इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में यू.एस.ए से सुषम बेदी की कहानी
चट्टान के ऊपर
चट्टान के नीचे
डोरा जानसन ने कैशियर को पैसे
चुका कर सामान के थैलों की और देखा तो आँखों से ही बोझ का
अनुमान करने लगी। सामान कुछ ज़्यादा ही ले लिया था। उठाने में
थोड़ा बोझ लगा ही था कि कैश रजिस्टर पर खड़ी लड़की ने अपने
पीछे खड़े एक काले लड़के की ओर इशारा कर कहा कि मदद चाहिए तो
यह लड़का आपके साथ चला जाएगा। एक दो डालर टिप कर देना। लड़की
ने बताया कि ये लड़के इन्हीं कामों के लिए आ जाते हैं और
थोड़ी-सी टिप लेकर जैसी मदद चाहिए हो कर देते हैं। चट्टान वाली
सड़क समतल नहीं थी। थोड़ी चढ़ाई चलनी पड़ती थी। डोरा ने शुक्र
मनाया कि चलो मदद हो जाएगी और यह लड़का भी कुछ कमा लेगा। वह
उसे अच्छी टिप दे देगी।
रास्ता चलते-चलते वह उनसे बात करने लगी। उसका एक दोस्त भी साथ
चल रहा था।
डोरा ने पूछा, ''कितने साल के हो?''
''१४ साल।''
''पढ़ते हो?''
''हाँ यहीं पब्लिक स्कूल में।''
''कौन-सी क्लास में?''
''नवीं।''
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समीर लाल का व्यंग्य
यह कैसा उत्सव रे भाई
*
कौस्तुभानंद पांडेय
का आलेख
हिंदी के पहले कवि गुमानी पंत
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रंगमंच में किशोर महांति से जानकारी
उड़ीसा की नाट्य परंपरा
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रंजना सोनी का नगरनामा
आनंद का सागर ट्रांधाईम
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पिछले सप्ताह
अतुल चतुर्वेदी का व्यंग्य
आना नए साहब का
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संस्कृति में रामकिशन नैन का आलेख
कहाँ गए वो चरखी-कोल्हू, कहाँ गई वो मधुर सुवास
स्वाद और स्वास्थ्य में
पौष्टिक गुणों से मालामाल मूली
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साहित्य समाचार-
हैदराबाद में 'विश्वम्भरा' स्थापना
दिवस समारोह,
पाठ्य सामग्री लेखन कार्यशाला, चंडीगढ़
में
काव्योत्सव और दिल्ली में
दिशा फ़ाउंडेशन का कवि संमेलन
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उपन्यास अंश में
भारत से रूपसिंह चन्देल के शीघ्र प्रकाश्य
उपन्यास 'गुलाम बादशाह' का एक अंश 'सुन्दरम'
वर्षों बाद, लगभग चार वर्ष बाद वह परिवार के साथ
घूमने निकला। ज़िन्दगी ने कभी उसे फ़ुर्सत ही नहीं दी कि वह उस तरह घूम सकता
जिसे घूमना कहा जाता है। शादी के समय भी उसकी नौकरी की स्थितियाँ आज जैसी ही थीं।
बमुश्किल दस दिन का अवकाश मिला था। उस समय के अपने बॉस सुन्दर को जब उसने बताया कि
वह शादी करने जा रहा है, तब उसने कहा था, "मिस्टर सुशांत, एक बार सोच लो...।"
"क्या सर?"
"शादी इंसान को गधा बना देती है।"
"वह तो मैं हूँ ही सर।"
"क्या?"
"जी सर, इस विभाग में नौकरी करके आदमी जो बन जाता है... शादी करके उसमें कुछ
और वृद्धि कर लूँगा।"
उसकी बात से सुन्दरम
चुप रह गया था। वह नहीं समझ पाया कि उस जैसा चीखने-चिल्लाने वाला अफसर चुप क्यों रह
गया था। वह यह भी नहीं समझ पाया था कि सुन्दरम के सामने वह ऐसा बोल कैसे गया था।
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अनुभूति
में-
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',
विष्णु सक्सेना, ऋषभदेव शर्मा, अरुण मित्तल अद्भुत
और शैलेन्द्र शर्मा की नई रचनाएँ |
कलम गही नहिं हाथ-
मुंबई फिर आतंकवाद की चपेट में...टीवी पर आँखें, कान फ़ोन पर...।
आतंक मुंबई में पर उसकी छाया सारी दुनिया में मुंबईवालों के दिल-दिमाग
में। २७ की सुबह इमारात के अख़बारों में भी मुखपृष्ठ इन्हीं खबरों से लाल
रहे। शायद ही कोई प्रवासी भारतीय हो जो उस रात सोया हो।
कागज़ के पाँच परिशिष्टों वाले, दो सौ पन्नों से अधिक मोटे गल्फ़
न्यूज़ नामक अंग्रेज़ी अखबार का पहला पन्ना ताज की तस्वीरों से भरा था।
ऐसा दिल थाम लेने वाला मुखपृष्ठ उनके वेब संस्करण का तो नहीं फिर भी
यहाँ उसकी एक झलक देखी जा सकती है। प्रमुख समाचार का शीर्षक था वॉर
ऑन मुंबई। बड़ी बड़ी तस्वीरों में से कुछ के छोटे आकार भी यहाँ हैं। ऐसे अवसरों पर जिस तरह की देशभक्ति का उदय भारतीयों में होता है वह भी देखने को
मिला। विदेशों में एक कहावत है- "भारतीय भावुक होते हैं।" विदेशियों के
बीच पंद्रह साल रहने के बाद मुझे लगता है कि यह सच है। जितनी सांसारिक
परिपक्वता विदेशियों में है भारतीयों में नहीं है। हम त्याग और अच्छा
बनने के नाम पर बेवकूफ़ियाँ करते हैं और भुगतते हैं। हमें दूसरों के लिए
अच्छा बनने की बजाय खुद को बेहतर, मज़बूत और संगठित बनाने पर सख़्ती से
ध्यान केंद्रित करना चाहिए। संबंधों को सुधारना सिर्फ हमारी ज़िम्मेदारी
नहीं। कूटनीति कहती है कि अगर आप ताकतवर हों तो दूसरे स्वयं आपके साथ
संबंध सुधारते हैं।
--पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)
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क्या आप जानते हैं?
कि २६ नवंबर को
मुंबई में आतंक का निशाना बने लियोपोल्ड कैफ़े का प्रारंभ १९८१
में तेल की दूकान के रूप में हुआ था। |
सप्ताह का विचार- साध्य कितने भी पवित्र क्यों न हों, साधन
की पवित्रता के बिना उनकी उपलब्धि संभव नहीं। --कमलापति त्रिपाठी |
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