सृजन प्रक्रिया अपने आप में
एक जटिल प्रक्रिया है, भले उसका परिणाम कितना ही सहज और
अबोध क्यों न हो। इस प्रक्रिया का विश्लेषण करना और उसे
पूरी तरह समझना भी लगभग असंभव है। एक रचना जिसे हम कविता
कहते हैं, वह कविता ही क्यों बनी या जिसे हम कहानी कहते
हैं वह कहानी के रूप में ही क्यों संभव हुई, इन या ऐसे
प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं हैं जितने कि कविता कविता
क्यों हैं या कोई कहानी क्यों है जैसे प्रश्नों के उत्तर
हैं।
इससे भी ज़्यादा उलझन तब
हो सकती है जब इस दिशा में हम साहित्य-माध्यम के साथ-साथ
स्थापत्य, चित्र, संगीत, नृत्य आदि परम्परागत और आधुनिक
कला-माध्यमों को लेकर विचार करना चाहेंगे। तो भी एक
सामान्य सहमति के रूप में क्या इतना भी नहीं माना जा सकता
कि माध्यम चाहे शब्द हो या रंग, मिट्टी हो या सुरताल या
फिर ऐसा ही कुछ और उससे जो जो कला रूप संभव होता है, उन
कला रूपों की मूल प्रेरणा और मूलभूत आन्तरिक
सृजन-प्रक्रिया में कोई लम्बा-चौड़ा अन्तर नहीं होता।
इस बात को गहराई से समझने
के लिए हमें उन उदाहरणों को भी टटोलना होगा जिनके रहते एक
चित्रकार किसी संगीत को सुनते हुए चित्र बनाता है या फिर
कविता के आधार पर कोलाज, रेखाचित्र या चित्र का सृजन करता
है अथवा एक नर्तकी कविता या गीत को अपने नृत्य में उतारती
है। इसके विपरीत चित्रों से प्रेरित होकर भी कविताएँ लिखी
गई हैं या नृत्य के अनुभव से कविता भी संभव हुई है।
वास्तु-कला के अद्रभुत नमूने ताजमहाल ने अन्य कला-माध्यमों
को सृजन के लिए कितना प्रेरित किया है यह भी किसी से छिपा
हुआ तथ्य नहीं है।
इसके साथ ही प्राचीन समय से अब तक कितने ही रचनाकार ऐसे
हुए हैं जो स्वयं एकाधिक कला-माध्यमों के ज्ञाता और
प्रयोगकर्ता रहे हैं। तुलसी, निराला, महादेवी, गिरिजाकुमार
माथुर, जगदीश गुप्त, शमशेर आदि का इस दृष्टि से स्मरण किया
जा सकता है। भले ही इन रचनाकारों का प्रमुख माध्यम शब्द ही
रहा है और सृजन, साहित्य। लेकिन हम जानते हैं कि दूसरे
माध्यमों जैसे संगीत और चित्र ने भी उनके प्रमुख माध्यम या
सृजन प्रक्रिया को अवश्य प्रभावित-प्रेरित किया है।
मैं समझता हूँ कि यह सब
सायास तो नहीं होता। सायास होगा तो उसके खराब होने की भी
संभावना हो जाएगी। यों इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने कई बार
कलाओं का इस्तेमाल अपनी जरूरतों और सीमाओं के संदर्भ में
एक दिए हुए काम की तरह भी करना चाहा है। लेकिन जहाँ
सायासत्व की मात्रा ज़रूरत से अधिक बढ़ी है चीज़ गड़बड़ा
गई है।
अत: बात चाहे दो कलाओं के
बीच संवाद की हो या विवाद अथवा टकराहट की, वह सहजता की
नींव पर ही ठीक से संभव हो सकती है। इस संदर्भ में सहजता
का ही दूसरा नाम प्रेरणा है। वैसे भी जब एक ही रचना का
