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रंगमंच

उड़ीसा की नाट्य परंपरा
किशोर महांति

उड़ीसा के आदिवासी अंचलों में घोड़ा नाच, पाटुआ नाच, आदिवासी नृत्यों की परंपरा अब भी विद्यमान है। आदिवासी नृत्य प्रिय हुआ करते हैं। नृत्य और संगीत उनका जीवन है। दिनभर की थकान के बाद दलबद्ध होकर तबले की ताल पर स्त्री-पुरुष नृत्य करते हुए अपार आनंद का अनुभव करते हैं। वे लोग जीवन की जटिलता के भीतर रहना पसंद नहीं करते।

उनके परिश्रम भरे जीवन में यही नृत्य-गीत उनकी प्रेरक शक्ति है। उनके नृत्य और गीतों में उनकी सामाजिक परिस्थिति, व्यक्तिगत चित्र, प्राकृतिक सौंदर्य की झांकी हमें देखने को मिलती है। वे लोग शिकार के समय, युद्ध के समय, फसल की बुवाई, कटाई, आमदनी के समय इन नृत्य गीतों के ज़रिये आनंद की खोज़ करते हैं। इनमें से परजा, कंध, कोया तथा गंड प्रजापति के आदिवासियों का नृत्य बड़ा ही हृदयस्पर्शी होता है। उड़ीसा के आदिवासियों के नृत्य में सामंजस्य होते हुए भी कुछ अलगाव रहता है। कालाहांडी जिले का घूमरा नृत्य बहुत प्राचीन नृत्य है। यहाँ का देशिया नाच बहुत ही मनोरंजक है और उड़िया लोक-नृत्य में अन्यतम है। इसके प्रचार- प्रसार की दिशा में यथासंभव ध्यान नहीं दिया गया है, फिर भी इसकी शैली में अपना निरालापन बरकरार है।

देशिया-अर्थ से स्पष्ट है ग्राम्य और देशिया नाटक अर्थात ग्राम्य नाटक। चूँकि यह देशी नाटक होता है इसलिए इसकी भाषा ग्रामीण होती है। इसमें आदिवासी भाषा की बहुलता देखने कि मिलती है। साथ ही संस्कृत के शब्दों का भी प्रभाव देखा जाता है। देशिया नाटकों के रचयिता, निर्देशक तत्कालीन संस्कृत, तेलगु नाटकों से प्रभावित हुए हैं, यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

यह नाटक खुले मंचों में मंचस्थ हुआ करता था। चारों तरफ़ दर्शक बैठते थे, और ठीक मध्य भाग में नाटक मंचस्थ होता था। इन नाटकों की कथावस्तु प्रायः रामायण तथा महाभारत या पुराणों की कहानी पर आधारित होती है। पहले तो इन नाटकों के संचालन का दायित्व जो लोग लेते थे, उन्हें 'नाट्यगुरु' कहा जाता था। इन नाट्यगुरुओं की विशेषता ही होती है कि वे रामायण, महाभारत की कथावस्तु के बारे में दक्षता हासिल किए होते हैं। अभिनय ज्ञान, वाद्ययंत्र-संगीत का ज्ञान उसके पास पर्याप्त होता था। हालाँकि इन नाट्यगुरुओं का उद्देश्य धन उपार्जन नहीं होता था, बल्कि कला तथा मनोरंजन की ओर वे अपना ध्यान देते थे।

समय के साथ-साथ इन नाटकों में परिवर्तन आया। पंडित तथा सुधी वर्गों में इस पर आलोचना होने लगी। पंडित विश्वनाथ कविराज के साहित्यदर्पण में भारतीय नाट्य पद्धति पर विस्तार से चर्चा हुई है। बारहवीं शताब्दी में इन पर संस्कृत का प्रभाव पड़ा। तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी तक ये बलिष्ठ रूप धारण किए हुए थे। गजपति पुरुषोत्तम देव कृत वेणी संहार तत्कालीन संस्कृत नाटक, भारतीय नाट्यकला के लिए अत्यंत प्रचलित कथानक है।  गीतिनाट्य, गीताभिनय, लीला, स्वांग की तरह देशिया नाटक भी संगीताश्रयी था। इनमें संगीत का प्रभाव इतना होता था कि वाद्य और वचनिका गौण मालूम होने लगता था। इससे साफ जाहिर होता है कि तत्कालीन लोगों की मनोवृत्ति ही संगीत प्रेम की था।

