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आठवाँ भाग

''बिटिना वहाँ बैठो पलंग पर और सुनो तुम जो अपने पिता की वकालत कर रही तो सुन लो उस आदमी ने कभी, किसी दिन मुझसे प्यार नहीं किया। प्यार किया होता तो आज यह नौबत नहीं आती। उसने सिर्फ़ मुझ पर दया की है। एक अनाथ लड़की पर जिसका भाई अस्पताल में न्यूमोनिया से तड़प-तड़पकर मर गया था। हाँ, इसी तुम्हारे पिता के सामने। क्या सुनना चाहती हो बिटिना? मेरे फफोलों पर कब तुम्हारे पिता ने रूई का फाहा रखा?''
''मॉम! डैड हमेशा यही कहते रहे, हेल्गा अतीत को भूलने की कोशिश करो... पर तुमने हमेशा अपने ज़ख़्मों को ज़िंदा रखा।''
''इसलिए कि मैंने तुम्हारे पिता से बार-बार मुक्ति माँगी थी। मुझे नहीं चाहिए था यह घर, ये दौलत। मुझे कुछ भी नहीं चाहिए था। कभी नहीं। तुम्हारे जन्म के बाद मैंने उस तुम्हारे बाप से, जो बड़ा कैथोलिक क्रिश्चियन बनता है, सिर्फ़ एक चीज़ माँगी थी कि वह तुम्हें किम्बुत में भेज दे। बस एक बच्चे को, मेरे खून के एक टुकड़े को, जो मेरे मकसद को जिलाए रखे। मगर नहीं, हमेशा वही नकार और साथ में सुनहरे डॉलर के ठिकरे और आज से चार साल पहले तुम्हें याद हे ना वह गर्मी की छुट्टियाँ, मैं तुमको और जिमी को लेकर इज़राइल जाना चाहती थी और हम लोगों में कितना झगड़ा हुआ था। फिर वही नहीं इस बार तो पैसे भेजने की भी मनाही थी। वह क्या सोचता है, क्या वह मुझे बाँधकर रख सकेगा? कभी नहीं। मुझे न उसकी ज़रूरत है न उसके पैसों की और न तुम लोगों की। मैंने एक ही सच समझा कि कोई किसी का मक़सद नहीं हो सकता। इतने वर्षों में तुम्हारा वह भला आदमी बाप केवल भलमनसाहत का मुखौटा लगाए रखता है। वह देवता बने रहना चाहता है, सलीब पर टँगा रहना चाहता है ताकि तुम लोग सब हेल्गा से नफ़रत करो। करो, जितनी नफ़रत करनी है, करो।''
''ममा प्लीज़! इतनी क्रूर मत बनिए।''
''क्रूरता? तुमने क्रूरता देखी भी है?''

मैं बूत बनी सबकुछ सुन रही थी। ओह यह कैसा रविवार है? आज सुबह से ही जाने कौन सी पिशाच-लीला चल रही है? एक घर को धीरे-धीरे टूटते हुए देख रही हूँ। हर घंटा अपने पिछले घंटे से और अधिक निष्ठुर, क्रूर आहत करनेवाला। कहाँ हमलोग पिकनिक पर जा रहे थे और कहाँ यह गृहदाह। जैसे सुबह किसी ने मकान की छत उखाड़ ली, फिर खिड़की दरवाजों के पल्लों को खोलकर रख दिया। अब मानो कोई धीरे-धीरे निःशब्द दीवारों को गिराता जा रहा है। और कहीं कोई है जो इस घर की नींव में बैठा कातर स्वर में प्रभु से प्रार्थना कर रहा है, ''जीसस! मेरे घर को बचा लो। यों मत तोड़ो जीसस? हेल्गा को सद्बुद्धि दो।''

पता नहीं क्यों आज इतने वर्षों बाद बाबू जी की इतनी याद आ रही है। ऐसा ही वह एक रविवार था मैं स्कूल से पिकनिक पर गई थी। पर न जाने क्यों सुबह से मन उदास था सबसे अधिक हो-हल्ला करनेवाली लड़की यदि चुप हो तो साथ में गई हुई अध्यापिका को भी चिंता होने लगती है। सेवा बहन ही ने बुलाकर पूछा भी- क्या बात है आज तुम इतनी चुपचाप?''
पता नहीं बस ऐसे ही का क्या माने? फिर रात को बाबू जी के देहांत का समाचार। मैंने एकदम से चलती हुई फ़िल्म को झटका दिया और हेल्गा की ओर देखा। हेल्गा बोले चले जा रही थी, भीतर के बड़वानल से चटक-चटककर लड़कियाँ इधर-उधर फूट रही थीं। बिटिना की झर-झर बरसती हुई आँखें।
''हाय बेचारी।''
हेल्गा मूर्तिवत बैठी थी।
''इनफ! इनफ हेल्गा! मैं नहीं समझ पा रही कि माँ-बाप के झगड़े में इस बेचारी का क्या दोष है?''
''प्रभा! तुम्हारे प्रश्नों का मेरे पास उत्तर नहीं। हाँ बिटिया ज़रा रुको।''

