इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन
ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल
थी - प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और
अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की
रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और
नाटकों का मंचन। इसी का विकसित रूप हमें तब भी देखने
को मिलता है जब आज से लगभग ढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष पहले
यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या
भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर,
चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन
किया करता था।
स्वयं भारत में भी इसी समय के आस-पास अथवा इससे भी
पूर्व से लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से
रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की
परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये लव-कुश राम के पुत्रों
के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के
समांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशीलव के नाम
से ही जाना जाने लगा। संभवत: यही कारण है कि नाटकों के
लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी
अपने नाट्यशास्त्र में दशरूपक विवेचन के अंतर्गत
'वीथि' नामक रूपक का भी उल्लेख किया है। आज भी आंध्र
प्रदेश में लोकनाट्य परंपरा की एक शैली का नाम की
'वीथि नाटकम' मिलता है और आधुनिक नुक्कड़ नाटक अथवा
स्ट्रीट थिएटर को भी इसी नाम से जाना जाता है।
मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से
मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास यदि भारत के
विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में
लोक नाटकों के रूप में हुआ तो उसी के समांतर पश्चिम
में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड,
फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का
प्रचलन शुरू हुआ जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते
थे और मूलत: धर्म के प्रचार के लिए ही खेले जाते थे।
ये नाटक भी खुले में, मैदानों, और चौराहों और बाज़ारों
में ही मंचित किए जाते थे और दिन की रोशनी में ही,
जबकि हमारे यहां नाटक लगभग अपने आरंभ काल से ही
ज़्यादातर रात में ही खेले जाते थे। इसके लिए हमारे
यहां की तत्कालीन जीवन-व्यवस्था तो ज़िम्मेदार थी ही,
अर्थात दिन भर खेतों में काम करने के बाद, रात में ही
उन्हें ऐसे मनोरंजन की ज़रूरत पड़ती थी जो उनकी थकान
मिटा सके।
इतना ही नहीं, रात के साथ ही इस तरह के प्रदर्शनों,
मनोरंजनों का जुड़ना समाज में उपस्थित एक सुरक्षित
जीवन-पद्धति की तरफ़ भी इंगित करता है जबकि पश्चिम में
स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। वहां मध्यकाल में, दिन में
नाटकों के मंचन की आवश्यकता का जन्म ही इसलिए हुआ था
कि लोग शाम ढलने से पहले ही सुरक्षित अपने घरों को लौट
सकें। मध्यकाल में आविर्भूत इन्हीं धार्मिक नाटकों ने
आज के नुक्कड़ नाटकों से जुड़े एक और आवश्यक तत्व को
जन्म दिया और वह है प्रचार के लिए नाटक विधा का
प्रयोग।
वास्तव में प्रचार ही वह मूल मंत्र है, जो नुक्कड़
नाटकों के वर्तमान स्वरूप, संरचना और इतिहास से
अनिवार्य रूप से जुड़ा है। आज जिस रूप में हम नुक्कड़
नाटकों को जानते है, उनका इतिहास भारत के स्वाधीनता
संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और
विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है। इसी का
एक विधिवत रूप 'इप्टा' जैसी संस्था के जन्म के रूप में
सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के
लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व
नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं
सत्ता का विरोध आरंभ हुआ। इस प्रकार किसी भी गल़त
व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था
क्या हो सकती है - यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़
नाटक की धुरी टिकी हुई है। कभी वह किस्से-कहानियों का
प्रचार था, कभी धर्म और कभी राजनैतिक विचारधारा। किसी
भी युग और काल में इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं।
आज तो स्थिति यह हो गई है कि बड़ी-बड़ी
व्यावसायिक-व्यापारिक कंपनियाँ अपने उत्पादनों के
प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं,
सरकारी तंत्र अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए
नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और
राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के
प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं।
ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई
पड़ते है और ऐसे में इस विधा की वह सही पहचान कहीं
खो-सी गई है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे क्रिकेट में एक
दिवसीय फटाफट क्रिकेट ने पांच दिवसीय शास्त्रीय
क्रिकेट को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है,
वीडियो-दूरदर्शन जैसे तुरत-फुरत माध्यमों ने फ़िल्मों
के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है और रोज़ाना
पैदा हो रहे खिचड़ी-संगीत ने शुद्ध शास्त्रीय और
कर्णप्रिय संगीत की परंपरा को ही नष्ट कर दिया है।
आख़िर नुक्कड़ नाटक की वह अपनी असली पहचान क्या थी?
