अभी एक उनींदा-सा झोंका आँखों
में आकर ठहरा ही था कि आवाज़ आई, "कॉल फ्राम वेराइजन
वायरलेस..." फोन सविता ने उठाया। हमारा इकलौता बेटा तरुण अपनी
माँ द्वारा दिन में की गई काल के जवाब में फ़ोन पर था। मैं
वापस नींद में जाने को ही था कि बातों ने ध्यान आकर्षित कर
लिया,
"क्यों क्या पेट दर्द हो रहा है?... ठीक है मै वीकेण्ड पर आते
हुए ले आऊँगी। ...
हाँ, अच्छा ठीक है मैं कल ही ओवरनाइट करती हूँ। अहँ..अहँ
क्यों? ... इतना गड़बड़ है क्या? ... तुमने टायलोनॉल ली क्या?
अच्छा! कब से? ... ठीक है, मैं कल ही आती हूँ।"
मेरी नींद अब तक टूट गई थी। पत्नी ने बताया, ''तरुण को कई
दिनों से सर दर्द हो रहा है। लगातार टायलोनॉल की गोलियों से
काम चला रहा है।'' मैंने राहत की साँस ली। कालेज में पढ़ते
नवयुवक कब गलत संगत में पड़ जायें, पता नहीं चलता। वैसे तो
तरुण अपने पर संयम रखता है, पर जब किसी धुन में लग जाता है, तो
आगा पीछा कुछ नहीं सोचता। लगा- शायद लगातार काम करने की थकान
से स्वाभाविक सर दर्द हो गया होगा। पर नींद के प्रभाव में पुनः
आने तक मेरे आखिरी विचार यही थे कि, शायद बात कुछ गंभीर है
क्यों कि तरुण द्वारा हमारे घरेलू पाचन चूर्ण
`बुकनू`
की माँग करना काफी अस्वाभाविक था। अगली सुबह मैंने कार्यालय
में अपने साथियों को सूचित कर दिया कि तरुण की तबियत खराब है
और हम उसे देखने के लिए मैरीलेंड जा रहे हैं।
लगभग साढे आठ बजे हम घर से निकल
पड़े। इस समय तक टर्न पाइक पर रोज़ के आने जाने वालों की भीड़
कम हो जाती है, इसलिए हम लगभग ३ घंटों में बिना रुके जॉन
हापकिन्स के कैंपस पहुँच गए। रेजीडेंसी में होने के कारण अब
तरुण ने एक फ्लैट किराये पर ले लिया था और अपने एक और साथी के
साथ रहता था।
दरवाज़े की घंटी कई बार बजाने
पर ही दरवाज़ा खुला और हम अपने सामने खड़े व्यक्ति को देखकर
भौंचक्के रह गये। तरुण के बाल और ढाढ़ी तो बढ़े ही थे, उसका
चेहरा भी उतरा हुआ था। तरुण भी मुझे देखकर आश्चर्य चकित था,
उसने नहीं सोचा था कि, मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँगा। उसने मेरे
पैर छुए और बोला,
"आप बेकार परेशान हुए, मैंने तो माँ से ही केवल कहा था..."।
मैं बोला,
"तुमने बात ही ऐसी की थी कि मेरा चौंकना स्वाभाविक था। तुम तो
हमेशा से ही बुकनू से दूर भागते थे, अगर तुम बुकनू को
स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयोग करना चाहते हो तो बात निश्चित
रूप से साधारण नहीं है।" हम तीनों ही जानते थे कि खाने पीने की
चीज़ों में उसकी रुचियाँ बड़ी बेढब थीं और जो चीजें उसे पसंद
नहीं थी, उन्हें हम उसे बचपन से आज तक कभी भी खिला नहीं पाए।
तरुण स्वयं ही बोला, "पता
नहीं क्या हो रहा है, मैंने कितने ही टेस्ट करवाए, पर हर शाम
को अजीब-सा सर दर्द शुरू हो जाता है। कैट स्केन, ई.एम.जी., एम.
