मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


उपन्यास अंश

पुष्पा तिवारी के उपन्यास नरसू की टुकुन कथा का
एक अंश- नरसू।


नाचते-नाचते थक गया हूँ। पैर हैं कि मन में थिरकते ही रहते हैं। स्टेशन दर स्टेशन गाड़ियाँ बदलते पैर कितने थक गए हैं और मन भी। मेरे पैर नाचते हुए कभी नहीं थके। नाचने से मैं कभी थकता भी नहीं। वह उत्साह नहीं है, लेकिन आज समय के बदलते अंदाज़ में, मैं कहाँ हूँ? क्या सोच कर यहाँ आया था और कहाँ पहुँचा? पहुँच पाया भी कि नहीं नहीं मालूम! उम्र के कितने बरस बीत गए हैं...

शायद पैंसठ या एक दो साल ज्यादा ही। कभी फुरसत नहीं मिली कुछ भी सोचने की। मेरी एक ज़िद सदैव रही है और तिस पर एक जुनून। उसने मुझे और किसी बात के लिए अवसर ही नहीं दिया। बिता दिया एक सक्रिय जीवन अपनी तरह का। अब सोचने को बचा कहाँ है? बच्चे बड़े हो गए हैं। सोच तो वे रहे हैं। उनके सामने पूरा जीवन है। हमने यह अधिकार दिया हो, न दिया हो... उन्होंने छीन लिया है यह सब सोचने का हमसे।

`पापा, छोड़ो अब यह नाचना गाना। बहुत हो गया। मेरी नौकरी लग गई है। अब कमाने की भी कोई ज़रूरत नहीं। अब हम इस शहर में रहेंगे भी नहीं। चले जाएँगे अपने शहर... अपने गाँव। और कितना नाचोगे?'

रेवा तट पर बैठा नरसू उलझ रहा है अपने ही प्रश्नों से। आसमान में शाम के सूरज की आख़िरी किरण के डूबने का इन्तज़ार करता । देख रहा है चट्टानों से गिरते कितने प्रपातों को और यह सामने धुआँधार... विश्व प्रसिद्ध...।
 

पृष्ठ- . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।