प्राचीन काल में संगीत, भजन, चउतिसा, चउपदी कोइली आदि छंद काव्य साहित्य को रसवंत किया करते थे। इसलिए पुरातन साहित्य की विशेषता ही है रसबोध। उसमें प्रेरणा आवेग के माध्यम से स्पष्ट होती है। सिर्फ़ आवेग ही नहीं, अनुभूति और इस बोध की कोमल, तरल झंकार ही है। अतः देशिया नाटकों के रचयिता निश्चित रूप से संगीत शास्त्र में पारंगत थे। विभिन्न राग-रागिनियों, ताल मान, लय के संपर्क में संपूर्ण दक्षता हासिल करने के बाद में वे लोग संगीत की सृष्टि और प्रयोग के संपर्क में आगे बढ़े। देशिया नाटकों में कर्नाटकी संगीत पद्धति तथा हिंदुस्तानी संगीत पद्धति दोनों प्रकार की शैली का प्रयोग हुआ। इसमें अभिनेता संगीत गान नहीं करते या वचनिका परिवेषण नहीं होता, प्रत्येक अभिनेता अभिनय द्वारा अपनी बात कहता है। पात्रों का चयन नाट्यगुरुओं का काम होता है। प्रत्येक नाटक में द्वारी (द्वारपाल), विदूषक जैसे आवश्यक चरित्र हुआ करते थे। नट-नटी तथा संधी की भूमिका नाटकों में अवतारणा करनी और नाटकों की विषयवस्तु का संयोजन का काम करती है। नट-नटी या संधी मंच पर आकर नाटक दर्शकों के सामने नाटक के मंचन की अनुमति माँगते हैं। वे विघ्न विनाशक गणेश या देवी सरस्वती की पूजा-वंदना करते हैं।

स्वांग गीतिनाट्य तथा गीताभिनय में विदूषक तथा द्वारी का संयोजन जितना चित्ताकर्षक होता है, उतना ही हास्य रस से भरा हुआ भी। वह राजा से लेकर मंत्री तक, महारानी से लेकर राजकुमारी तक सबके पास बगैर रोक-टोक सबके पास आ जा सकता है और उन्हें अपने हास्य रस से ओतप्रोत करता है। इस तरह सुंदर हास्य रस प्रदान कर वह दर्शकों को आनंद प्रदान करता है। वह फारसी मिश्रित उड़िया का प्रयोग कर लोगों को हँसाता है। देशिया नाटकों में मुखौटा पहनकर अभिनय किया जाता था। मुखौटा एक प्रतीक होता है। राम, लक्ष्मण, सीता जैसे चरित्रों को छोड़कर अन्य सभी मुखौटा पहनते है। यह प्रथा बहुत प्राचीन है। सखी नाटकों, कालीदुर्गा नृत्य, भालू नृत्य, बाघ नृत्य आदि में मुखौटा व्यवहार में लाया जाता है। खासकर इन नाटकों में वानर सेना और राक्षस मुखौटे पहनते है। दशानन रावण के दस सिर, इन मुखौटों द्वारा ही संभव होते हैं।

