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सादगी और साफगोई
की तस्वीर :
डॉ० शंभुनाथ सिंह
-
.डॉ० राजेन्द्र गौतम
डेढ़ दशक से
भी अधिक हो गया है शंभुनाथ जी को गए हुए! दरअसल मौत उनके पास
एक चालाक शेरनी की तरह दबे पाँव आकर नहीं झपटी थी बल्कि उनके
जीवन की अंतिम पाँच वर्षो की घटनाएँ क्रमश: दु:खद आशंकाओं की
छाया से घेरती रही थीं। सन् '८५ में मुझे उनका एक पोस्टकार्ड
मिला था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं उनसे 'अखिल भारतीय
आयुर्विज्ञान संस्थान` में आकर मिलूँ। तब हृदय सम्बन्धी
विकारों के कारण उन्हें वहाँ कुछ दिन रहना पड़ा था। एक आने
वाले खतरे को मंडराता देख कर मैं तभी सहमा था, मेरी आंशका तब
और बेचैन करने लगी थी, जब कुछ दिन बाद ही आंशिक पक्षाघात से
उनकी वाग्शक्ति बहुत प्रभावित हो गई थी। मेरे पिछले पत्र का
उत्तर तो उन्होंने स्वयं नहीं दिया था, बल्कि उनके सुपुत्र
श्री राजीव सिंह ने ही सूचित किया था, कि वे गंभीर रूप से
अस्वस्थ हैं। असल में इन वर्षो में तेजी से कुछ ऐसा घट रहा था
जिससे अत्यधिक सक्रियता वाला वह बिम्ब धूमिल होता जा रहा था,
जो मेर लिए चिर परिचित था। मैंने तो उन्हें सदैव युवाओं जैसे
उत्साह एवं वैसी ही स्फूर्ति से लैस देखा था। कहीं नवें दशक की
तेज भागमभाग ने ही तो उन्हें थका नहीं डाला था?
लगभग पचपन वर्षों की अपनी दीर्घ साहित्य-यात्रा के दौरान
उन्होंने हिन्दी साहित्य में एक कवि और अलोचक के रूप में अपना
एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। सन् `४१ में 'रूपरश्मि` के
प्रकाशन से लेकर` `वक्त की मीनार पर` तक उनकी रचना-यात्रा में
अनेक मरहले आए हैं। पारम्परिक गीत, फिर 'माध्यम मैं` के माध्यम
से नवगीत की जमीन तैयार करना, पुन: नई कविता की ओर मुड़ना और
अपने जीवन के अंतिम दो दशक नवगीत को समर्पित कर देना उनकी
दीर्घ साधना के साक्षी हैं। इन दो दशकों में उन्होंने छांदंसिक
नव-काव्य की स्थापना के लिए जो लड़ाई लड़ी, उसमें वे निश्चित
और साफ दृष्टि रखते थे। उन्होंने किसी बिन्दु पर समझौता नहीं
किया। अपने अंतिम दौर में उन्होंने नई कविता की जो कटु आलोचना
की थी, उससे ही उनके अनेक विरोधी नहीं बने, बल्कि नवगीत में भी
वे अपनी साफगोई के कारण क्रमश: विवादग्रस्त हुए। यहाँ उनके
अनेक सहयोगियों एवं मित्रों के साथ-साथ उन लोगों की संख्या कम
नहीं है, जो उनसे बहुत नाराज थे। मेरी तरह बहुत से लेखक उनसे
नवगीत विषयक उनकी कई मान्यताओं से असहमत भी थे पर असहमति के
बावजूद उन्होंने अपनी ओर से बातचीत का दरवाजा कभी बन्द नहीं
किया और न ही सैद्धान्तिक मतभेद का असर वैयक्तिक सम्बन्धों पर
आने दिया।
`नवगीत दशक` के तीन खंडों एवं `नवगीत अर्द्धशती` का
प्रकाशन ऐतिहासिक महत्व का कार्य है। यह कार्य उन लोगों के
द्वारा किया जाना संभव नहीं था, जो केवल आत्म-प्रतिष्ठा के
लिए लिखते हैं। 'नवगीत दशक` योजना को साकार रूप देने के लिए जो
श्रम-साध्य भागदौड़ उन्हें करनी पड़ी, उसने उनके शरीर और मन को
बहुत थका दिया था। अपने समकालीनों और अपनी दो-तीन परवर्ती
पीढ़ियों के लेखको से निरंतर पत्र-व्यवहार करना और व्यक्तिगत
रूप से अनेक नगरों में जाकर ऐसा संयोजन करना जिससे नवगीत से
जुडे तमाम लेखक एक मंच पर एकत्र हो सकें, ऐसा कार्य है, जिसका
सही-सही मूल्याकन तो आने वाला समय ही कर पाएगा। सन् `८१-८२ में
