भारत से
रूपसिंह
चन्देल के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'गुलाम बादशाह' का एक अंश 'सुन्दरम'।
यह उपन्यास 'प्रवीण प्रकाशन' , दरियागंज, नई दिल्ली से शीघ्र
प्रकाश्य है।
वर्षों बाद, लगभग चार वर्ष बाद वह परिवार के साथ
घूमने निकला। वैसे ज़िन्दगी ने कभी उसे फ़ुर्सत ही नहीं दी कि वह उस तरह घूम सकता
जिसे घूमना कहा जाता है। शादी के समय भी उसकी नौकरी की स्थितियाँ आज जैसी ही थीं।
बमुश्किल दस दिन का अवकाश मिला था। उस समय के अपने बॉस सुन्दर को जब उसने बताया कि
वह शादी करने जा रहा है, तब उसने कहा था, "मिस्टर सुशांत, एक बार सोच लो...।"
"क्या सर?"
"शादी इंसान को गधा बना देती है।"
"वह तो मैं हूँ ही सर।"
"क्या?"
"जी सर, इस विभाग में नौकरी करके आदमी जो बन जाता है... शादी करके उसमें कुछ
और वृद्धि कर लूँगा।"
उसकी बात से सुन्दरम
चुप रह गया था। वह नहीं समझ पाया कि उस जैसा चीखने-चिल्लाने वाला अफसर चुप क्यों रह
गया था। वह यह भी नहीं समझ पाया था कि सुन्दरम के सामने वह ऐसा बोल कैसे गया था।
सुन्दरम अविवाहित था। महिला अधिकारियों की उसके सामने रूह काँपती थी। वैसे सभी
अधिकारी-कर्मचारी उससे भयभीत रहते... उसके सामने झुककर सभी सर-सर की झड़ी लगा देते
थे।