यह एक ऐसा माध्यम है जो स्वयं लोगों के बीच पहुँचता
है, उन्हीं की समस्याओं से रू-ब-रू होता है और उन्हीं
की भाषा में संवाद करता है। उसकी भूमिका मुख्यत: विरोध
की रहती है क्यों कि उसका उद्देश्य किसी भी तत्कालीन
व्यवस्था में ग़लत हो रही बातों की तरफ़ जनमानस का
ध्यान आकृष्ट करके उन्हें उसके प्रति जागृत करना है और
यदि संभव हो तो उस ग़लत व्यवस्था से लड़ने के लिए
तैयार करना है। दूसरे शब्दों में कहे तो नुक्कड़ नाटक
की मूल प्रकृति एक उत्प्रेरक की है जो दर्शकों को किसी
भी समस्या से साक्षात्कार कराकर यह भी अपेक्षा रखता है
कि वे व्यवहार के स्तर पर भी कोई निर्णय लेंगे। एक
दूसरे रूप में वह ब्रेख्त के उस महाकाव्यात्मक रंगमंच
के 'अलगाव सिद्धांत' से भी मिलता-जुलता है, जहां दर्शक
से अपेक्षा की जाति है कि वह कथा के बहाव के साथ न बह
जाए वरन उससे दूरी बनाए रखकर उसे देखे और उस पर
सोच-विचार कर अपने जीवन में क्रियान्वित करे। नुक्कड़
नाटक की इस मूल प्रकृति ने उसके स्वरूप और संरचना को
भी काफ़ी हद तक सुनिश्चित कर दिया-खुले में, चौराहों
और बाज़ारों में आती-जाती भीड़ को आकर्षित करना, बहुत
कम समय में अपने संदेश को प्रसारित करना और वैयक्तिक
चरित्र-चित्रण की बजाय अभिनेताओं की सामूहिक भागीदारी
से कथ्य को आगे बढ़ाना। मंचीय तामझाम के मोह को छोड़ते
हुए मात्र अभिनेताओं के माध्यम से अथवा अधिक से अधिक
एक-आध मंच उपकरणों के प्रयोग से काम चलाना। इस प्रकार
नुक्कड़ नाटक सचमुच में एक यायावर मंडली की अपेक्षा
रखता है, जो तेजी से क़स्बों, शहरों और गांव-गांव जाकर
छोटे-छोटे नाटकों से लोगों की ही अपनी समस्याओं के
प्रति उन्हें जागरूक बना सके। इसमें कोई संदेह नहीं कि
इस पूरी रचना प्रक्रिया में गीत, संगीत और कभी-कभी
नृत्य का भी अपना विशेष योगदान रहता है। यदि ये तत्व
अलग से नहीं भी होते तो भी संवादों को बार-बार दोहराने
के क्रम से एक शैलीबद्धता अपने आप बनती चली जाती है।
कहने का अभिप्राय यही है कि नुक्कड़ नाटक मूलत: एक
वैयक्तिक विधा न होकर समूह को अपने साथ लेकर चलती है
अर्थात वह अनिवार्य रूप से एक कोरस की अपेक्षा रखती
है।
इसलिए नुक्कड़ नाटक एक बहुत ही सशक्त और जीवंत
माध्यम है और यह अकारण नहीं कि भारत हो या यूरोप के
कुछ पश्चिमी देश - उन्होंने अपनी राजनैतिक
विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा को
हाथों-हाथ लिया। भारत में अपने वर्तमान रूप में
नुक्कड़ नाटकों का इतिहास यदि पचास-साठ साल पुराना है
तो पश्चिम में भी तीस साल पहले ही इस तरह की शैली में
नाटक खेले जाने लगे। यों भारत में भारतेंदु के 'अंधेर
नगरी' को भी इस शैली का पहला आधुनिक नुक्कड़ नाटक माना
जा सकता है, जिसका पहला मंचन १८८१ में दशाश्वमेध घाट,
बनारस में खुले में हुआ था। बहरहाल, आज़ादी के आंदोलन
के दौरान नुक्कड़ नाटकों ने 'इप्टा' के माध्यम से अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके बाद भी आज तक कमोबेश
उसी रूप में नुक्कड़ नाटकों का मंचन और प्रचलन जारी
है।
लेकिन इसके साथ ही नुक्कड़ नाटकों को कुछ सवालों का
सामना भी करना पड़ रहा है और वह इस रूप में कि नुक्कड़
नाटक महज़ प्रचार का ही हथकंडा बनकर रह जाए या फिर
उसका भी अपना कोई व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र हो सकता
है? क्या कारण है कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर सभी
नुक्कड़ नाटकों का चेहरा एक-सा ही होता जा रहा है?