श्री देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र` के शाहदरा वाले घर में हुई
हमारी अनेक बैठकों में `नवगीत दशक` की इंतिहास-निर्मात्री
योजनाओं को अंतिम रूप देने के लिए हम तीनों की कई दिन घंटों
लम्बी बहस चलती रही थी। इस योजना में कुछ नामों के छूट जाने का
हमें औचित्य समझ में नहीं आ रहा था। लगता रहा था कि कल इतिहास
उनको लेकर सम्पादक से कुछ सवाल जरूर करेगा परन्तु डा० साहब की
अपनी दृढ़ मान्यताएँ थी उन्हें बदलने के लिए वे कतई तैयार नहीं
थे। पर इतिहास की गति इतनी सरल और इकहरी कहाँ है? हो सकता है
कि कल आने वाला इतिहास उनकी ही मान्यताओं को सत्य सिद्ध करे।
'नवगीत दशक`-२ की भूमिका का अंतिम आलेख उन्होंने ज्योतिनगर
शाहदरा वाले मेरे घर में बोल-बोल कर मुझसे ही लिखवाया था। अनेक
वाक्यों एवं शब्दों पर वे मुझ जैसे अल्पज्ञ से राय माँगते थे
और जहाँ सुझाव उन्हें जॅंचता था, उसे तुरन्त मान लेते थे। इससे
मेरा बाल-मन एक संतोष भी अनुभव करता था । तब मैं ही नहीं मेरा
पूरा परिवार उनकी सादगी से और काम करने की लगन से प्रभावित हुआ
था। भोजन में क्या लेंगे - यह पूछे जाने पर उन्होंने सहज़ता से
कहा था -- "केवल खिचड़ी।`` कई घंटे श्रम कर भोजन करने बैठे तो
सीधा निर्देश मिला ''कोई ताम-झाम नहीं।`` फर्श पर चटाई बिछा कर
दही और निंबू के अचार के साथ तृप्त भाव से उन्होंने खिचड़ी का
भोग लगाया। उनकी सादगी पर हम सभी फिदा थे। दिन के पिछले प्रहर
में बच्चों से गुड़ मँगवा कर उन्होंने जिस प्रकार जल के साथ
खाया उनकी वह बाल-सहजता मेरी स्मृति का स्थाई अंग बन गई है।
नवगीत दशकों के प्रकाशन-विमोचन आदि के सिलसिले में दिल्ली में
अनेक बार मुझे उनके साथ अनेक जगहों पर जाना पड़ा। एक चपल
उत्साह से सदैव मैंने उन्हें भरा पाया। हमने बहुत यात्राएँ कीं
-- पैदल, रिक्शा और दिल्ली परिवहन की बसों में। इन यात्राओं
में वे बिल्कुल आम आदमी के रूप में भीड़ का हिस्सा बन कर ही
चलते रहे थे। मुझे दिल्ली पधारने वाले कई 'एरिस्टोक्रेट`
साहित्यकारों के साथ भी कई बार यात्रा करनी पड़ी थी। मुझे
उन परिचित साहित्यकारों एवं मित्रों का खयाल बार-बार आता रहा,
जो स्कूटर-टैक्सी के बिना दो कदम चलना भी अपनी शान के खिलाफ
समझते हैं। डी.टी.सी. की भीड़ से प्राप्त अनुभव से उन्होंने एक
गीत लिखा और मुझे सुनाया। कैसे हम अलग हो कर भी जुड़े हैं --
यह भाव उस गीत में व्यक्त किया गया था। अनुभूति की ईमानदारी
कैसे कविता में ढलती है, यह तो उस गीत से स्पष्ट होता ही था,
सामान्य अनुभव एक बड़ी रचना को किस प्रकार जन्म देते हैं, यह
भी उस गीत से जाना जा सकता है।
पहले दशक का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने २
अगस्त १९८२ के दिन किया था। संयोजक थे -- प्रसिद्ध समाचार-वाचक
श्री अशोक वाजपेयी! वह दिन मै भुला नहीं पा रहा हूँ। उस दिन
सर्वश्री उमाकान्त मालवीय, देवेन्द्र शर्मा इंद्र, देवेन्द्र
कुमार, माहेश्वर तिवारी, सोम ठाकुर, शिवकुमार भदौरिया जैसे
नवगीतकारों का अनुपम मिलन प्रधानमंत्री आवास पर हुआ था। मेरे
दोनों ओर बैठे उमाकान्त मालवीय जी और माहेश्वर तिवारी जी के
ठहाकों से कक्ष गूँज रहा था। आज उमाकान्त जी और देवेन्द्र
कुमार जी हमारे बीच नहीं हैं। इस समूचे संयोजन के सूत्रधार डॉ०
शंभुनाथ सिंह भी चले गए और उनका यह प्रस्थान एक सन्नाटा छोड़
गया। एक तोड़ देने वाला, बिखेर देने वाला सन्नाटा !
