इस सप्ताह
कथा महोत्सव में पुरस्कृत-
यू.एस.ए से अभिरंजन की
विज्ञान-कथा
कस्तूरी कुंडल बसे
अभी एक उनींदा-सा झोंका आँखों
में आकर ठहरा ही था कि आवाज़ आई, "कॉल फ्राम वेराइजन
वायरलेस..." फोन सविता ने उठाया। हमारा इकलौता बेटा तरुण अपनी
माँ द्वारा दिन में की गई काल के जवाब में फ़ोन पर था। मैं
वापस नींद में जाने को ही था कि बातों ने ध्यान आकर्षित कर
लिया,
"क्यों क्या पेट दर्द हो रहा है?... ठीक है मै वीकेण्ड
पर आते हुए ले आऊँगी। ...
हाँ, अच्छा ठीक है मैं कल ही ओवरनाइट करती हूँ। अहँ..अहँ
क्यों? ... इतना गड़बड़ है क्या? ... तुमने टायलोनॉल ली क्या?
अच्छा! कब से? ... ठीक है, मैं कल ही आती हूँ।"
मेरी नींद अब तक टूट गई थी। पत्नी ने बताया, “तरुण को कई
दिनों से सर दर्द हो रहा है। लगातार टायलोनॉल की गोलियों से
काम चला रहा है।“ मैंने राहत की साँस ली। कालेज में पढ़ते
नवयुवक कब गलत संगत में पड़ जायें, पता नहीं चलता। वैसे तो
तरुण अपने पर संयम रखता है, पर जब किसी धुन में लग जाता है,
तो आगा पीछा कुछ नहीं सोचता।
पूरी कहानी पढ़ें-
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महेशचंद्र द्विवेदी का व्यंग्य
अंकल माने चाचा, ताऊ या बाबा
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धारावाहिक में प्रभा
खेतान के उपन्यास
आओ पेपे घर चलें का
नवाँ भाग
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स्वाद और स्वास्थ्य में अर्बुदा ओहरी से सुनें
प्याज़ की पुकार
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फुलवारी में भालू के विषय में
जानकारी,
शिशु गीत और
शिल्प
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पिछले
सप्ताह
अनूप शुक्ला का व्यंग्य
चिंता करो सुख से जियो
धारावाहिक में प्रभा
खेतान के उपन्यास
आओ पेपे घर चलें का
आठवाँ भाग
*
दिविक रमेश का निबंध
कला माध्यम संवाद या विवाद
*
रचना प्रसंग में द्विजेंद्र द्विज का आलेख
हिमाचल की समकालीन गज़ल
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कथा महोत्सव में पुरस्कृत-
भारत से पवन कुमार
'पावन' की
कहानी
४६
डस्की लेन
मकान
की दीवार पर बंगला भाषा में नाम और मकान नम्बर लिखा था। उसे
सिर्फ़ ४६ ही समझ आया। शायद वह सही पते पर था। मकान बहुत
पुराना था, शायद अंग्रेज़ों के ज़माने से भी पुराना। जैसा
जर्जर और उजड़ा वह बाहर से देखने पर लग रहा था निश्चय ही
भीतर से भी वैसा ही होगा, उसने सोचा। इस मकान के बाद गली
बन्द थी, यानि गली का आखिरी मकान। गली सूनी पड़ी थी और वह
वहाँ अकेला खड़ा था। दरवाज़े पर घंटी का स्विच नहीं था। उसने
कुंडी से दरवाज़ा खटखटाया। रुक-रुककर बूँदाबाँदी हो रही थी
जो किसी भी समय रौद्र रूप धारण कर सकती थी।
कालका मेल से जब वह हावड़ा स्टेशन पर उतरा था तो बारिश हो
रही थी। गाड़ी तीन घंटे लेट थी। सुबह के साढ़े दस बजे थे
मगर लग रहा था जैसे शाम हो गई हो। सामान के नाम पर उसके पास
एक छोटा-सा बैग था जिसमें एक तौलिया, टूथब्रश और एक जोड़ी
कपड़े थे और न बताए जाने वाले सामान में एक बटनदार चाकू था
जो उसके मुताबिक वरुण मंडल के खून का प्यासा था।
पूरी कहानी पढ़ें- |
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अनुभूति
में- आचार्य संजीव सलिल, अमित रंजन चित्रांशी, अरविंद चौहान, बलबीर सिंह रंग
और अर्चना श्रीवास्तव की नई
रचनाएँ |
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कलम गही नहिं
हाथ- फैशनेबल लोगों को देखकर किसका दिल नहीं पिघल
जाता? फैशनेबल बंदा किसे नहीं लुभाता? फ़ैशन और सौदर्य का
.. आगे पढ़े |
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रसोई
सुझाव-
मिर्च के डिब्बे में थोड़ी सी हींग डाल दें तो मिर्च लम्बे समय
तक ख़राब नही होगी। |
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पुनर्पाठ
में - १५ जून २००१ को प्रकाशित डॉ. शांति देवबाला की
कहानी गुलमोहर। |
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क्या आप जानते हैं?
संजीवनी रामायण काल से भी प्राचीन वनस्पति है जिसका उपयोग आज
भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है। |
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शुक्रवार चौपाल-
७ मई को बड़े भाई साहब और दस्तक का प्रदर्शन था। जिस दिन कोई
प्रदर्शन होता है उसके अगले दिन छुट्टी रहती है। ...
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सप्ताह का विचार- धन के लोभी के पास सच्चाई नहीं रहती और
व्यभिचारी के पास पवित्रता नहीं रहती। --चाणक्य |
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हास
परिहास |
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सप्ताह का
कार्टून
कीर्तीश की कूची से |
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नवगीत की
पाठशाला- जहाँ नवगीत लिखने, पढ़ने, सीखने और सिखानेवालों का
स्वागत है। |
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