आर. आई. सब कर चुके हैं, पर कुछ भी पता नहीं चला। जैकब से कह
कर उसके न्यूरो के प्रोफेसर साहब से भी बात की। उन्हें भी कुछ
समझ नहीं आ रहा है। इधर मेरा काम सब बिगड़ता जा रहा है। पिछले
हफ्ते तक मैं शाम को तो किसी काम के लायक नहीं रहता था, पर कम
से कम सुबह के समय तो अस्पताल जा पा रहा था, पर अब तो रात में
ठीक से सो न पाने के कारण सुबह भी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा
हूँ। लगातार टायलोनॉल लेकर काम चला रहा हूँ। इससे अधिक
शक्तिशाली ड्रग्स लेने में दूसरे खतरे हैं। आप तो जानते ही हैं
कि मैं इन चीज़ों से दूर ही रहता हूँ।"
मैंने कहा, "जल्दी से कुछ साफ
कपड़े पहन लो, फिर देखते हैं... सत्य प्रकाश शायद अभी लंच में
घर पर आया हो तो उससे घर पर ही मिल लेते हैं। वहीं और विस्तार
से बात करेंगे। तुम तो जानते ही हो कि मुझे उस पर बहुत भरोसा
है। वैसे तो तुम खुद ही डॉक्टर हो, पर वो कहते हैं ना कि अपना
इलाज खुद नहीं होता। और अब तक अपनी सीमा में जो कुछ हो सकता है
वह तो तुम कर ही चुके होगे।" मैं उससे कह नहीं रहा था, पर असली
बात यह थी कि मुझे न तो स्वास्थ्य संबंधी ज़्यादा जानकारी है
और न ही अपने पर इस मामले में कोई भरोसा।
सत्य प्रकाश के घर जाते हुए
रास्ते में मैंने उसके सेल फोन पर बता दिया कि हम क्यों आ रहे
हैं। हमारे पहुँचने तक वह अपना लंच कर चुका था। तरुण को देखते
ही बोला, "मैंने तुमसे ये उम्मीद नहीं की थी तरुण, कम से कम
मुझे तो बताना चाहिए था।" तरुण झेंपता-सा बोला, "सॉरी अंकल,
मैंने खुद ही नहीं सोचा था कि बात इतनी बढ़ेगी। वैसे जितने हो
सकते थे, सारे टेस्ट मैं करवा चुका हूँ, और डॉ. सिल्विया
कालिन्स से भी मिल चुका हूँ। अब तो मेरी अक्ल ने काम करना बंद
कर दिया है, क्यों कि कोई भी टेस्ट अभी पॉजिटिव नहीं आया है।
सभी की सलाह है कि अत्याधिक काम करने से हुई थकान ही मेरी
मुख्य समस्या है। मुझे आराम करना चाहिए और धीरे-धीरे सभी ठीक
हो जाएगा।"
सत्य प्रकाश ने पूछा, "वैसे
तो तुम और तुम्हारे साथी इस पर पहले ही विचार कर चुके होगे,
लेकिन फिर भी तुम्हें ऐसी कोई भी बात याद आती है, जिससे
अंदाज़ा लगाया जा सके कि समस्या का मूल क्या है?''
तरुण बोला, "मैंने सोचा तो बहुत कुछ, पर ऐसा कुछ भी याद नहीं
आता जिससे पता लगे कि इसका कारण क्या हो सकता है। मैंने पिछले
२-३ महीनों से ज़्यादा समय से बाहर किसी रेस्तरां में खाना तक
नहीं खाया जो कोई अनजाना वायरस या बैक्टीरिया अपना असर दिखा
रहा हो। अपनी आँखो की जाँच करवा चुका हूँ, और वे तो बिलकुल
ठीक-ठाक हैं। मैंने अपने अपार्टमेंट में प्रकाश की भी ठीक-ठाक
व्यवस्था कर ली है। सर दर्द के अन्य कारण जैसे तेज इत्र,
कैफीन, मौसम, भूख आदि मेरे ध्यान में अब तक जो कुछ भी आया है,
मैंने सभी को परखा है, परंतु अभी तक कोई कारण नहीं समझ में आया
है। इसीलिए तो मैंने माँ से बुकनू माँगा था।"
सत्य प्रकाश ने भौंहें चढ़ाईं, बुकनू? उसका इससे क्या मतलब है?
तरुण बोला, "ओह, वो तो मैं टायलोनॉल खाते-खाते उकता गया था, तो
मुझे याद आया कि सर दर्द के लिए माँ बुकनू लेती थी, तो मैंने
सोचा कि मैं भी लेकर देखूँ।"
सत्य प्रकाश ने प्रश्नात्मक दृष्टि से तरुण की ओर देखा और कहा,
''और..?''
तरुण बोला, "उसका असर अभी तक नहीं देखा क्यों कि अभी तक उसे
आज़माने का मौका ही नहीं मिला है।"
सत्य प्रकाश ने तरुण से उसकी
स्वास्थ्य संबंधी सभी रिपोर्ट सुरक्षित ईमेल से भेजने के लिए
कहा तो उसके उत्तर में तरुण ने एक यू.एस.बी. ड्राइव उसे दी
जिसको लगाकर सत्यप्रकाश और तरुण दोनों ही तरुण की जाँचों को
फिर से देखने लगे। सत्यप्रकाश ने कुछ देर बाद सिर हिलाया और
कहा, ''कारण तो कोई समझ में नहीं आता।''
पर कुछ और दूर की संभावनाओं को परखने के लिए टेस्ट लिखकर दिए
और उनको तुरंत करवाने के लिए कहा। हम उसका पर्चा लेकर तुरंत
क्वेस्ट की लैब में गए। लैब पैथालाजिस्ट को तरुण ने अपना पहचान
पत्र दिखाकर कहा कि हमें जल्दी है, हो सके तो फोन पर डॉ सत्य
प्रकाश या फिर डॉ तरुण को विश्लेषण दे दें।
लैब से निकलने के बाद हम सभी
जान हापकिन्स के कैंपस वापस गए। हमें वहाँ देखकर तरुण भी
उत्साहित हो गया था और कॉलेज की लाइब्रेरी में कुछ पुराने
केसों के बारे में माइक्रोफिल्म पर देखना चाहता था। मैं और
पत्नी भी वहीं लाइब्रेरी में कुछ और पुस्तकें देखने लगे। लगभग
दो घंटे बाद तरुण हतोत्साहित वापस आया। उसका चेहरा पुनः थका
दिख रहा था। मैंने उसे उत्साहित करने के लिए कहा, चिंता मत करो
हम इस समस्या का हल कुछ न कुछ ढूँढ़ ही निकालेंगे।
घर वापस पहुँचने से पहले ही
तरुण को सेल पर लैब का टेक्सट मेसेज आया। तरुण उसे देखकर बोला,
"कुछ फायदा नहीं हुआ। सारे रिजल्ट फिर से नेगेटिव आए हैं।"
रास्ते में मेरी नज़र दायीं और बैठे तरुण के चेहरे पर पड़ी, वह
हारा हुआ लग रहा था, बोला, "पापा, सर फिर से दर्द करने लगा
है।"
मैंने पूछा, "क्या तुम्हारे पास टायलोनॉल है अभी?"
