व्यक्तित्व

हिंदी के पहले कवि गुमानी पंत
कौस्तुभानंद पांडेय


हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में कुमाऊँ के साहित्यकारों का विशेष योगदान रहा है। भारतेंदु काल से सौ वर्ष पूर्व रची गई महाकवि गुमानी पंत की खड़ी बोली की रचनाएँ आज भी अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। गुमानी पंत कुर्मांचल में खड़ी बोली को काव्य रूप देने वाले प्रथम कवि हैं। सर ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ''लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया'' में गुमानी जी को कुर्मांचल प्राचीन कवि माना है।

डॉ. भगत सिंह के अनुसार कुमाँऊनी में लिखित साहित्य की परंपरा १९वीं शताब्दी से मिलती हैं और यह परंपरा प्रथम कवि गुमानी पंत से लेकर आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। इन दो दृष्टांतों से यह सिद्ध हो जाता है कि गुमानी जी ही प्राचीनतम कवि थे।

गुमानी का जन्म विक्रत संवत् १८४७, कुमांर्क गते २७, बुधवार, फरवरी १७९० में नैनीताल जिले के काशीपुर में हुआ था। इनके पिता देवनिधि पंत उप्रड़ा ग्राम (पिथौरागढ़) के निवासी थे। इनकी माता का नाम देवमंजरी था। इनका बाल्यकाल पितामह पं, पुरुषोत्तम पंत जी के सान्निध्य में बीता। इनका जन्म का नाम लोकरत्न पंत था। इनके पिता प्रेमवश इन्हें गुमानी कहते थे और कालांतर में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा मुरादाबाद के पंडित राधाकृष्ण वैद्यराज तथा मालौंज निवासी पंडित हरिदत्त ज्योतिर्विद की देखरेख में हुई। २४ वर्ष की उम्र तक विद्याध्ययन के पश्चात इनका विवाह हुआ। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने भी न पाए थे कि बारह वर्ष तक के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की ठान बैठे और तीर्थाटन को निकल गए। चार वर्ष तक प्रयाग में रह वहाँ एक लाख गायत्री मंत्र का जप किया। एक बार भोजन बनाते समय इनका यज्ञोपवीत जल गया। प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने व्रत समाप्ति तक पका अन्न न खाने की प्रतिज्ञा कर ली। उनके प्रपौत्र गोवर्धन पंत जी के अनुसार गुमानी जी ने प्रयाग के बाद कुछ वर्षों तक बदरीनाथ के समीप दूर्वारस पीकर तपस्या की थी। व्रत समाप्ति के बाद माता के आग्रह पर इन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया।

राजकवि के रूप में गुमानी जी सर्वप्रथम काशीपुर नरेश गुमान सिंह देव की राजसभा में नियुक्त हुए। राजसभा के अन्य कवि इनकी प्रतिभा से ईर्ष्या करने लगे। एक बार काशीपुर के ही पंडित सुखानंद पंत ने इन पर व्यंग्य कसा। पर्याप्त शास्त्रार्थ हुआ। जब महाराज गुमान सिंह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके तो मध्यस्थ की आवश्यकता हुई। उन्होंने मुरादाबाद के पंडित टीकाराम शर्मा को मध्यस्थ बनाया। टीकाराम जी भी गुमानी जी की प्रतिभा से ईर्ष्या करते थे। अतः उन्होंने सुखानंद संत का ही साथ दिया, गुमानी जी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और वे तत्काल निम्नलिखित श्लोक लिखकर सभा से बाहर चले गए- 

चंदन कर्दम कलहे भेको मध्यस्थतापन्नः।
ब्रूते पंक निमग्नः कर्दम साम्यं च चंदन लभते।।
अर्थात चंदन और कीचड़ में विवाद हुआ और मेंढक को मध्यस्थ बनाया गया। चूँकि मेंढक कीचड़ में ही रहता है, वह चंदन का साथ भला कैसे दे सकता है?