देशिया नाटकों की विषय-वस्तु इतनी अधिक लंबी होती है कि उसे पूरा होने में एक से अधिक रात की आवश्यकता होती है। रंगमंच पर जब राजा, रानी या अन्य चरित्र प्रवेश करते हैं तब वे उनके आगमन की सूचना दे देते हैं। इन देशिया नाटकों में शब्दाडंबर भले ही न हो, लेकिन अलंकारिता के पर्याप्त प्रमाण देखने को मिलते हैं। यमक और उपमा का प्रयोग इसे और भी सरस, सुंदर बना देता है। भारतीय काव्य साहित्य के विभिन्न संप्रदायों में रस का महत्व सर्वाधिक रूप से स्वीकृत है। रस भेद में शृंगार रस को श्रेष्ठ रस माना जाता है। महाकवि कालिदास, भट्ट, माघ, श्रीहर्ष, जयदेव जैसे महान कवियों ने अपनी कला का प्रदर्शन इन रसों के माध्यम से किया है। साहित्य के सभी रसों में शृंगार, वीर और हास्य रस के चमत्कार से जो प्रदर्शन होता है, वह दर्शकों को आनंद देता है। देशिया में भी रस को बहुत महत्व दिया गया है।

'प्रह्लाद चरित्र', 'गंडावध', 'अग्निपरीक्षा', 'चंद्रकलाहरण', 'वाणा पराजय लीला', 'धनुलीला', 'कुंभासुर वध', और 'जलंधर वध' आदि अनेक देशिया नाटक लोगों को मोहित करने में सहायक हुए हैं। कुछ का नाट्यरूप में मंचन भी हुआ है। जयपुर के महाराजा मचंद्रदेव चतुर्थ के लिखे कुछ देशिया नाटक बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें 'कुंभासुर वध' को मील का पत्थर कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसी तरह राजा विक्रमदेव भी कला के पुजारी थे। कला, साहित्य और संस्कृति के प्रचार- प्रसार की दिशा में उनकी कोशिश भी बहुत प्रशंसनीय है। उनके द्वारा रचित 'जलंधर वध' काफी लोकप्रिय हुआ था। इस तरह हमें तात्कालिक राजा-महाराजाओं के शास्त्र ज्ञान तथा पांडित्य की झलक देखने को मिलती है। कोरापुट जिले के जयपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में इन नाटकों के अभिनय देखने को मिलते हैं। फसल की आमदनी के बाद (पौष पूर्णिमा के बाद) से ही नाट्य दल अपने सामान के साथ विभिन्न स्थानों में नाटक के मंचन के लिए निकल आते हैं। इस समय उनके आनंद और उल्लास का ठिकाना नहीं रहता। वे लोग कई-कई रातें जागकर इन नाटकों का मंचन करते हैं। वे लोग व्यवसायिक वृत्ति से नाटक नहीं करते, बल्कि अपनी खुशी और आनंद के लिए नाटक करते हैं। इस तरह वे खुद आनंद लेते हुए दूसरों को भी आनंदित करते हैं।

दिवस के सूर्यालोक तथा रात्रि के घने अंधकार में मशाल की लौ में होने वाले देशिया नाटक आज परिवर्तन की धारा के साथ ताल देकर आगे बढ़ रहे हैं। युग के परिवर्तन के साथ-साथ दर्शकों की रुचि में भी परिवर्तन आया है। देशिया, नाटकों में संपूर्ण बदलाव न होने पर भी मंच प्रस्तुति, आलोक, सज्जा, शब्द ग्रहण, पोशाकों में परिवर्तन देखने को मिलता है। अब कहीं-कहीं पेट्रोमैक्स के बदले बिजली के बल्बों का प्रयोग, अभिनव मंच-सज्जा, सुरुचिपूर्ण पोशाकों का व्यवहार नाटकों को मार्जित तथा रुचिपूर्ण कह रहा है। मगर अभिनेताओं के अभिनय में परंपरा का पालन किया जाता है। आदिवासी बहुल अंचलों में अब तक लोक नाटक (देशिया नाटक) की धारा अपरिवर्तित होकर रही है, इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। (हिंदी रूपांतर सिद्धार्थ मानसिंह महापात्र)

१ दिसंबर २००८

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