अन्य भाषाओं में अनुवाद भी जेरोक्स कॉपी बनने से इंकार
करता है तब दो अलग-अलग कलाएँ वैसा संबंध चाहेंगी।
मेरी अपनी कविताओं को
आधार में रखकर कलाकारों ने चित्र, कोलाज और रेखाचित्र बनाए
हैं। उनकी प्रदर्शनी भी हुई है और दूरदर्शन पर भी उन्हें
दिखाया गया है। प्रश्न भी पूछे गए कि क्यों कविताओं को
आधार बनाया गया। प्रश्नों का सबसे सहज और उचित उत्तर यही
था - क्यों कि ये कविताएँ अच्छी लगीं और अन्य कला-माध्यम के
लिए प्रेरक भी। अत:, परिणाम के रूप में, इस दिशा में संभव
हुआ कार्य भले ही, कभी-कभी एक योजना की तहत किया गया कार्य
भी प्रतीत होता हो लेकिन मूलरूप में वह किसी योजना की तहत
हो ही नहीं सकता। इसीलिए रचना दूसरे माध्यम की अनिवार्यत:
रचना बनायी जा सके, ऐसा कभी संभव नहीं होता।
एक विशेष अनुभव बताता
हूँ। एक बार रात के समय, लगभग एकान्त में, दूरदर्शन पर
संयुक्ता पाणिग्रही का नृत्य देख रहा था। देखते-देखते उस
नृत्य-अनुभव ने मुझे इतना प्रेरित कर दिया कि सहज ही एक
कविता की रचना हो गई जो न केवल मेरी पसन्द की है बल्कि उसे
बहुत से पाठकों ने पसन्द किया है। यह कविता धर्मयुग में
छपी थी और मेरे तीसरे कविता-संग्रह 'हल्दी-चावल और अन्य
कविताएँ' की अन्तिम कविता है।
शीर्षक है - नृत्य देखते
हुए। कविता इस प्रकार है :--
पोर-पोर झाँक रहे हैं
मृग
हज़ारों
तुम्हारी देह के
लो भरने लगे हैं कुलांचे
अंग-अंग में।
कस्तूरी गंध से
महक उठी है देह
जंगल-सी तुम्हारी।
देखो कैसे उतर आए हैं
तुम्हारे पाँवों में।
लो अब दे दिए हैं मुंह
पांवों से फूट रहे झरनों में।
अब पहुँच गए हाथों में
नहीं, कुछ हैं अभी उभारों पर
ग्रीवा पर
आँखों में
हैं कुछ
देह की भौंही आखों में
बच्चों की शरारती आंखों से ये मृग
चुप हैं
बहुत कुछ कहते हुए।
नन्हीं बिटिया के
कूदकर गोद में आ जाने की तरह
कितने सुखद हैं, चिन्ताहारी ये मृग।
अरे रे
मैं तो दौड़ता जा रहा हूँ
देह से छूटे
इन मृगों के पीछे
पीछे।
एक दूसरा अनुभव भी है।
मैने एक पेंटिंग-प्रदर्शनी देखी और चाहा कि एक पसंद की
पेंटिंग के आधार पर कविता लिखूँ। मैं सिर पीट कर रह गया।
अपने पर काफी ज़ोर-ज़बरदस्ती करने के बावजूद अच्छी तो क्या
औसत कविता भी नहीं लिख सका। लेकिन हाल ही में संगीता
गुप्ता की चित्र प्रदर्शनी देखते हुए उनकी एक कृति 'द अदर
साइड आफ लाइफ' ने काफी प्रेरित किया और अन्तत: कविता लिख
सका। यही नतीजा निकलता है कि इस दिशा में प्रयोग भी वही
सफल होते हैं जिनके मूल में उन्हें करने की सहज, आन्तरिक
या कहूँ कि आत्मिक प्रेरणा मौजूद रहती है।
जब मैंने कुछ चुने हुए
कवियों की हिन्दी कविताओं, तेजी ग्रोवर के द्वारा किए गए
अंग्रजी-अनुवादों, और कविताओं पर आधारित अर्नेस्ट अलबर्ट
के रेखाचित्रों की पुस्तक 'आंसांबल' को प्रकाशित कराया तो