उसने इन्कार में सिर हिलाया। मैंने कहा, "पंद्रह मिनट तो कम से
कम लगेंगे ही अभी घर तक पहुँचने में, तब तक काम चल पाएगा कि
नहीं? नहीं तो हम लोग रास्ते में किसी सीवीएस फार्मेसी या
वालमार्ट से दवा ले लें।"
तरुण ने कहा, "रहने दीजिए, जितनी देर ढूँढ़ने में लगेगी, उतनी
देर में तो घर ही पहुँच जाएँगे।"
अगले तीन-चार मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। हम सभी चुपचाप
अपने-अपने ख़यालों में खोये हुए बैठे थे।
अचानक तरुण बोला, "माँ, क्या
आपके पास वो येलो साल्ट है, या आप अपार्टमेंट पर ही छोड़ आईं?"
उसकी माँ ने कहा, नहीं वो तो डिक्की के सामान में ही है। मैंने
तरुण के चेहरे के भाव देखे तो चुपचाप गाड़ी हाई वे के किनारे
सोल्डर पर रोक ली। उतर कर पीछे से बैग निकाल लाया और उसमें से
निकाल कर बुकनू की शीशी तरुण को पकड़ा दी। उसने हथेली पर रखकर
कुछ बुकनू पानी के साथ फाँक लिया। बाकी का सारा रास्ता चुपचाप
गुज़रा। हम घर पहुँचे और तरुण की हालत देखते हुए उसे टायलोनॉल
लेने की सलाह दी। उसने भी बिना कुछ कहे ५०० मिग्रा की एक गोली
ले ली। उसे एक्सट्रा स्ट्रेंग्थ टायलोनॉल लेते देख मैं फिर से
चिंतित हो गया। सत्य प्रकाश को फिर से फोन मिलाया तो वाइस मेल
में उसकी आवाज़ सुनकर फोन काट दिया। उस रात हमने कुछ अनमने मन
से ही खाना खाया। समस्या विचित्र थी, हम तरुण को आकस्मिक इलाज
के लिए एमरजेन्सी में भी नहीं ले जा सकते थे। उससे तो वेबजह
बात और फैलती, और फिर इमरजेंसी में वो लोग आखिर क्या करते। उसे
सिडेटिव देकर सुला देते। तरुण वही तो नहीं चाहता था, नहीं तो
डॉक्टर होने के नाते कब का वैसा कर चुका होता। साथ ही रोज़
कैसे सिडेटिव लिया जाता।
अगली सुबह चाय के समय तरुण
अपने कमरे से बाहर आया तो हम दोनों ने तरुण की तरफ़ सवालिया
निगाहों से देखा। वह थका हुआ था, और चेहरे पर उलझन साफ दिख रही
थी।
बैठते ही बोला, "समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कहूँ? कल रात
उतनी परेशानी नहीं हुई। इसका कारण आप लोगों का यहाँ पर मेरे
साथ होना है या बुकनू...?"
