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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से पावन की कहानी— ४६ डस्की लेन


मकान की दीवार पर बंगला भाषा में नाम और मकान नम्बर लिखा था। उसे सिर्फ़ ४६ ही समझ आया। शायद वह सही पते पर था। मकान बहुत पुराना था, शायद अंग्रेज़ों के ज़माने से भी पुराना। जैसा जर्जर और उजड़ा वह बाहर से देखने पर लग रहा था निश्चय ही भीतर से भी वैसा ही होगा, उसने सोचा। इस मकान के बाद गली बन्द थी, यानि गली का आखिरी मकान। गली सूनी पड़ी थी और वह वहाँ अकेला खड़ा था। दरवाज़े पर घण्टी का स्विच नहीं था। उसने कुण्डी से दरवाज़ा खटखटाया। रुक-रुककर बूँदाबाँदी हो रही थी जो किसी भी समय रौद्र रूप धारण कर सकती थी।

कालका मेल से जब वह हावड़ा स्टेशन पर उतरा था तो बारिश हो रही थी। गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। सुबह के साढ़े दस बजे थे मगर लग रहा था जैसे शाम हो गई हो। सामान के नाम पर उसके पास एक छोटा-सा बैग था जिसमें एक तौलिया, टूथब्रश और एक जोड़ी कपड़े थे और न बताए जाने वाले सामान में एक बटनदार चाकू था जो उसके मुताबिक वरुण मण्डल के खून का प्यासा था।

पूछताछ पर पता चला कि सीरामपोर यहाँ से पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर है और उसके लिए यहाँ से लोकल ट्रेन पकड़नी पड़ेगी। बारिश हो रही थी मगर उसे बरसात की चिन्ता नहीं थी। उसे किसी बात की चिन्ता नहीं थी।

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