गुमानी जी टिहरी नरेश सुदर्शन शाह की सभा के मुख्य कवि रहे। एक बार दरबार में एक विद्वान आए और उन्होंने गुमानी से शास्त्रार्थ करना चाहा। सुदर्शन शाह के संकेत पर गुमानी जी शास्त्रार्थ के लिए उतर पड़े। कोई निर्णय न होता देख महाराज ने एक समस्या रख दी और कहा कि जो इसका समाधान निकाल लेगा वही विजयी माना जाएगा। समस्या थी-
टिहरी केहि कारन नाम गह्यो। गुमानी जी ने फौरन यह पद बनाकर प्रस्तुत कर दिया-
सुरंगतटी रसखानमही धनकोशभरी यहु नाम रह्यो।
पद तीन बनाय रच्यौ बहु विस्तार वेगु नहीं जात कह्यो।
इन तीन पदों के बखान बस्यो अक्षर एक ही एक लह्यो।
धनराज सुदर्शन शाहपुरी टिहिरी यदि कारन नाम गह्यो।।

गुमानी जी अपनी समस्यापूर्तियों के लिए विख्यात थे। उनकी रचनाएँ हिंदी मिश्रित संस्कृत, कुमाँउनी, नेपाली, खड़ी बोली, संस्कृत और ब्रज भाषा में है। एक बानगी देखिए-
बाजे लोग त्रिलोकनाथ शिव की पूजा करें तो करें (हिंदी)
क्वे-क्वे भक्त गणेश का जगत में बाजा हुनी त हुन्।। (कुमाँउनी)
राम्रो ध्यान भवानि का चरण माँ गर्छन कसैले गरन्।। (नेपाली)
धन्यात्मातुल धामनीह रमते रामे गुमानी कविः।। (संस्कृत)

एक और रचना देखिए-
शिरसि जटाजूटं विभ्रत् कौपीनंघृतवान्।
भस्माशेषै वपुषिदधानों हरिचयर्रांबरवान्।।
तृष्णामुक्तः स्वैर बिहारी योगकला विद्वान।
अलख निरंजन जपता योगी ओन्नमोनारान्।।

गुमानी जी की रचनाओं में ललकार के साथ ही उन कारणों और कमज़ोरियों का भी वर्णन है जिनके कारण भारत गुलाम हुआ। एक बानगी देखिए जो खड़ी बोली का स्पष्ट दृष्टांत है-
विद्या की जो बढ़ती होती, फूट न होती राजन में।
हिंदुस्तान असंभव होता बस करना लख बरसन में।
कहे गुमानी अंग्रेजन से कर लो चाहो जो मन में।
धरती में नहीं वीर, वीरता दिखाता तुम्हें जो रण में।

गुमानी जी की और भी कई रचनाएँ हैं जो उन्हें खड़ी बोली का पहला कवि साबित करने के लिए पर्याप्त है। अंग्रेज़ों ने इस देश की दौलत को लूटा-खसोटा, कला को नष्ट किया और देश की आर्थिक दशा को दयनीय स्थिति में पहुँचा दिया। उदाहरण देखिए-
छोटे पे पोशाक बड़े पे ना धोती ना टोपी है,
कहै गुमानी सुन ले बानी होनी है सो होती है।
अंग्रेज़ के राज भरे में लोहा महंगा सोने से।
दौलत खींची दुनिया की सो पानी पीवे दोने से।

तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का चित्रण कवि के काशीपुर वर्णन में मिलता है। गोरखाली राज्य के भय से आतंकित कुमाऊँ की अधिकांश जनता तराई की और आ गई। वहाँ जनसंख्या विस्फोट से जनता में अनेक दुर्गुणों का समावेश हुआ। ब्राह्मणों और पंडितों की नकल कर अन्य लोग भी अपनी जीविका चलाने लगे। कवि ने निम्नलिखित पंक्तियों में उस समय की स्थिति का सजीव वर्णन किया है-

इसमें प्रथम तीन पंक्तियाँ बृज में और अंतिम पंक्ति हिंदी में है।
कथा वाले सस्ते फिरत धर पोथी बगल में
लई थैली गोली घर-घर हकीमी सब करें।
रंगीला-सा पत्रा कर धरत जोशी सब बनें।
अजब देखा काशीपुर सारे शहर में।।

अंग्रेज़ों के ज़माने में कुमाऊँ की समृद्धि नष्ट हो गई। कवि का भावुक ह्रदय कुमाऊँ की दुर्दशा पर कराह उठा-
आई रहा कलि भूतल में छाई रहा सब पाप निशानी।
हेरत हैं पहरा कछु और ही हेरत है कवि विप्र गुमानी।