हम दोनो पति-पत्नी भी असमंजस में पड़ गए। मैंने अपना
वापस लौटना स्थगित कर दिया और सोचा, एक दिन और तरुण के साथ
रहना ठीक रहेगा।
अगला दिन ठीक-ठाक गुज़रा पर
शाम होते ही मुसीबत आ खड़ी हुई-- फिर वही सिरदर्द। हमने सोचा,
परेशान होने से तो अच्छा है कि तरुण टायलोनॉल और बुकनू दोनों
ही ले ले। मैं उस रात ही वापस लौट आया, पर सविता वहीं रुक गई।
आफिस से लौटते समय रास्ते में मैंने धड़कते दिल से तरुण का हाल
पूछा तो पता लगा कि कल की तरह आज भी उसने दर्द को सहने के लिए
दोनों तरीके अपनाये थे।
मैंने सत्य प्रकाश को फोन
करके पूछा कि कोई प्रगति हुई। झिझक के कारण बुकनू वाली बात उसे
नहीं बता सका। मुझे भी कुछ निश्चित नहीं था कि पाचन चूर्ण से
कोई फायदा हो सकता था या नहीं। सत्य प्रकाश ने बताया कि उसने
आज कई और विशेषज्ञों को फोन किया था पर अभी तक कोई समुचित
समाधान नहीं मिला था। सभी विशेषज्ञों की धारणा बन रही थी, कि
यह कोई नया वायरस या बैक्टीरिया है जो अभी तक चिकित्सा क्षेत्र
में पहचाना नहीं गया है। मैंने उसे बताया कि दो दिन जब हम लोग
वहाँ थे तो तरुण को कम परेशानी हुई।
सत्य प्रकाश बोला, "हो सकता है कि कोई मनोवैज्ञानिक समस्या हो
जिसके बारे में तरुण हमें बता नहीं पा रहा हो। मैं कल उसके
साथियों आदि से इधर-उधर की बातें करके पता करता हूँ कि कोई और
बात तो नहीं है।" मुझे भी उसकी बात जँची। ऐसा हो सकने की
संभावना तो थी ही।
अगले दो हफ्तों में तरुण की
हालत काफी सुधर गई। यहाँ तक कि सविता भी वापस आ गई। हम अपने
रोज़मर्रा के कामों में उलझ गए। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं
रहा जब तरुण ने बताया कि उसने टायलोनॉल लेना बंद कर दिया है और
केवल एक बार एक चम्मच बुकनू लेता है, और इतने से ही उसका काम
चल रहा है। हम खुद समझ नहीं पा रहे थे कि इन हालातों में क्या
करें। इसी तरह लगभग एक महीना गुज़र गया।
रात के लगभग एक बज रहे थे।
मैं एक सपने के बीच में था... ऊपर की ओर चढ़ते हुए किसी हवाई
जहाज़ में, अचानक सुनाई दिया... "काल फ्राम वेरिजान
वायरलेस...'' नींद तुरंत उड़ गई और फोन उठाते हुए मेरा दिल
अचानक आशंका से काँप उठा, क्या फिर वही! कनेक्शन मिलते ही फोन
पर तरुण की घबराई हुई आवाज सुनाई दी,
"पापा मेरे पास बुकनू खत्म हो गया है। क्या आप माँ से कहेंगे
कि वो और बुकनू मुझे भेज देंगी?"
"हाँ ज़रूर। पर क्या तुम्हारा ध्यान पहले नहीं गया था?"
"मैंने सोचा था कि आपसे कहूँगा, पर आजकल ठीक ही चल रहा हूँ,
इसलिए ढीला पड़ गया था।"
"क्या दर्द फिर से हो रहा है?"
"नहीं अभी तो नहीं, पर आजकल जो काम पीछे रह गया था उसकी भरपाई
कर रहा हूँ, यदि ऐसे में गड़बड़ हुआ तो फिर मेरे प्रोफेसर
अच्छा नहीं समझेंगे।"
"सुबह होते ही भेजते हैं।" मैंने उसे आश्वस्त करते हुए फोन बंद
किया।
अबतक सविता भी जाग गई थी, बोली, "मैंने तो सोचा ही नहीं था कि
ऐसी ज़रूरत पडे़गी, अब तो बुकनू खत्म हो गया है। ऐसा करते हैं
कि भारत में मुकेश से कहो कि वे भेज दें।" मैं अपने चचेरे भाई
मुकेश को फोन करने ही वाला था कि याद आया, एफ.डी.ए. वाले
कूरियर से खाने की साम्रगी के नाम पर कोई भी मसाले आदि लाने से
रोक देंगे। इसका मतलब ये हुआ कि भारत से आने वाले किसी व्यक्ति
के व्यक्तिगत सामान के साथ ही मँगाना पड़ेगा। यदि कोई नहीं
मिला तो स्वयं जाना पड़ जाएगा।
कितनी विडम्बना होगी कि
विकासशील देशों, यहाँ तक कि अमेरिका के कई अन्य शहरों से लोग
अपना इलाज करवाने यहाँ हमारे शहर न्यू यार्क आते हैं और हमें
अपने पुत्र के स्वास्थ्य के लिए बुकनू लाने भारत जाना पड़ जाए।
अगले दो दिन बड़े ही असमंजस में बीते। सप्ताहांत आते-आते तरुण
ने बताया कि अब उसके पास बिलकुल भी बुकनू नहीं बचा था। हम उसकी
बेबसी समझ रहे थे। न्यू जर्सी में लगभग सभी दुकानों पर ढूँढ़ने
के बाद हम कुछ सामग्री जुटा पाए जिससे यहीं पर वह मिश्रण बनाया
जा सके। उसे लेकर जब हम तरुण के पास पहुँचे तो उसने एक चम्मच
चूर्ण खाया और खाते ही बोला, "यह तो कुछ अजीब-सा स्वाद वाला
है।" हमने उसे सारी बात बताई तो उसने कुछ कहा तो नहीं पर वह
आश्वस्त नहीं लग रहा था। मैंने अपने सभी परिचितों में कह रखा