क्या चौराहों, बाज़ारों में लोगों की भीड़ को एकत्रित
करके ज़ोर-ज़ोर से एक ही बात को चीख-चिल्ला अथवा गाकर
बताने का नाम ही नुक्कड़ नाटक है या कि उसके लिए भी
अभिनेताओं की कोई विशेष प्रशिक्षण पद्धति हो सकती है?
विरोध और रोज़मर्रा की समस्याओं से अलग भी गहरे व
गूढ़ बातों में जाकर क्या नुक्कड़ नाटक उनकी
जांच-पड़ताल नहीं कर सकता?
आज से सोलह साल पहले १९८३ में भारत भवन, भोपाल और
केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में
भोपाल में चार-पांच दिनों का एक नुक्कड़ नाटक महोत्सव
हुआ था, जिसमें देश भर से बीस-पच्चीस नुक्कड़ नाट्य
मंडलियों ने शिरकत की थी और उपर्युक्त समस्याओं पर भी
विचार-विमर्श किया था। उसके बाद फिर कभी नुक्कड़
नाटकों पर ऐसा आयोजन और बहस हुई हो- मेरी जानकारी में
नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस महोत्सव में
भी और उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ नाट्य मंडलियों
ने निश्चित ही नुक्कड़ नाटकों के बने बनाए ढर्रे को
छोड़कर अत्यंत कल्पनाशील मुहावरे में नुक्कड़ नाटकों
की रचना और मंचन किए और उनका अपेक्षित असर भी पड़ा।
क्या यह अपने आप में एक नाटकीय विडंबना नहीं है कि
जहां आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक स्तर पर इस
शताब्दी के अंतिम दशक में इतनी उथल-पुथल हो रही है,
वहां नुक्कड़ नाटकों की वह प्रभावी भूमिका लगभग
उदासीन-सी होती जा रही है। अब वह समस्याओं और
विचारधारा का वाहक उतना नहीं रह गया है जितना कि
बड़ी-बड़ी व्यापारिक कंपनियों के उत्पादनों के प्रचार
का एक आकर्षक माध्यम। आज अधिकांश रंगकर्मी नुक्कड़
नाटकों के इसी विकल्प से जुड़े है और बाकायदा अपनी
रोज़ी-रोटी पा रहे हैं।
आख़िर ऐसा क्यों हुआ? यदि हम नुक्कड़ नाटकों के
संदर्भ में इसका उत्तर खोजने की कोशिश करें तो निश्चित
ही कुछ कारण दिए जा सकते हैं। मेरे विचार में नुक्कड़
नाटकों के प्रति बढ़ती उदासीनता का सबसे बड़ा कारण यही
है कि शायद आरंभ से ही नुक्कड़ नाट्य विधा को एक बहुत
ही सुविधाजनक रास्ता मान लिया गया था। सुविधाजनक इस
अर्थ में कि कुछ लोग जुट गए, चौराहे पर पहुँच गए और
कुछ भी उछल-कूद, शोर-शराबा करके आगे बढ़ गए। इसी से
जुड़ा दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग इस विधा से
विचारधारा के तहत जुड़े थे, उनमें से अधिकांश में उस
विचारधारा के प्रति स्वयं में ही कोई प्रतिबद्धता नहीं
थी। और सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि जिस विचारधारा की
प्रतिबद्धता के संदर्भ में रंगकर्मियों ने व्यवस्था के
विरोध में नुक्कड़ नाटक किए, बाद में उसी विचारधारा की
व्यवस्था के स्थापित होने के बाद उनके सामने इस दुविधा
ने जन्म लिया कि अब वे किसका विरोध करें? इस उदाहरण के
लिए पश्चिम बंगाल और केरल का नाम लिया जा सकता है,
जहां वामपंथी विचारधारा के सत्ता में आने के बाद विरोध
के रंगमंच की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। यदि चाहें तो
कह सकते हैं कि कुछ हद तक प्रचार तंत्र के रूप में
संचार माध्यमों की बढ़ती लोकप्रियता ने भी नुक्कड़
नाटकों के चलन-प्रचलन को धक्का पहुँचाया है।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह जिज्ञासा सहज-स्वाभाविक
है कि ऐसे में नुक्कड़ नाटकों का भविष्य क्या होगा?