कुछ लोगों ने सोचा कि ऐसा काम करने का निर्णय पहले लिया
गया होगा और काम बाद में किया गया होगा। वैसा सोचना एक
भ्रम ही था। अर्नेस्ट ने, असल में, अपने चयन के आधार पर
अपने मन से, रेखाचित्र पहले बनाए थे, शेष सब कुछ बाद में
हुआ।
रघुवीर सहाय ने अपने एक
लेख 'कहानी और कविता' में लिखा है, 'फिर भी यह कोई एकान्त
सत्य नहीं है कि मैं लिखने बैठता हूँ कविता, पर लिख पाता
हूँ कहानी, क्यों कि सत्य यह भी है कि अनेक कविताएँ मैंने
इसलिए लिखी हैं कि नाटक नहीं लिख पा रहा था। अपेक्षतया
पूर्ण सत्य तो यह है कि लिखना शुरू करने से पहले यदि ठीक
ठीक मालूम होता है कि क्या चाहता हूँ तो भी यह नहीं जानता
कि अन्त में रचना की शक्ल क्या होगी। कभी कभी एक साथ दो
चीज़ें लिखना शुरू करता हूँ, थोड़ी देर बाद उनमें से एक
रद्द हो जाती है, दूसरी रद्दी निकलती है और इस तरह दोनों
खत्म हो जाती हैं। कभी-कभी दोनों मिलकर एक हो जाती हैं और
लिखना संभव रहता है।'
असल में, किसी भी
कला-माध्यम को अपनाने वाले रचनाकार या कलाकार के सामने
अपनी रचना विधा या कला-रूप से सम्बद्ध मॉडल, तो ज़रूर होते
हैं। वह उनकी जानकारी रखता है और चाहता भी है। सृजन क्रिया
के प्रारंभ में, विदित माडल, अपना शिकंजा खो बैठते हैं और
सृजक स्वत: ही स्वतंत्र हो जाया करता है। इसी कारण उसकी
रचना मोटे रूप से, और रचनाओं के समान प्रतीत होते हुए भी
मौलिक और अद्वितीय हो जाती है। जितने ही ये गुण ज़्यादा
होंगे उतनी ही रचना अच्छी और सफल मानी जाएगी।
पिछले दिनों अपना
काव्य-नाटक 'खण्ड-खण्ड अग्नि' लिखते समय मुझे एक और अनुभव
हुआ था। कृति की मूल प्रेरणा कविता में नाटक लिखने की ही
हुई थी। लेकिन लिखे जाने के बाद, कुछ मित्रों को दिखाने के
पश्चात मन को यह बात भायी कि कृति में एक लचीलापन होना
चाहिए ताकि उसे मंच पर नृत्य नाटिका के रूप में और
दूरदर्शन पर उस माध्यम की आवश्यकतानुसार प्रस्तुत किया जा
सके। तो कहा जा सकता है कि जो जैसे लिखा गया था उसमें 'एक
प्रकार से' हस्तक्षेप हुआ। लेकिन मैं मानता हूँ, बल्कि
दोहराता हूँ कि यदि यह तथाकथित हस्तक्षेप बहुर सायास
प्रतीत होता है तो कृति कमज़ोर कही जाएगी और यदि नहीं तो
सफल। लचीला का तात्पर्य इतना ही है कि ज़रूरत पड़ने पर,
कुछ प्रयत्न करके बल्कि कहूँ सृजनशील प्रयत्न करके उसे
अपेक्षित विधा के अनुकूल बना लिया जाए।
अंत में इतना भर कि
कला-माध्यमों और कला-रूपों का ही स्वरूप जब स्थिर नहीं
किया जा सकता तब उनके आपसी संवाद या उनकी आपसी टकराहट की
प्रक्रिया के स्वरूप को भी बावजूद यह मानते हुए कि वह
संवाद या विवाद अथवा टकराहट सहज एवं संभव है, कैसे
निर्धारित और स्थिर किया जा सकता है। दरअसल, दोनों ही
स्थितियों में, स्वरूप को, गतिशीलता और परिवर्तनशीलता में
ही समझना होगा। |