था कि यदि कोई भारत गया हो तो बता दें, क्यों कि हमें एक छोटा
मसाले का पैकेट मँगाना है जिसे मसाला होने के कारण सीधे कूरियर
से नहीं मँगाया जा सकता।
आशंका के बोझ से दबे हम घर लौटे।
दो दिनों बाद ही तरुण का फोन शाम को आया कि उसकी समस्या हल
नहीं हुई है। मैंने सत्य प्रकाश को फोन किया तो उसने कहा कि
उसे और तो कुछ अभी तक पता नहीं चल पाया था, पर वह कहने लगा कि
हम सीडीसी से संपर्क कर सकते हैं। मैंने पूछा कि इसमें सीडीसी
क्या करेगी, तो उसने बताया कि अटलान्टा में सेन्टर फॉर डिसीज
कंट्रोल से ज़्यादा विस्तृत वायरस और बैक्टीरिया का डाटाबेस
किसी के पास नहीं है। यहाँ तक द्वितीया विश्व युद्ध में पकड़े
गए जर्मन वैज्ञानिकों और उनकी जैविक युद्ध संबंधी सभी सामग्री
भी केवल सी़डीसी के पास ही है।
अगले दिन मन नहीं माना तो हम
पति-पत्नी फिर से मैरीलैंड चल दिए। इस बार हम दोनों मन बनाकर
आए थे कि जब तक कोई पक्का हल नहीं मिलता कम से कम तरुण की माँ
तो उसके साथ रहेगी ही। चाहे हमारा उसके साथ रहना हो या फिर
मसाले वाला चूर्ण, हमें इस समस्या का निदान ढूँढना ही है।
मैंने सत्य प्रकाश से मिल कर
बात की तो उसने कहा कि, "मैंने सीडीसी एटलान्टा में अपने दोस्त
साइमन को तरुण के जैविक त्याज्य के कुछ सैम्पल भेज दिए हैं और
उनके डाटाबेस में इसका मिलान करने के लिए कहा है। मुझे उससे
बड़ी उम्मीदें हैं। साइमन ने कम के कम ४८ घंटो का समय माँगा
है।" मैं चौंका! मेरे चेहरे के भावों को देखकर सत्यप्रकाश
बोला, "करोड़ों वायरसों और बैक्टीरियाओं के गुणों का मिलान
करने में, उनके शक्तिशाली कम्प्यूटरों को भी समय लग ही जाता
है। सबसे बड़ी समस्या ये है कि इनमें से कई संभावनाओं को
मिलाने का काम अभी भी जानकार वैज्ञानिकों को खुद ही करना पड़ता
है। इस प्रकार के मामलों में स्वचालित विधि पर भरोसा नहीं कर
सकते हैं।"
हम लोग रुट ९५ से होते हुए
४९५ के वृत्त पर पहुँचे और वापस तरुण के अपार्टमेंट पहुँच गए।
तरुण की कमज़ोर काया और कमज़ोर होती जा रही थी और हम दुनिया के
सबसे विकसित देश में होने और उसके स्वयं डॉक्टर होने के बावजूद
भी उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे थे। मैं पत्नी को छोड़ वापस घर
की ओर चल पड़ा। पिछले चार हफ्तों मे जीवन इतना अस्त-व्यस्त हो
गया था कि रोज़ के काम अटके हुए थे। उन्हें सँभालना ज़रूरी था।
इस बीच शायद भारत से मेरे चचेरे भाई द्वारा भेजा गया पाचन
चूर्ण आ गया हो, यह भी देखना था। अचानक मुझे कौंधा कि एक बार
भारत में जब मैं ३ महीने के लिए टायफाइड की चपेट में आ गया था,
तब दवाइयों से उकता कर कुछ दिनों तक प्राणायाम का सहारा लिया
था। इन हालातों में लगातार दवा खाने से बचने के लिए मैं तो
शायद कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता पर डॉ तरुण को शायद यह
पसंद आए या न आए समझना मुश्किल था। फिर भी मन में आई बात को
अपने तक रखने की बजाय मैंने सेल फोन पर काल करके सविता से कहा
कि हो सके तो वह तरुण को भ्रामरी प्राणायाम करने के लिए तैयार
करे। तनाव न भी दूर हुआ तो कम से कम इससे कोई और समस्या तो
नहीं आने वाली थी।
अगले दिन कार्यालय से लौटते
हुए दूध लेने के लिए जब चौबीसों घंटे चलने वाली दुकान ७-११ में
रुका तो उसी प्लाजा में एक पत्रिकाओं की दुकान में घुस गया,
सोचा कि कुछ पत्रिकाएँ लेता चलूँ, शायद तरुण और पत्नी दोनों का
मन बहलता रहेगा। घर से शतरंज और स्क्रैबिल के खेल भी उठा लिए
थे। जब तक सीडीसी से कुछ जबाब नहीं आता, तब तक हम लोगों की
साँस अटकी हुई थी। इतना तो लगने लगा था कि जो कुछ भी है,
साधारण नहीं है। गैस स्टेशन पर गैस भरवाते समय ली हुई
पत्रिकाओं में से एक वैज्ञानिक पत्रिका के पन्ने यों ही पलट
रहा था कि अचानक एक ऐसे लेख पर मेरी नज़र पड़ी जो कि आनुवांशिक
गुणों की जानकारी साधारण लोगों तक पहुँच जाने के बारे में लिखा
गया था। मैंने तुरंत सत्य प्रकाश को फोन घुमाया और उससे पूछा
कि इस मामले में उसकी क्या राय है। पहले तो वह हिचकिचाया, पर
बोला, "ठीक है सीडीसी का निर्णय आ जाने दो तब इसके बारे में
सोचते हैं।"
दो दिनों बाद सीडीसी से साइमन
का फोन आया तो पता लगा कि उसे आंशिक सफलता मिली थी। तरुण की
