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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी निःशंक


वह घर पहुँचकर अनमनी और उदास तो थी ही, एक नि:संग सी व्यर्थता और खालीपन का बोझ भी उसे अन्दर ही अन्दर शिथिल किये था। अच्छा होता, वह घर से जाती ही नहीं। फिर एक प्रतिरोध उठा- क्यों नहीं जाती। नकाबों को ढोते-ढोते कब तक जीना होगा। पर नकाब उतर जाने से भी क्या बेचैनी मिट जाती है ?

वह अपने आप में बड़ी अव्यवस्थित थी। दो बार बाहर यूँ ही बरामदे में जाकर देख आयी कि दरवाज़ा ठीक से बंद तो है। दरवाज़ों के पल्लों पर अन्यथा मिट्टी की परतें दिखाई देने लगी थीं। परदों का चितकबरापन मुँह चिढ़ा रहा था। धूप की वजह से उनका रंग उड़ा-उड़ासा लगने लगा था। आज तो वे नितांत बेरंग लग रहे थे। ध्यान नहीं जाता तो सब ठीक लगता है पर एक बार कहीं मन के कोने में खटका हो गया तो बात उतरती ही नहीं।

रोज़ डाइनिंग टेबल पर चिड़िया फुदकती रहती हैं और आज तो बड़ी ढीठता से बीट कर गई थीं। उसे लगा यह भी उन्हें न झटकने का ही कारण है। आजकल किसी को झटको नहीं तो हर कोई सिर पर चढ़ता आता है।

न जाने कितनी दुविधाएँ उसे घेरे थीं। बस स्टैण्ड से वह सीधी डिपार्टमेंट चली गयी थी कि चलो आज की हाज़िरी हो जायेगी।

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