्रकृति और पर्यावरण में अनुपम
मिश्र
का लेख-
सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा
*
डॉ. राजेन्द्र गौतम का संस्मरण
सादगी और साफ़गोई की तस्वीर- डॉ. शंभुनाथ सिंह
*
पुनर्पाठ में देखें-
चित्र लेख- दिन
की अगवानी
*
उपन्यास अंश में भारत से
पुष्पा तिवारी
के उपन्यास 'नरसू की टुकुन कथा'
का एक अंश- नरसू
नाचते-नाचते थक गया हूँ। पैर हैं
कि मन में थिरकते ही रहते हैं। स्टेशन दर स्टेशन गाड़ियाँ
बदलते पैर कितने थक गए हैं और मन भी। मेरे पैर नाचते हुए कभी
नहीं थके। नाचने से मैं कभी थकता भी नहीं। वह उत्साह नहीं है,
लेकिन आज समय के बदलते अंदाज़ में, मैं कहाँ हूँ? क्या सोच कर
यहाँ आया था और कहाँ पहुँचा? पहुँच पाया भी कि नहीं नहीं
मालूम! उम्र के कितने बरस बीत गए हैं... शायद पैंसठ या एक दो
साल ज्यादा ही। कभी फुरसत नहीं मिली कुछ भी सोचने की। मेरी एक
ज़िद सदैव रही है और तिस पर एक जुनून। उसने मुझे और किसी बात
के लिए अवसर ही नहीं दिया। बिता दिया एक सक्रिय जीवन अपनी तरह
का। अब सोचने को बचा कहाँ है? बच्चे बड़े हो गए हैं। सोच तो वे
रहे हैं। उनके सामने पूरा जीवन है।
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