लार के सैम्पल से यह तो निश्चित हो गया कि कोई नया वायरस या
बैक्टीरिया उसके शरीर में मौजूद है। पर उसकी पहचान नहीं हो पाई
थी। इस प्रकार के प्रभाव वाले इसी प्रजाति के कुछ मिलते जुलते
बैक्टीरिया गर्म जलवायु वाले देशों में ही पाए गए थे। सबसे
बड़ी समस्या यह थी कि तरुण के शरीर में अनजान बैक्टीरिया की जो
संख्या थी वह मानव शरीर पर असर करने की सीमा से थोड़ी ही ऊपर
थी। इसलिए पक्का पता नहीं चल पा रहा था। मैंने सत्य प्रकाश से
कहा कि अब मैं और रुक नहीं सकता, बल्कि मैं कल ही आनुवांशिक
पहचान के लिए तरुण का टेस्ट करवाता हूँ। तरुण के अपार्टमेंट
में पहुँच कर हमने जेनेटिक डिकोडिंग वाली तीनो कंपनियों, २३
एण्डमी, डिकोड और नेविजेनिक्स में आन लाईन आवेदन कर दिया। उनके
द्वारा बताई गई विधि के अनुसार लार या थूक के सैम्पल भी अगले
दिन नार्थ कैरोलाइना, सियाटल तथा रिकजाविक (आईसलैंड) में भेज
दिए गए। आश्चर्य इस बात का था कि आनुवांशिक जानकारी के लिए
केवल लार या थूक का सैम्पल ही लिया जाता है। तीनों कंपनियों की
वेबसाईट पर उपलब्ध सूचना के अनुसार हमें कम से कम तीन सप्ताह
का इंतजार तो रिपोर्ट मिलने के लिए करना ही था। इस प्रकार के
परीक्षणों में इन तीनों कंपनियों का अपना-अपना विशेष क्षेत्र
है। जैसे डिकोड हृदय रोग, कैंसर और टाइप२ डायाबिटीज के क्षेत्र
में महारत रखती है और बाकी कंपनियाँ कुछ अन्य बीमारियों के
क्षेत्र में विशेषता रखती हैं। हमारी उत्सुकता तीनों जाँचों मे
बराबर थी क्यों कि हमारी समस्या नई थी और इसके बारे में कहीं से
भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती थी।
अगली सुबह तरुण ने चाय पीते
हुए बताया कि लगभग चार माह पहले अपनी स्मरण शक्ति को बढ़ाने के
लिए एक महीने तक वह एक ऐसा कम्प्यूटर गेम खेलता रहा था जिससे
मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इस खेल में आपको कुछ
चित्र दिखाए जाते हैं, और फिर उनके क्रम के बारे में सवाल पूछे
जाते हैं। इस खेल का प्रयोग अक्सर अलझाइमर या पार्किन्सन के
रोगियों के लिए किया जाता है। इस अभ्यास को आरंभ करने के कुछ
दिनों के बाद से लगातार उसे अजीब से स्वप्न आते रहते हैं। जैसे
उसे कोई उठा कर हवा मे लिए उड़ा जा रहा हो। मैं चौंक गया पर
कहता क्या? हाँ तब राहत सी महसूस
हुई जब तरुण ने कहा कि पिछले दो महीनों से फिर वह स्वप्न नहीं
आया है। लगभग दस बजे सत्य प्रकाश का फोन आया, "जो बैक्टीरिया
तरुण के स्पेसीमेन मे मिला है वह तो पिछली शताब्दी में भारत
मैं भैंसों में पाया जाता था। पर सन १९५१ के बाद से ये फिर
चर्चा में नही आया है। इसी कारण इस विषय पर विस्तृत जानकारी
आजकल ठीक से उपलब्ध नहीं है। पर बॉस्टन के न्यू इंग्लैंड जर्नल
ऑफ मेडिसिन में १९५१ में छपे एक लेख के अनुसार इस बैक्टीरिया
के कारण कुछ लोगों की मृत्यु उस वर्ष हुई थी, पर चूँकि इस घटना
की पुनरावृत्ति नहीं हुई इसलिए अधिक शोध भी नहीं हुआ।"
इस बीच कूरियर से बुकनू
मँगाने का प्रयास असफल हो जाने के बाद हमने एक परिचित को ढूँढ
लिया था जो भारत से लौट रहे थे, और अगर एफडीए के अधिकारियों ने
एयरपोर्ट से निकलते समय उनसे बुकनू जब्त न कर लिया तो कम के कम
हमें आधिकारिक बुकनू मिल जाने वाला था। मैंने अपना पक्का मन
बना लिया था कि यदि बुकनू आज भी न आ पाया तो मैं सबसे पहला
टिकट मिलते ही भारत जाऊँगा और इस बार बुकनू स्वयं लेकर आऊँगा।
सौभाग्य से इतनी समस्या नहीं हुई और आधा किलो का बुकनू का
पैकेट मेरे मित्र बिना किसी समस्या के लेकर आ गए। उसे लेकर मैं
उसी शाम वापस मैरीलैंड लौट गया। तरुण की आवाज़ का उत्साह मुझसे
छुपा नही रहा था, जब मैंने उसे फोन पर इस बारे में बताया था।
लगभग साढ़े तीन सप्ताह बाद
तीनों प्रयोगशालाओं की लगभग ४०-५० पन्नों की तरुण के सैम्पल पर
आधारित जेनेटिक रिपोर्ट हमें मेल से मिली। इन परीक्षणों का
आधार भूत सिद्धान्त यह है कि, मानव शरीर में पाया जाना वाला
डीएनए लगभग ३ खरब आधार भूत जोड़ों से मिलकर बनता है। ये आधार
भूत जोड़े वास्तव में चार आधार भूत रसायनों जिन्हें ए, टी, जी
और सी के नाम से जाना जाता है पर बने होते हैं। ये रसायन आपस
में खरबों संभावनाओं के मार्ग को लेकर अपने नये युग्म बनाते