'तीसरे दशक` का विमोचन लखनऊ में ३ जून १९८४ को महादेवी वर्मा
ने किया था। उस सम्मेलन में शिवमंगल सिंह 'सुमन`, वासुदेवशरण
सिंह और अमृतलाल नागर भी पधारे थे। दैव योग से अब ये चारों ही
हमारे बीच नहीं हैं। दो दिनों के उस समारोह में आतिथेय,
संचालक, संयोजक और सहभागी के रूप में डॉ० शंभुनाथ सिंह ने अनेक
भूमिकाएँ निबाही थीं। उन्होने हमारे जैसे नए लेखकों को महादेवी
जी से विशेष रूप से मिलवाया था। इस अवस्था में उन्होंने जो
श्रम किया था, वह उनकी लग्न का दस्तावेज लिख रहा था।
डॉ० सिंह में वैचारिक दृढ़ता थी, यह सही है पर व्यक्तित्व के
विकास के लिए अपेक्षित लचीलेपन का उनमें अभाव नहीं था। उनकी
कविता-यात्रा इसका प्रमाण है। 'समय की शिला` पर उन्होंने जो
हस्ताक्षर किए हैं, वे अमिट तो हैं पर वे उनकी गतिशीलता को
अतंकित नहीं रहने देते। छायावादी एवं रूमानी भाव-भूमि से
गीत-रचना आरंभ कर वे बहुत शीघ्र उस परिवर्तित भूमि पर पहुँच गए
थे, जिसमें आंचलिकता एवं लोकपरकता प्रधान थी। 'टेर रही प्रिया
तुम कहाँ` और 'पुरवा धीरे बहो मन का आकाश उड़ा जा रहा` जैसे
गीतों ने नये युग के वातायन खोले थे। अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता
के लिए वे 'नयी कविता` के क्षेत्र में भी गए। वहाँ वे बहुत समय
तक रहे भी। परन्तु आठवें दशक के बाद वे फिर गीत की भूमि पर लौट
आए पर अब वे नये रूप में थे। आंचलिकता की अपेक्षा आधुनिकता-बोध
से सम्पन्न गीत ही इस दौर में उन्होंने लिखे। युद्धों से
त्रस्त मानवता और यांत्रिक आधुनिकता को प्रतीकों एवं रूपकों की
भाषा में उन्होंने रागात्मक अभिव्यक्ति दी। 'वक्त की मीनार` पर
ऐसे ही गीतों का संकलन है।
डा० शंभुनाथ सिंह की पुरातत्त्व में भी गंभीर रुचि थी। अनेक
लेख उन्होंने इस विषय में लिखे हैं परन्तु एक कवि के अतिरिक्त
इनकी ख्याति एक आलोचक के रूप में विशेष रही है। `छायावाद युग`
और 'हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप-विकास` ऐसे शोध-ग्रंथ हैं, जो
आज के उपाधि-अन्वेषी शोध की भीड़ में उनके व्यक्तित्व को अलग
से प्रतिष्ठित करते हैं। 'प्रयोगवाद और नई कविता` में उन्होंने
अपने समकालीन काव्य का तटस्थ इतिहास प्रस्तुत किया है।
शंभुनाथ जी सीधे मिट्टी से जुडे कवि थे। वह पीढ़ी अब धीर-धीरे
समाप्त हो रही है। ये वे लोग थे, जिनसे आप असहमत तो हो सकते
हैं पर उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। मेरा निश्चित मत
है कि डॉ० शंभुनाथ सिंह अपने जीवन और साहित्य में दृढ़ता,
साफगोई और सादगी के लिए याद किए जाएँगे।
चित्र में दाएँ से- अशोक वाजपेयी (आकाशवाणी के तत्कालीन
समाचारवाचक), देवेन्द्र कुमार, माहेश्वर तिवारी, श्रीकृष्ण
(प्रकाशक), उमाकन्त मालवीय, श्रीमती श्रीकृष्ण, शम्भुनाथ सिंह,
सुरेश, शम्भुनाथ सिंह जी की साली, इन्दिरा गांधी, यशपाल जैन,
राजेन्द्र गौतम, खंडेलवाल (सांसद), सोम ठाकुर, शिवबहादुर सिंह
भदौरिया, तथा पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर (छायाकार)।
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