गुमानी जी के जीवन में घटित एक रोचक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। अपने प्रवासकाल में एक बार गुमानी जी एटा जिले के शूकर (सोरों) में भागिरथी के किनारे एक गुफा में साधनारत थे। एक दिन दोपहर को वे विश्राम कर रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि कोई उनके सिर पर हाथ फेर रहा है। आँखें बंद किए हुए ही उन्होंने पूछा, ''कोस्त्वं? अर्थात तुम कौन हो? उत्तर मिला ''कपिरहं कविस्त्वं'' अर्थात मैं कबि (बंदर) हूँ और तुम कवि हो। इतना सुनते ही उनका आँख खुल गई। उन्होंने अपने सिरहाने एक विशालकाय बंदर को देखा। इनके उठते ही वह बंदर गुफा की दीवार में प्रविष्ट हो गया। गुमानी जी ने हनुमान का आशीर्वाद मान दीवार में उसी स्थान पर हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की। यह प्रतिमा आज भी मौजूद है और वह गुफा गुमानी गुफा के नाम से जानी जाती है। हालाँकि स्थानीय लोगों ने इसे मंदिर का स्वरूप प्रदान कर दिया।

गुमानी जी चूँकि अपने विद्यार्थी जीवन से ही कविताएँ करते थे। अतः उनका रचनाकाल १८१० के लगभग माना जा सकता है। डॉ. भगत सिंह ने भी 'हिंदी साहित्य को कूर्मांचल की देन' नामक पुस्तक में गुमानी जी का रचनाकाल यही माना है। हिंदी साहित्य के इतिहासकार इस तथ्य को भूल गए कि भारतेंदु के प्रादुर्भाव से बहुत पहले गुमानी खड़ी बोली को काव्य का रूप दे चुके थे। श्रीधर पाठक का रचनाकाल कवि गुमानी जी के रचनाकाल से एक शताब्दी बाद का है। उनकी खड़ी बोली की रचनाएँ काव्य शास्त्र की कसौटी पर खरी उतरी है। उनकी रचनाओं में काव्य के सभी गुण विद्यमान हैं। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि गुमानी जी ही खड़ी बोली के प्रथम कवि हैं। एक रचना इस प्रकार है-
अपने घर से चला फिरंगी पहुँचा पहले कलकत्ते
अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना लत्ते।
सारा हिंदुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते।
कहे गुमानी कलियुग ने यों सुब्बा भेजा अलबत्ते।।

गुमानी जी की निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं-
१. रामनाम पंचासिका, २. राम महिमा वर्णन, ३. गंगाशतक, ४. जगन्नाथाष्टक, ५. कृष्णाष्टक, ६. राम सहस्रगणदंडक, ७. चित्र पदावली, ८. राम महिमा, ९. रामाष्टक, १०. कालिकाष्टक, ११. राम विषय भक्ति विज्ञप्तिसार, १२. तत्व बोधिनी पंच पंचाशिका, १३. नीतिशतक शतोपदेश, १४. ज्ञान भेषज्य मंजरी। इनके अतिरिक्त गुमानी जी की अनेक भाषाओं में लिखी रचनाएँ गुमानी नीति में संग्रहीत है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' में गुमानी जी की दो रचनाओं- गुमानी नीति और गुमानी काव्य-संग्रह का उल्लेख किया है। गुमानी नीति का संपादन देवीदत्त उप्रेती ने १८९४ में किया है। गुमानी काव्य-संग्रह का संकलन और संपादन देवीदत्त शर्मा ने १८३७ में किया। इसके अलावा उनका कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में लेख अवश्य प्रकाशित हुए। पंडित देवीदत्त शर्मा के अनुसार यदि इनके लिखे हुए खर्रे भी मिल जाते तो इनकी समस्त रचना एक लाख से अधिक पदों में होती। उन्होंने तत्कालीन नरेशों के बारे में भी कई रचनाएँ कीं। हिंदी साहित्य के आधुनिक पितामहों को गुमानी जी को खड़ी बोली का पहला कवि मान लेना चाहिए।

१ दिसंबर २००८