हैं। इन्हीं युग्मों से मानव शरीर की संरचना होती है। कभी-कभी
इन आधार भूत रसायनों का ऐसा युग्म बनता है जिसे हम लीक से हटकर
बना संयोजन या एक त्रुटिपूर्ण मिलान कह सकते हैं। जब कई ऐसे
मनुष्य जिनमें इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण मिलान वाला डीएनए पाया
जाता है तो हम उन्हें सिंगल न्यूक्लोटाइट पॉलीफार्मिज्म या फिर
''स्निप्स” कहते हैं। डीएनए टेस्ट करने वाली कंपनियाँ लोगों के
स्निप्स की जाँच करके ऐसी गणनाएँ करती हैं जिनसे यह पता चलता
है कि इस प्रकार के लोगों को किन संभावित रोगों का खतरा है।
अगर साधारण शब्दों में कहें तो ये कंपनियाँ अभी तक हुई
आनुवांशिक खोज द्वारा प्राप्त जानकारी को एकत्र करके लोगों के
डीएनए क्रम से मिलाती हैं और इस प्रकार अपने निष्कर्ष प्रस्तुत
करती हैं।
यह विज्ञान अभी अपनी शैशव
अवस्था में हैं और आने वाले समय में जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग
अपना डीएनए क्रम उनके पास प्रस्तुत करेंगे, यह जानकारी अपनी
गुणवत्ता स्थापित कर सकेगी। सौभाग्य से तरुण का डीएनए क्रम
पूर्णतया भारतीय होने की वजह से उनके निष्कर्ष काफी हद तक सही
होने की संभावना थी। यदि तरुण के स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति
होता जिसके माँ, बाप या फिर पूर्वज किसी अलग-अलग भौगोलिक भाग
या फिर अलग जाति, जैसे यूरोपीय या अफ्रीकी आनुवांशिकता से होते
तो निष्कर्ष शायद उतने सही न बतलाए जा सकते थे। तरुण ने उसे
बहुत ध्यान से पढ़ा और सत्य प्रकाश से भी राय ली। तीनो ब्यौरों
मे एक बात सभी जगह थी, तरुण की जेनेटिक रिपोर्ट के अनुसार
भारतीय होने की वजह से और उसमें भी उत्तर भारत के मैदानी
इलाकों की आनुवांशिकता के कारण उसे इस प्रकार के बैक्टीरियाओं
का खतरा था और संभवत उनमें से एक अब उसे परेशान कर रहा था।
सत्य प्रकाश और तरुण दोनों ही स्तब्ध थे। इस पर और अधिक
जानकारी के लिए तरुण में मुझे न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन
का एक लेख भेजा। इस लेख में मैंने जब इस बैक्टीरिया "बफैसिलस"
के बारे में पढ़ा तो, उससे प्रभावित लोगों की मृत्यु किस
प्रकार से हुई थी, यह पढ़ते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए,
क्यों कि मेरे खुद के दादा जी कि मृत्यु सन १९५१ में बिलकुल इसी
प्रकार हुई थी। मुझे यह भी याद आया कि हमारे गाँव के घर में
दूध की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि के लिए कई भैंसे पाली हुईं
थी।
इस बारे में और अधिक खोज करने
के लिए तरुण ने अपने अस्पताल के विशेषज्ञों से सहायता ली तथा
इस संबंध में भारत जाने का निर्णय लिया। तरुण और उसके मित्र
फिल स्टैन ने भारत जाकर वहाँ पर उतर प्रदेश के कन्नौज जिले और
आस पास के शहरों में सभी बड़े अस्पतालों में जाकर उनके पुराने
ब्यौरों को देखा और वहाँ के चिकित्सकों से बातचीत भी की। इस
बीच हम अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे।
तरुण भारत से एक सप्ताह पहले
लौटा है। हमें विस्तार से उसके सर दर्द की हालत के बारे में
बात किए हुए तो लगभग एक महीना हो चुका है। आज उससे मिलकर उसके
शोध के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए मैं और सविता सुबह
सुबह मैरीलेंड के लिए निकल पड़े। वहाँ पहुँचते हुए हमें लगभग
ग्यारह बज रहे था, इसलिए हमने तरुण के साथ सत्य प्रकाश और फिल
को विश्वविद्यालय के पास ही एक उच्च स्तरीय भारतीय वस्त्रों
में आने का निमंत्रण दिया।
तरुण को देखकर खुशी हुई। उसके
चेहरे पर पुरानी चमक वापस विराजमान थी। हमने उसका हाल पूछना
चाहा तो वह बोला कि, बस पाँच मिनट में ही सत्य प्रकाश अंकल और
सिल्विया भी रजनीगन्धा पहुँचने वाले हैं, वहीं चलकर इस बारे
में बात करेंगे। हमें तरुण का हाल जानने की उत्सुकता तो बहुत
थी, पर फिलहाल हम उसे स्वस्थ और प्रसन्न देखकर ही संतुष्ट हो
रहे थे।
रजनीगंधा में अपनी खाने की
मेज पर भोजन समाप्त करने के बाद हम सभी अपनी पसंदीदा मीठी
चीज़ों के आने का इंतज़ार कर रहे थे, कि सिल्विया बोल पड़ी।
''अब मुझसे सब्र नहीं किया जा रहा है, बताओ तो सही तरुण कि
तुमने क्या जाना अपनी इस खोज में?''