हेल्गा ने आलमारी खोली और एक छोटा-सा गहने का बक्सा बिटिना के हाथों में थमा दिया।
''इसमें वे सब गहने हैं जो तुम्हारी दादी के थे। तुम लोग सब आपस में बाँट लेना।''
बिटिना बुक्का फाड़कर रो पड़ी। सीढ़ियों पर डॉ. बेरी के कदमों की आहट थी।
''बिटिना प्लीज रोओ मत, रोओ मत बिटिना।''
कहते हुए मैं करीब-करीब ज़बरदस्ती घसीटते हुए उसको अपने कमरे में लेकर आ गई। बिटिना रोए जा रही थी। मेरी आँखें खुद बरस रही थीं, मैंने नीचे आकर नैनी से पूछा कि बिटिना को कैसे सम्हाला जाए। नैनी की गोद में दोनों छोटे बच्चे सहमे हुए बैठे थे। दो ग्लास हॉट चाकलेट लेकर मैं ऊपर वापस बिटिना के पास आ गई। अब तक वह काफी सम्हल चुकी थी।
''बिटिना चॉकलेट पी लो।''
''यस, थैंक यू।''
''तुम भी पी लो। सुबह से तुमने भी तो कुछ नहीं खाया?''
हॉट चॉकलेट पीते हुए वह कहने लगी, ''प्रभा! ममा रात-दिन बदले की आग में झुलसती रहती है। वे अपने दुःखों को भूलना नहीं चाहतीं। वे भूल जातीं तो हमारा परिवार कितना सुखी परिवार होता। डैड बेचारे डैड, हमेशा ममा को खुश करने की चेष्टा में लगे रहते हैं।''
''हाँ सच यह है।'' मेरे कानों में हेल्गा के शब्द टकराए, ''मैं नहीं चाहती कि मैं अपने दुःखों को भूल जाऊँ। आदमी यदि ऐसे दुःखों को भूलता है तब आदमी नहीं रह जाता। वह जानवर भी नहीं रहता क्यों कि बदले की आग तो शेरनी में भी रहती है, नागिन भी बदला लिए बिना नहीं मानती। केवल लौह के पुर्जे हैं जो खटाखट मशीनों में फिट होते हैं, घिसते हैं, फेंक दिए जाते हैं। मैं मशीन का पुर्जा नहीं, मैं बदले की आग में सुलगती हुई औरत हूँ।''

बिटिना खिड़की पर खड़ी होकर खाली आकाश घूरने लगी फिर धीरे से मेरी ओर घूमकर उसने देखा। सूजी हुई लाल आँखें...
''प्रभा... ममा जाएँगी। वे जो कहती हैं वही करती हैं। हम सब कहीं न कहीं चले जाएँगे, पर डैड का क्या होगा? उनका बुढ़ापा? डैड लव्ज हर सो मच, सो मच...''
''बिटिना! रोओ मत बिटिना। आज इस घर में सब रो रहै हैं।''
मेरी भी आँखें बरस रही थीं। सहसा उसने तड़पकर पूछा, ''सच कहो तो तुमने ममा की आँखों में कभी आँसूँ देखा? क्या वे तुम्हें पागल नहीं लगतीं?''
''मैं चुप थी। शाम ढल रही थी। नीचे किचन से नैनी की आवाज़ आई, ''आज कोई खाना खाएगा या फिर मैं जाकर सो जाऊँ? हमेशा के लिए।''

सेंट लुईस से मैंने ग्रेहाउंड बस की टिकट ली। पैसा कम लगेगा। मैं खुद अब उस घर छोड़ने की जल्दी में थी। हेल्गा का पत्थर चेहरा, फटी-फटी-सी आँखें। वह ज़िंदा थी या मरी हुई? वह हँस रही थी या रो रही थी? उसने क्या कभी किसी को प्यार किया भी? प्रश्नों की चिनगारियाँ खुद मेरे दिमाग़ में चटक रही थीं। एक टूटते हुए घर से विदा लेती हुई मैं खुद रो पड़ी। बिटिना की लाल आँखें, जिमी का नीचे नहीं उतरना, नन्हें हैरी का बार-बार हेल्गा को छूने का प्रयास करना और बरामदे में डॉ. बेरी की चहल-कदमी।

