इस
सप्ताह-
समकालीन कहानियों में-
भारत से प्रभु जोशी की कहानी
एक चुप्पी क्रॉस
पर
अक्सर,
ऐसा ही होता है, पापा के सामने पड़ने पर। उनका ठेठ-रोआबदार, संजीदा-संजीदा चेहरा देख कर
अमि हमेशा से ही सहमी-सहमी रही है। इसीलिए पापा की उपस्थिति के
घनीभूत क्षणों में अमि चाहती रही है कि जितना भी जल्दी हो सके,
वह उनकी आँखों से ओझल हो जाए।
पापा रुके हुए थे।
रुके हुए और चुप। अमि को लगा, यह शायद पापा के बोलने के पहले
की ख़तरनाक चुप्पी है, जो टूटते ही अपने साथ बहुत हौले-से एकदम
ठंडे, लेकिन तीखे लगने वाले शब्द छोड़ेगी, जो उसे भीतर ही भीतर
कई दिनों तक रुलाते रहेंगे। उसे लग रहा था, पापा कुछ कमेंट
करेंगे। उसके इतनी देर तक बाथरूम में बन्द रहने पर। मसलन, 'अमि!
तुम्हें दिन-ब-दिन यह क्या होता जा रहा है?' मगर, वे कुछ कहे
बग़ैर ही आगे बढ़ गए।
अमि आश्वस्त हो गई। गीले पंजों के बल लम्बे-लम्बे डग भरती हुई,
अपने कमरे में चढ़ आई।
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उमेश अग्निहोत्री
का व्यंग्य
अमेरिका में दर्पण
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जितेन्द्र भटनागर की लघुकथा
समय
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रंगमंच में
गली गली में नुक्कड़ नाटक
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साहित्य समाचार
यू. के. से,
भारत से,
अमेरिका से
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उमा शंकर चतुर्वेदी
का व्यंग्य
बीमार होना बड़े अफ़सर का
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पर्यटन में सुबोध कुमार 'नंदन' के साथ
केसरिया के बौद्ध स्तूप की सैर
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स्वाद और स्वास्थ्य में
आरोग्यकारी
अंगूर
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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
छुटकारा रद्दी की टोकरी से
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समकालीन कहानियों में-
डेनमार्क से चाँद शुक्ला हदियाबादी की कहानी
पराई प्यास का सफ़र
जब
डेनमार्क के इस सीमावर्ती शहर के लिए प्रवीण बावला पहुँचे तो शाम
जवान थी। मौसम भी बेहद दिलकश था। बसंत ऋतु की खुनकी हवा में घुलकर
वातावरण को मस्त किए दे रही थी। शहर तो छोटा-सा ही था, लेकिन
कार्निवाल के कारण ख़ासी भीड़ थी। अलग-अलग शहरों और कस्बों से आए
नृत्य समूह अपनी तैयारियों के अंतिम चरण में थे। सारी गहमागहमी के
बावजूद प्रवीण बावला उदास थे। चारों तरफ़ की भीड़ और उत्साह के
बावजूद उन्हें सब कुछ बेरस लग रहा था। दरअसल पिछले तीन दिनों से वे
जिस मानसिक उद्वेलन की स्थिति से गुज़र रहे थे उसका कारण वे स्वयं
भी समझ नहीं पा रहे थे। ऐ यंग मैन! गहमा-गहमी के बीच चर्च के पास एक
रेलिंग के सहारे टिके खोए से प्रवीण बावला की तंद्रा को उनके सहायक
जैनसन ने भंग किया - बस अब कार्निवाल के चीफ गेस्ट आने ही वाले हैं।
और एक खुशखबरी है– जैनसन चहका |
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अनुभूति में-
कुमार शैलेन्द्र, द्विजेन्द्र
'द्विज', अशोक गुप्ता, बागेश्री चक्रधर और सुषमा भंडारी की
नई रचनाएँ। |
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कलम
गही नहिं हाथ
आधुनिक सभ्यता ने हमें जो चीज़ सबसे
ज्यादा सिखाई है वह है फेंकना। एक थे बाबा कबीर जो जतन से ओढ़ के चदरिया ज्यों की त्यों धर देते थे। आज चदरिया भी डिस्पोज़ेबल है।
अस्पतालों में देखें तो हर चिकित्सक की परीक्षण मेज़ के सिरहाने टिशू
के रोल जैसे चादरों के रोल लगे हैं। नया मरीज़ आया रोल खींचा, नई
चादर बिछा दी। मरीज़ गया, चादर फाड़ी, फेंक दी। गनीमत है कि घर इससे
बचे हुए हैं। वर्ना कथरियों का बहुरंगी सौंदर्य ऐतिहासिक हो जाता।
माँ आनंदमयी का आश्रम याद आता है जहाँ जिस कुल्हड़ में खीर खाते थे
उसी में पानी पीते थे, कुल्हड़ में गोरस लगा हो तो उसको फेंका नहीं
जाता था। अब गोरस तो ऐतिहासिक हो चुका। सहवाग ब्रांडेड दूध पीते हैं
और डब्बा फेंकते है। कार्यालय में देखें तो पानी के डिस्पेंसर पर
प्लास्टिक के गिलास रखे हैं। एक खाने में दो बार पानी पीना हो तो दो
गिलास फेंको। फेंकने से रसोई में गंदे बर्तन जमा नहीं होते। फेंकना
ही सफ़ाई है, फेंकना ही सौंदर्य है, फेंकना ही प्रतिष्ठा है। जतन का
कोई महत्व नहीं। धोनी भी यही कहते हैं नया जमाना है नए कपड़े पहनो,
पुराने फेंक दो (और नए खरीदने के लिए अपने
माँ बाप के मेहनत से कमाए गए पैसे फेंक दो)।
फेंकना सिर्फ पैसों और चीज़ों तक सीमित रहे वहाँ तक तो ठीक पर
संस्कृति
और मानवीय मूल्यों तक पहुँचे तो क्या होगा? -पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)
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क्या
आप जानते हैं?
कथाकार प्रेमचंद ने एक फिल्म की कहानी भी लिखी थी। यह फिल्म १९३४
में मजदूर नाम से बनी थी। |
सप्ताह का विचार
थोड़े दिन रहने वाली विपत्ति अच्छी
है क्यों कि उसी से मित्र और शत्रु की पहचान होती है।
--रहीम |
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