तरुण ने खड़े होकर सबसे पहले
अपने लिए अग्रिम बधाइयाँ ली और तब सबसे पहले हमें बताया कि
उसका एक शोध पत्र न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में छप गया
है। इतने प्रतिष्ठित जर्नल में पेपर छपना सबके लिए गर्व की बात
थी। तरुण ने आगे कहा,
''भारत में लगभग १९४५ से १९५१ के समय के बीच में कन्नौज और आस
पास के क्षेत्रों में भैंसों की अकाल मृत्यु होने लगी। उसके
बाद कन्नौज के आस-पास के लगभग १०० से अधिक गाँवों में इस अवधि
में अंदाज़न हज़ार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। वहाँ से
मिले आँकड़ो के अनुसार मैंने और फिल ने मिलकर जो थ्योरी बनाई
है, उसके हिसाब से मूलतः भैंसों के शरीर में पाया जाने वाला
बैक्टीरिया अचानक भैंसों की आबादी कम हो जाने के कारण अपने
जीवन को आगे चलाने के लिए व्युत्पत्ति (म्यूटेशन) के मार्ग पर
आगे बढ़ा।
''चूँकि मानव शरीर में भैंसों
के मुकाबले कम प्रतिरोधक क्षमता थी इसलिए मानवों के शरीर में
पहुँचने पर इसका असर काफी भयानक हुआ। यह बैक्टीरिया दूध के
रास्ते मानव शरीर में प्रविष्ट हुआ और इसने रीढ़ की हड्डी को
अपना घर बनाया। वहाँ से मस्तिष्क तक पहुँचकर कई लोगों के लिए
भीषण सरदर्द और कुछ लोगों की मृत्यु का कारण बना। यहाँ तक कि,
कुछ महीनों के छोटे से अंतराल में लगभग १००० के करीब प्रभावित
लोग इस तरह से काल के ग्रास बन गए।
''उसी समय के आसपास वहाँ किसी
आयुर्वैदिक वैद्य ने संभवतः लोगों को मेरा पसंदीदा येलो साल्ट
यानि बुकनू खाने को दिया होगा। इस चूर्ण में उपस्थित हल्दी,
अजवायन, बहेरा, पिपली आदि सभी मिलकर इस बैक्टीरिया पर
प्रतिरोधक असर डालते हैं। इस प्रकार का म्यूटेटेड बैक्टीरिया
निष्क्रिय अवस्था में उस क्षेत्र के लोगों में आज भी पाया जाता
है। बैक्टीरिया बहुत अधिक संख्या में बढ़ तो नहीं पाता पर
पूर्णतया मरता भी नहीं है। यह बैक्टीरिया मेरे परदादा की
मृत्यु का कारण बना, पर उसके बाद दादा और पिता जी के शरीरों
में लगभग निश्चित है कि उपस्थित होगा। मेरे शरीर में भी पहले
से ही रहा होगा। पर जब मैंने काम के बोझ के कारण अपनी
उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक स्मृति बढ़ाने वाला कम्प्यूटर गेम
खेला तो मेरी कार्य क्षमता तो बढ़ गई, पर प्रतिरोधक क्षमता कम
हो गई। जब मेरा शरीर कमज़ोर हो गया तो यह बैक्टीरिया पुनः
शक्तिशाली हो गया और मेरे लिए समस्या बन गया। यहाँ अमेरिका में
रहने के कारण और यहाँ का वातावरण कीटाणुरहित होने की वजह से भी
मेरे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही समय के साथ कम होती गई
है,
इसीलिए मेरे शरीर पर बैक्टीरिया आसानी से हावी हो सका। पर
जब मैंने बुकनू का सेवन करना शुरु किया तो यह वापस नियंत्रण
में आ गया। इसका कोई इतिहास यहाँ पर न उपलब्ध होने के कारण
मुझे अमेरिकी शोध का कोई फायदा नहीं मिल पाया।''
जब हम मैरीलैंड से वापस चले
तो तरुण का सर दर्द पूर्णतया नियंत्रण में था और उसके पास
पर्याप्त मात्रा में बुकनू उपलब्ध था। वापस घर के लिए चलते समय
तरुण के कमरे में लगे हिरण के चित्र पर मेरी निगाह गई तो मैं
सोच रहा था कि "कस्तूरी कुंडल बसै..." |