यों तो यह प्रश्न नाटक और रंगमंच जैसी विधा को संपूर्ण
रूप से भी संबोधित किया जा सकता है क्यों कि रंगमंच
स्वयं में ही एक क्षणभंगुर माध्यम है अर्थात वह
दिन-प्रतिदिन पैदा होता है और उसी दिन उसकी मृत्यु भी
हो जाती है। उस पर नुक्कड़ नाटक के साथ वह ख़तरा तो और
भी गहरे रूप से जुड़ा हुआ है क्यों कि एक तो अपने कलेवर
में वह बहुत छोटा होता है और दूसरे तात्कालिक
समस्याओं पर आधारित होने के कारण उसका प्रभाव उतनी ही
जल्दी समाप्त भी हो जाता है। इसीलिए यह भी ज़रूरी है
कि उसके अस्तित्व को कैसे बचाकर रखा जाए। इस दिशा में
ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए। सबसे पहले इसकी शुरुआत
स्वयं उन मंडलियों के सदस्यों की तरफ़ से होनी चाहिए,
जो नुक्कड़ नाटकों को मंचित करते रहे हैं और अभी भी
सक्रिय हैं। उन्हें एक तरह से अपना आत्मालोचन करना
होगा कि वे नुक्कड़ नाटक जैसी विधा में क्यों काम कर
रहे हैं? यदि कर रहे हैं तो कैसा काम कर रहे हैं? क्या
उन्हें इसके लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता
महसूस नहीं होती? यदि हां, तो उसके लिए क्या किया जाना
चाहिए? दूसरी पहल नाटककारों की तरफ़ से होनी चाहिए।
देखा गया है कि नुक्कड़ नाटक को बहुत ही हल्की-फुलकी
विधा मानकर रचनाकार बहुत जल्दी-जल्दी इस ओर प्रवृत्त
नहीं होते। अत: कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि नए
और सशक्त आलेख सामने आएँ, जिन्हें मंचित करने में
रंगकर्मियों को भी रचनात्मक चुनौतियों का सामना करना
पड़े। तीसरा और अंतिम विकल्प यह भी हो सकता है कि
राज्य और केंद्रिय स्तर पर नुक्कड़ नाटकों के मंचन की
नियमित प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाएं। आज भी यदा-कदा
जब दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में
आयोजित ऐसी नुक्कड़ नाट्य प्रतियोगिताओं में जाने का
अवसर मिलता है तो प्राय: ऐसे आलेखों से सामना होता है
जो सचमुच में आपको बाहर-भीतर से झिंझोड़कर रख देते हैं
और सोचने पर विवश करते हैं। यदि ऐसे ताज़े आलेखों की
शुरुआत आज के युवा छात्र लेखकों की तरफ़ से हो सकती
है तो कोई कारण नहीं कि हमारे अनुभवी रचनाकार और भी
ज़्यादा जटिल, संश्लिष्ट और गहरे नाट्यलेखों का सृजन न
करें।
यदि ऐसा संभव हो जाए तो नुक्कड़ नाटक का भविष्य
निश्चित ही उज्ज्वल होगा और उनके मंचन के उसी दौर की
वापसी होगी, जिसे नुक्कड़ नाटकों का स्वर्ण युग कहा
जाता है अर्थात पचास, साठ और सत्तर के तीन दशक वाला
दौर।
१६
जनवरी २००६
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