हास्य व्यंग्य

अमेरिका में दर्पण
—उमेश अग्निहोत्री


अमेरिका के घरों में शीशे बहुत हैं। बाथरूम में शीशा तो ठीक है, घर में घुसते ही फॉयर में शीशा, लिविंग रूम में बुखारी के ऊपर एक शीशा। बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल पर शीशा। खाने के कमरे में भी शीशा। तरह-तरह के शीशे, कहीं आयताकार, कहीं चौकोर, कहीं सिर्फ़ अपना चौचोटा देखने, और कहीं खुद को ऊपर से नीचे तक देखने के लिए आदमकद शीश। किसी भी कमरे में जाओ आपको उसमें कहीं-न-कहीं शीशा लगा ज़रूर मिलेगा।

मैं जब अमेरिका पहुँचा था, और रहने के लिए अपार्टमेंट ढूँढ़ रहा था, तो एक बार एक अपार्टमेंट में दाखिल होते ही लिविंग रूम की बुखारी पर लगे शीशे में खुद पर नज़र पड़ी। मुझे महसूस हुआ कि कमरे में कोई दूसरा भी है। उसके बाद जब बेडरूम के दरवाज़े के पीछे लगे शीशे में अपने को ऊपर से नीचे तक देखा, तो लगा जैसा खुद को नहीं, किसी अजनबी को देख रहा हूँ, क्योंकि उससे पहले कभी खुद को सिर से पाँव तर पूरा देखा नहीं था।

...नहीं शायद एक बार देखा था, वह तब जब नई दिल्ली में औद्योगिक प्रदर्शनी लगी थी, और उसमें एक मंडप के बाहर एक आदमकद शीशे में खुद को देखा था। मुझे आज भी याद है कि जब उस शीशे के आगे से निकला था, तो पहली प्रतिक्रिया यह हुई थी- ओह! तो दूसरों को, यानी जो मुझे मुजस्सम देखते रहे हैं, उनको मैं ऐसा गोल-मटोल, तोंदल नज़र आता हूँ। और मैं कभी खुद को देखने के और कभी न देखने के चक्कर में, शीशे के आगे, दांय-बांय होता रहा था।

घरों में तो शीशे होते ही हैं। बाहर भी उनसे आप पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाते। दिन में चार-चार घंटे बाद अगर चार बार भी कहीं किसी 'मेन्स या विमेंस रूम' में जाना पड़ जाए, तो वहाँ भी आपकी, आप चाहें न चाहें. किसी शीशे में खुद से मुलाक़ात हो ही जाती है।

मैं कभी-कभी पश्चिमी समाज में शीशे के योगदान के बारे में सोचता हूँ तो इसी नतीजे पर पहुँचता हूँ कि इसने व्यक़्ति को और समाज को बहुत बदला है। कभी घर में कभी घर के बाहर, जब आप बार-बार अलग-अलग रूपों में, कभी कपड़ों में और कभी निर्वस्त्र, खुद से रू-ब-रू होते रहते हैं, तो फिर एक दिन आता है जब आप अवचेतन रूप में, अपने चेहरे-मोहरे, बाहरी रंगरूप के बारे में सोचने लगते हैं। परिणामस्वरूप आप आत्म-केंद्रित होते चले जाते हैं। तब आप अपनी छवि सुधारना चाहते हैं और चूँकि बात अपनी छवि सुधारने की होती है, आप अपने पर खुद कर खर्च करते हैं।

यह भावना उन समाजों में ज़रा मुश्किल से पैदा होती है जहाँ आईने आसानी से मिलते न हों, घरों में एक या दो से अधिक शीशों का होना लक्ज़री माना जाता हो और तैयार होने के बाद लड़कियों को यह जानने के लिए कि वह कैसी लग रही हैं, आईने से नहीं, सहेलियों से पूछना पड़ता हो, जो यह क्यों चाहने लगीं कि आप उनसे सुंदर लगें।

भारत में हमारे घर में शीशा था, जिसमें चेहरा पूरा नज़र आ जाए तो खुद को खुशकिस्मत समझते थे। उसी में देखकर हम सब भाई-बहन बालों में कंघा कर लिया करते थे। वह ज़माना ऐसा था कि आईने में देर तक अपना चेहरा देखना गुनाह समझा जाता था। आपने दो मिनट से ज़्यादा लगाए नहीं कि पापा जी की आवाज़ आती थी, यह क्या अपनी सूरत निहारते जा रहे हो? जुल्फे सँवारने के अलावा कोई और काम नहीं है क्या? पता है महात्मा गांधी ने कभी अपनी शक्ल शीशे में नहीं देखी थी। उनको यह पता ही नहीं था कि उनके कान कितने बड़े थे। ...हमें लगता कि पापा जी हमारा अंतर महात्मा गांधी जैसा भले न बना पाएँ, हमारा बाहरी व्यक्तित्व ज़रूर महात्मा गांधी जैसा बनकर रहेंगे।

शीशे के नाम पर, घरभर में कैलेंडर की एक तस्वीर थी, जिसमें एक सुंदरी हाथ में दर्पण थामें अपना चेहरा निहार रही होती, हम उसे देखा करते।
अमेरिका में जब आम लोगों को समझ नहीं आता कि किस कमरे में क्या सजाएँ तब बहुतों को सबसे अच्छा विकल्प यही लगता है कि दीवार की एकरसता तोड़ने के लिए शीशा लगा दो। शीशा लगाने से छोटे कमरे बड़े लगते हैं। एकाकीपन दूर होता है। आप महसूस करते हैं कि आप घर में अकेले नहीं हैं। एक बार मैं किसी के यहाँ खाने पर आमंत्रित था। वहाँ खाने की मेज़ के साथवाली दीवार पर भी एक शीशा लगा था। पकवान दो तीन ही थे, लेकिन मेज़ भरी-भरी लग रही थी।

मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि आज भारत प्रगति के जिस चरण में है उसको सबसे ज़्यादा ज़रूरत है आईनों की। आईने होंगे तो प्रगति उन लोगों को भी नज़र आएगी जिनको अक्सर शिकायत रहती है कि प्रगति नहीं हो रही।

प्रगति की गति तेज़ करना चाहते हो तो लोगों के हाथों में आईने थमा दो। आप जानते हैं, जब दूसरे पर खर्च करने की बात हो तो आदमी दो बार सोचता है, लेकिन जब बात छवि सुधारने की हो, तो वे अपने पर खुल कर खर्च करेगा। इतना ही नहीं, देश में प्रगति जितनी हो रही होगी और छन कर गरीबों तक भी जितनी पहुँचेगी, वह भी आईने में दुगनी नज़र आएगी।

३० जून २००८