सेंट लुईस से न्यूयार्क एक लंबी बस की यात्रा। आधे अमेरिका को पार करना। हेल्गा का कहना था कि तुमको रीअल अमेरिका देखने को मिलेगा। बिटिना ने कहा था कि रविवार तक तुम अमेरिका की अगली रीअल पीढ़ी देखोगी। सबकुछ रीअल, पर मुझे न जाने क्यों इना मायावी लग रहा था। टूटते हुए, झरते हुए, खत्म होते हुए रिश्ते। खट्टे सिरके में आजीवन डूबे लोग। क्या यही है रीअल अमेरिका? और फिर इतने उदार दिल, इतने खुले हुए, जिन बातों को कभी घर में अम्मा या जीजी लोग चुपचाप करती, हमलोग छोटी बहनों के आते ही चुप्पी या फिर अम्मा की डांट... उन्हें ये इतना खुलकर बेहिचक...

भीतर फ्लैट में जाते ही मेरी आँखें खुली रह गईं। ओह! इतनी ऊँचाई पर यह फ्लैट है या अमरावती? ड्राइंगरूम के बीचोबीच जापानी बगीचा। छोटा-सा टी हाउस। फिर व्हिक्टोरियन स्टाइल का ड्राइंगरूम का पसार..., काँच की बड़ी-सी खिड़की पूरब को खुलती हुई, बाल्कनी के नीचे झाँकने में डर लगे और सामने बह रही थी ह़डसन नदी। उसपर पुल के ऊपर पुल, चीटियों-सी रेंगती असंख्य गाड़ियाँ। कुहासे को चीरकर अभी-अभी सूरज निकला था। बाहर मकानों की खिड़कियों पर बर्फ़ चमक रही थी। इतने में एक खनकती हुई हँसी और बाहों में लपेटता हुआ स्वर, ''मैं हूँ कैथेरिन मूर, पर तुम मुझे कैथी कहो। तुम्हें पाकर बहुत खुश हूँ। कुछ दिन के लिए बड़ा अच्छा शगल रहेगा। हम लोग खूब घूमेंगे। मैं तुम्हें सबकुछ सिखा दूँगी
''आप खुद ब्यूटीशियन हैं...?''
''मैं सब कुछ हूँ...,'' फिर वही जलतरंग-सी बजती हुई हँसी, ''क्या लोगी कॉफी या चाय?''
''कॉफी।''
''गुड। मुझे चाय नहीं बनानी पड़ेगी। ब्रैंडी डार्लिंग! कॉफी कहाँ पर लोगे? यहाँ आकर बैठो ना। हमलोग अपने नये दोस्त से बातें करेंगे।''

मियाँ-बीबी। पति साइक्याट्रिस्ट, अमेरिकन भाषा में जिन्हें श्रिंक कहा जाता। अच्छी-ख़ासी कमाई। कैथी कुछ नहीं करती। उसका कहना था कि मुझे थोड़ा वक्त मिले तब न कुछ करूँ? पहली मुलाक़ात में यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि जब तुम कुछ नहीं करती तब वक्त क्यों नहीं मिलता? ख़ैर, बाद में पूछने की ज़रूरत नहीं हुई। खुद मुझे ही समझ में आ गया। बायीं आँख दबाकर वह फिर खिलखिलाकर बोली..., ''ब्रैडी इतना कमाता है। खर्च करने के लिए भी तो मेरे पास वक्त होना चाहिए?''

कुल मिलाकर पहली बार लगा कि स्वतंत्र आत्मविश्वासी औरत से मिल रही हूँ जो निर्झर प्रपात-सी झरती हुई ज़िंदगी की मिसाल है। बहुत ही भा गई वह। औरत हो तो कैथी जैसी। ज़िंदगी का जमघट जमाए तो कैथी की तरह। और सारे कारनामों के बीच डॉ. मूर कहीं नहीं आते थे। पूरे फ्लैट में, उसकी बेहतरीन सजावट में कैथी फैली हुई थी। दीवार की पेंटिंग में कैथी थी। गमले के फूलों में कैथी की मुस्कान थी। काँच के खिड़की के दरवाज़ों में कैथी की आँखों की चमक थी। तीस बत्तीस साल की वह बेहद ज़िंदादिल अमेरिकन औरत आज भी मन में बसी हुई है। कोई कुंठा नहीं, कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं। किसी की ज़िंदगी को न उसे बनाने का शौक न बिगाडने का। वह अपने में मगन। बच्चा नहीं चाहिए। आपकी अपनी ज़िंदगी बच्चे के लिए आहुति हो जाती है, ''मुझसे बच्चा नहीं सम्हलेगा। बेबी सिटर पर पालने से अच्छा है पैदा मत करो। फिर ब्रैडी है ना, मेरा असली बच्चा? वही खिलखिलाहट...''

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